शहद जीने का मिला करता है थोड़ा-थोड़ा / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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पिछले दिनों मैंने किसी बगीचे में इक बहुत बड़े वृक्ष को देखा। उस विशाल वृक्ष पर इक सुन्दर लता, यानी बेल, लिपटी हुई थी। बहुत देर तक उन्हें देखती रही और ये तय नहीं कर पायी कि कौन ज्यादा सुन्दर है। और कौन किसकी सुन्दरता बढ़ा रहा है। वृक्ष ने उस कोमल लता को अपना सानिध्य दिया है। या बेल ने खुद को वृक्ष के प्रति समर्पित कर दिया। मैंने खुद ही मान लिया कि कोई एक नहीं; बल्कि दोनों ही सुन्दर हैं। लेकिन एक दूजे की वजह से।

कुछ दिनों बाद फिर से देखा तो पाया कि वृक्ष पर कोई बेल नहीं थी। बेल टूटी हुई-सी सड़क किनारे पड़ी थी। और वृक्ष भी सूना-सूना डरावना-सा लग रहा था। बगीचे के माली से पूछने पर उसने बताया की बेल को कीड़े वाला कोई पौधों का रोग हो गया था। कहीं वृक्ष भी इससे प्रभावित ना हो जाए, इसलिए बेल को ही तोड़ कर फेंक दिया गया था।

मैं बहुत देर सोचती रही। माली को रोग का इलाज करना था। उसे ठीक करना था। उसने तो वृक्ष को बेल से अलग ही कर दिया। क्यों किया उसने ऐसा?

दोस्तों, असल जिन्दगी में भी तो हम आजकल यही कर रहे है न? आए दिन टूटते विवाह। बढ़ते तलाक। ह्त्या, आत्महत्या। और किसी को चोट पहुंचाने या उसे जिन्दगी से अलग कर देने या खुद को दुख देकर हम हर समस्याओं के हल ढूंढ़ रहे है।

लेकिन हल तो हमें फिर भी नहीं मिलते। अगर किसी को जिन्दगी से अलग कर देने से या खुद को किसी की जिन्दगी से दूर करने से ही समाधान हो जाते तो आज दुनिया में कितनी शान्ति होती।

क्या हमने कभी सोचा कि हमारे साथी, मित्र, भाई, बहन या किसी भी आसपास रहने वाले व्यक्ति का व्यवहार हमारे प्रति, समाज के प्रति अचानक क्यों बदल गया? जो कल तक जान से ज्यादा प्रेम कर रहा था, वह आज जान का दुश्मन कैसे हो गया? चलिए सीधी बात करती हूँ।

पिछले दिनों, विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस था। इस संगठन के अनुसार सारी दुनिया में मानसिक रोगियों की संख्या एकदम से बढ़ गई है और इन्हीं मानसिक रोगों की वजह से रिश्तों में दरारें आ रही हैं।

आधुनिकता की दौड़, एक-दूजे को नीचा दिखाने की होड़, पैसा, झूठी शान, दिखावे की जिन्दगी ने और समय की कमी ने लोगों को बहुत-सी मानसिक बीमारियाँ दी हैं। जैसे कि फोबिया, मूड डिस-आर्डर, काग्नेटिव-डिसआर्डर, साइजोफ़्रेनिया, अल्कोहल पर निर्भरता और डिप्रेशन। ये तो सिर्फ चंद नाम है। फेहरिस्त बहुत लम्बी है।

इन रोगों की वजह से आए दिन समाज में, रिश्ते उलझ रहे है। टूट रहे हैं। कारण समझ नहीं आते लेकिन ये हो रहा है।

दरअसल देह के रोग दिखते हैं। उसके लक्षण भी नजर आते हैं। लेकिन मन के रोग नहीं दिखते। कोई ये कैसे बताए कि वो कितने किलोग्राम दुखी है। या कि उसके मन पर दर्द की कितनी दरारें हैं। उसके दिमाग में कितनी अशांति है। उसे नापने के लिए कोई पैमाना किसी डॉक्टर के पास नहीं है।

मन के विकारों को तो रोगी अपने विचारों, भावनाओं तथा व्यवहार से ही प्रकट करेगा ना?

ये बात तो सिर्फ और सिर्फ वही व्यक्ति जान सकता है जो बहुत करीब हो, जो उसे समझे। लेकिन किसी के मन को समझना क्या आसान है? मन का कोई रूप नहीं। आकर नहीं। सीमाएँ नहीं। और इससे बड़ी बात यह कि किसी के पास अब धैर्य नहीं। समझ भी नहीं। कोई किसी को समझाना नहीं चाहता और ना ही समझना चाहता है।

कोई किसी के मन की विचित्र स्थिति को भांपना और विवेक से समाधान निकालना नहीं चाहता। उलटे इसे पूर्वजन्मों के पाप, टोने टोटके, भूत-प्रेत और ग्रहों का फेर कहा जाता है। पंडित, तांत्रिक, ओझा खूब इसका फायदा उठा रहे हैं। रत्न, ताबीज, यंत्र और फेंगशुई का कारोबार खूब चल निकला है। हाँ कुछ लोग चिकित्सा का सहारा भी लेते है। पर सिर्फ दवा से मन के घाव कैसे भरेगे?

जरुरत है साथी के व्यवहार में आए असुन्तुलन के पीछे छिपे दर्द को देखने की; न कि दोषारोपण करने की। मन के रोगी को प्रेम की जरुरत होती है। हमारे स्नेह की, आत्मीयता की, हमदर्दी की, सहानुभूति की ज़रूरत होती है। और जब ये नहीं मिलता तो मन की हालत बिगड़ती जाती है।

इसी के चलते, हर व्यक्ति मन के सूखे टुकड़े को हरा करने के प्रयास करने लगता है। कोई तो मुझे समझे। कोई तो मन के तल तक पहुंचे। ये विचार ही नए नए रिश्ते बनने-बनाने का सबब बनता है।

हम घर का सामान, कपडे, जूते, कार, गहने खरीदते समय उन चीजों को सौ बार उलट पलट कर देखते हैं। लेकिन जो साथी आपके साथ एक पूरी जिन्दगी बिता रहा है। उसके चेहरे को गौर से देखते तक नहीं।

जिन्दगी की भागदौड में कौन कितने पीछे छूट गया है, ज़रा देखिए तो सही। कौन-सा सिरा उलझ गया और कौन कहाँ भटक गया देखें तो ज़रा। सोचे ज़रा आखिरी बार कब हँसे थे जी खोल कर। किसी के होठों पर कब मुस्काने आई हमारी वजह से। याद है?

वृक्ष पर लिपटी लता वृक्ष के कारण सुन्दर नहीं। वो इसलिए सुन्दर है कि वृक्ष उसे फैलने से, लिपटने से रोकता नहीं है। जैसे साहिल से सट कर जो दरिया बहता है उसे बहने दिया जाए। हम बहते दरिया का रुख क्यों मोड़ते है? मन की गांठे, प्रेम के स्पर्श से ही खुलती है। दो बोल प्यार के जादू भरा असर करते है। और दो कड़वे बोल किसी का दिल छलनी कर देते है। लेकिन किसी भी डाक्टर के पास ऐसी कोई मशीन नहीं जिसमें ये छेद या सुराख़ दिखे।

तो क्यों ना हम, किताबों की जगह किसी का मन पढ़े। सामानों की जगह दिलों की देखभाल करे। दीवाली पर हजारों दिए रोशन करने से बेहतर है अपने मन में प्रेम की लौ जलाएँ और अन्तिम बात जगजीत की ग़ज़ल के साथ: "शहद जीने का मिला करता है थोड़ा-थोड़ा"... इस शहद को संभाल के रखें हम। है ना?