शहर, सपना और तवायफनामा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :17 फरवरी 2016
अनेक वर्ष पूर्व ख्वाजा अहमद अब्बास ने फिल्म बनाई थी 'शहर और सपना।' उनका वृत्तचित्र, जो चार शहरों की अांतड़ियों की गंदगी दिखाता था, कई वर्ष तक प्रतिबंधित रहा। शहरों के भी हाथी की तरह दिखाने के दांत और खाने के दांत अलग-अलग होते हैं। हर शहर का चेहरा-मोहरा होता है, हाथ-पैर होते हैं, उदर होता है और उसकी आंतड़ियों में गंदगी का साम्राज्य होता है। दूर से देखने पर हर शहर एक सपना लगता है और उसमें बसने पर मालूम होता है कि यह तो नाइटमेयर है एक डरावना ख्वाब। शहर की अांकी-बांकी गलियों में साधनहीन लोग अपना स्वर्ग बसा लेते हैं और यह शहर की विशेषता नहीं है वरन् उन लोगों का सपने देखने का माद्दा है कि वे शहर की धड़कन बन जाते हैं और ईंट, गारा, सीमेंट और कोलतार से बना शहर एक जीवंत व्यक्ति की तरह हो जाता है। शहर सिर्फ भूगोल नहीं है, उसका इतिहास भी होता है और उसका साहित्य भी होता है। शहर उम्रदराज भी होते हैं, जवान भी होते हैं और कई बार उन्हें महानगर का बच्चा भी कहा जाता है। लुधियाना पुराना है, चंडीगढ़ अपेक्षाकृत नया शहर है।
दिन के उजाले में शहर के कुछ पक्ष दिखते नहीं है, वे रात में ही उजागर होते हैं। शहर की पहचान के लिए लोग विभिन्न मानदंडों का प्रयोग करते हैं। कुछ मनचलों का विचार है कि शहर का असली परिचय उसमें बसा तवायफों का मोहल्ला है। श्याम बेनेगल ने शबाना, नसीर अभिनीत 'मंडी' बनाई थी, जिसकी प्रेरणा उन्हें मध्यप्रदेश के एक लेखक की कथा से मिली थी और लंबे समय तक मैं इस मुगालते मंे रहा कि यह सआदत हसन मंटो की कथा है, क्योंकि उसके तेवर भी मंटोइश से थे। दुर्भाग्यवश आज भी उस लेखक का नाम याद नहीं आ रहा है। उस कथा का सारांश यह था कि एक विकसित शहर के भाग्य विधाता निर्णय लेते हैं कि तवायफों को कहीं और बसाया जाए। ये 'गंदगी' उन्हें पसंद नहीं है। अत: तवायफों को शहर से दूर सुनसान जगह पर बसाया जाता है। उनके चाहने वाले आते हैं, अत: चाय-पान की दुकानें खुलती हैं और धीरे-धीरे वहां शहर बस जाता है। वर्षों बाद शहर के इतिहास से अनभिज्ञ शहर के भाग्य विधाता निर्णय लेते हैं कि तवायफों को शहर से बाहर खदेड़ दिया जाए। किसी जमाने में तवायफों के भी 'घराने' होते थे कि यह आगरा घराने की है और बुरहानपुर घराने की है।
स्वंतत्रता संग्राम में भी कुछ तवायफों ने गदर के घायलों को अपने कोठों में पनाह दी है और उनकी सेवा भी की है। इस विषय में अनेक सत्य घटनाओं का इस्तेमाल विविध फिल्मों में हु्आ है। अंग्रेजों की हुकूमत के दौर में सरकार उखाड़ने की योजनाएं तवायफों के कोठों पर बनाई गईं। अंग्रेज हुक्मरान भी कोठों पर जाते थे और उनकी सूचना तवायफें देश भक्तों को देती थीं। आजकल किसी अजीबोगरीब मानदंड पर शहरों को भी बेजान नंबरों से नवाज़ा जा रहा है कि अमुक शहर फलां शहर से ज्यादा साफ है। स्वच्छ शहरों के साथ गंदे शहरों के नाम भी उजागर किए जा रहे हैं। आज यह तो मुमकिन नहीं कि शहरों की जानकारी लेते समय शहरों की तवायफों की भी जांच पड़ताल हो, क्योंकि बदलते समय में उसी पुरातन पेशे को नए नामों से पुकारा जाने लगा है जैसे काल गर्ल या गुजरात की मैत्री करार की तरह अंतरंग साथी महिला इत्यादि। पहले जो शहर के एक मोहल्ले में सिमटा होता था, वह अब फैलकर पूरे शहर पर छा गया है। अब ये तो उस शायर के साथ हद दर्जे की हिमाकत होगी कि हम दोहराएं, 'सिमटे तो दिल-ए-आशिक, फैले तो जमाना है।' गुजरे जमाने में तवायफों को भी दो वर्गों में बांटा गया था- मधुर गीत गाने वाली और शरीर बेचने वाली। अब न उस तरह के इलाके हैं और न ही उस तरह का वर्गीकरण। आजकल तो कामयाबी के लिए अपना जमीर बेचने वालों की संख्या बढ़ गई है। आज हर किस्म के गोश्त बेचने वालों से बड़ी संख्या आत्मा बेचने वालों की हो गई है और 'तवायफाना' सभी क्षेत्रों में छा गया है। इस अत्यंत पुराने व्यवसाय को लेखकों और शायरों ने बहुत रोमांटेसाइज कर दिया है, जबकि शरीर की धुनाई ऐसे होती है जैसे कपास धुनकी जा रही है। हालात लगभग बूचड़खाने की तरह होती है। जिस्मफरोशी में हरामखोरी की कोई गुंजाइश नहीं है। पर्यटकों में प्रिय एशिया के कुछ अत्यंत ग्लैमरस शहरों में तवायफों से प्राप्त कर उन शहरों के विकास का खास जरिया है। तवायों के भी कुछ गर्व होते हैं। शम्मी कपूर निर्देशित 'मनोरंजन' जो 'इरमा ला डाउज' से प्रेरित थी, में तवायफ अपने प्रेमी से कहती है कि उसे जाकर कोई काम करने की आवश्यकता नहीं। संवाद है, 'क्या तवायफों के बीच मेरी नाक कटाओगे कि मैं एक अदद प्रेमी नहीं पाल सकती।' तवायफों की कोई तवारीख (इतिहास) नहीं है परंतु इतिहास के हाशिये उनके जिक्र से रोशन हैं। सायरा शगुफ्ता से क्षमा मांगते हुए कहेंगे, 'तवायफ का बदन ही उसका वतन नहीं होता, वह कुछ अौर भी है।'