शहर में लाइब्रेरी हुआ करती थी... / कौशलेन्द्र प्रपन्न

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नालंदा विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी कहते हैं छह माह तक जलती रही थी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह ज्ञान-मीमांसा एवं ज्ञान-सृजन की रफ्तार को कम करने की मानवीय विकास के इतिहास में पहली बड़ी घटना के तौर पर दर्ज की जानी चाहिए. किसी भी समाज के बौद्धिक विकास में स्थानीय शैक्षिक संस्थानों और उसकी पुस्तकालयी योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। लेकिन अफ्सोसनाक बात यही है कि समाज के विकास में पुस्तकालयों को समुचित स्थान नहीं मिल पाया है। आजादी के सत्तर साल बाद भी हमारे पास आमजनता तक पुस्तकालय की पहुंच नहीं बन पाई है। यूं तो विभिन्न शैक्षिक समितियों में पुस्तकालय की महत्ता के गुणगान किए गए हैं, लेकिन हकीकतन वह आज भी शैक्षिक संस्थानों में एक कोने और कमरों में सिमटी ही दिखाई देती है। जब भी किसी सुनियोजित और योजनाबद्ध नगर का निर्माण किया जाता है तब स्कूल, अस्पताल, सामुदायिक भवन, बाज़ार आदि की योजना बनाई जाती है लेकिन एक पुस्तकालय भी हो ऐसी चर्चा की सुगबुगाहट सुनाई नहीं देती। आधुनिक शहरों और अत्याधुनिक शहरों की परिकल्पनाकार मॉल्स, फास्ट रेल, यातायात के साधन, वातानुकूलित शॉपिंग सेंटर तो बनाते हैं लेकिन ज्ञान-पुस्तकादि के चाहने वालों को दरकिनार कर दिया जाता है। महानगरों में तो पुस्तकालय नजर नहीं आतीं तो कस्बों और द्वितीय श्रेणी के शहरों में पुस्तकालय की तलाश तो और भी कठिन काम है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई आदि शहरों मंे तो फिर भी अत्याधुनिक पुस्तकालय नजर आ जाएं लेकिन छोटे शहरों में तो वाचनालय तक ही महदूद कर दिए जाते हैं। जहां पुस्तकालय के नाम पर अखबार और पत्रिकाएं पढ़-पलट सकते हैं। यदि दिल्ली की बात की जाए जो अमेरिकन, ब्रिटिश लाइब्रेरी के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय एवं अन्य कॉलेजीय और विश्वविद्यालयी लाइब्रेरी एवं संसद की लाइब्रेरी को छोड़ दें तो कोई भी लाइब्रेरी नजर नहीं आएंगी। एक बेहद पुरानी लाइब्रेरी लाला हरदयाल पब्लिक लाइब्रेरी जो 1862 में स्थापित हुई थी वह इन दिनों बेहद खस्ता हाल में है, को छोड़कर कोई ऐसी जगह नहीं है जहां पाठक अपने पसंद की किताबें, जर्नल आदि पढ़-पलट पाएं।

लाला हरदयाल पब्लिक लाइब्रेरी में कहते हैं कि 8000 से भी ज़्यादा अत्यंत पुरानी पांडुलिपियां हैं जो अब अपनी मौजूदगी को किसी तरह बचाए हुए हैं। उनकी हालत यह है कि उन्हें उलटने पलटने से डर लगता है कहीं वे पन्ने टूट न जाएं। इसलिए सरकार की नींद अब खुली है कि उन पांडुलिपियों को संरक्षित और डिजिटलाइज किया जाए ताकि उन्हें भविष्य के लिए बचाया जा सके. इस लाइब्रेरी की खासियत है कि यहाँ अरबी, फारसी, संस्कृत आदि भाषाओं की अत्यंत पुरानी किताबें संरक्षित की गई हैं किन्तु उचित रख रखाव की कमी की वजह से मरनासन्न हैं। उन्हें जिंदा रखने के लिए भारत सरकार ने अब आर्थिक मदद के हाथ बढ़ाएं हैं। यह तो एक लाइब्रेरी की मृत्यु गाथा है। देशा के विभिन्न राज्यों में राज्य स्तरीय पुस्तकालय भी हैं जिन्हें बचाए जाने की आवश्यकता है। मालूम हो कि पहले राजा रजवाड़ों को पढ़ने के शौक बेशक न हो किन्तु छवि ऐसी बनी रहे कि उनके यहाँ किताबों की इज्जत की जाती है वे अपने महल में एक कोना जिसे पुस्तकालय कहंे तो अनुचित नहीं होगा, हुआ करती थी। राजा की मृत्यु के बाद न तो महल महफूज रहे और न वे किताबें हीं। वे भी सत्ता और शासन के साथ ही अपनी रक्षा के लिए मुंह जोहने लगे। राजस्थान के कई इलाकों में आज भी प्राचीन पुस्तकालय हैं जहां बहुत महत्त्व की पुरानी पांडुलिपियां धूल फांक रही हैं। यदि हमने आज उन्हें नहीं बचाया तो वे हमारी नागरीय ज्ञान-मीमांसा के भूगोल से सदा के लिए गायब हो जाएंगी।

पटना मंे स्थित ख़ुदा बक्श ओरिएंटल लाइब्रेरी के बारे में कहा जाता हैकि यहाँ पर फारसी, अरबी, पाली, संस्कृत की जितनी पांडुलिपियां हैं वे देश के किसी भी अन्य पुस्तकालय में मिलना दुर्लभ है। लेकिन इस पुस्तकालय की हालत भी दयनीय और शोचनीय है। कर्मचारियों के पद वर्षों से खाली हैं तो हैं उन्हें भरने की कोशिश नहीं की गई. खाली पदों की समस्या से लाला हरदयाल पुस्तकालय, कोलकाता का राष्टीय पुस्तकालय आदि भी जूझ रहे हैं। शैक्षिक संस्थानों मंे शिक्षकों के साथ ही लाइब्रेरी प्रोफेशनल्स की बेहद कमी है लेकिन सरकार तदर्थ पर ही काम चला रही है। मालूम हो कि स्कूल, कॉलेजों मंे कितनी शैक्षिक पदें खाली हैं इस तरह की ख़बरें तो आती रहती हैं लेकिन उन पुस्तकालयों में कितने प्रोफेशनल्स के पोस्ट खाली हैं इस ओर कोई खास रिपोर्ट नजर नहीं आती।

पूरे देश भर में पुस्तकालय विज्ञान में हर साल छात्र-छात्राएं स्नातक और परास्नातक, एम फिल और पीएचडी की उपाधि हासिल कर बाज़ार में उतर रहे हैं लेकिन वे कहाँ जा रहे हैं इसका आकड़ा नहीं है। वे सरकारी पुस्तकालयों मंे तो कार्यरत नजर नहीं आते तो फिर वे कहाँ हैं? वे निजी शैक्षिक संस्थानों में कम वेतन पर खम रहे हैं। उनकी पुस्तकालय विज्ञान में हासिल दक्षता और कौशल का काफी हिस्सा बेकार जा रहा हैं जो कहीं न कहीं मानवीय दक्षता का क्षरण माना जाएगा। पुस्तकालय विज्ञान के पितामह माने जाने वाले एस आर रंगनाथन आजादी के बाद पुस्तकालय को विज्ञान और विभागीय पहचान दिलाने में अपना योगदान दिया। रंगनाथन का वर्गीकरण सिद्धांत काफी चर्चित काम माना जाता है। इन्होंने कहा था कि पुस्तकालय एक संवर्द्धनशील संस्थान है, हर किताब इस्ताल के लिए हैं और हर पाठक के लिए किताब होती है आदि। उनके पांचों सिद्धांतों पर नजर डालें तो आज न तो पाठकों के पास किताब पढ़ने की ललक बची है और न पुस्तकालय ही उपलब्ध हैं। जहां पुस्तकालय की सुविधा है वहाँ पाठक नहीं हैं और हां पाठक हैं वहाँ पुस्तकें नहीं हैं।

पुस्तकालय महज किताबों, पन्नों, ग्रंथों का घर ही तो नहीं होती। पुस्तकालय एक जीता जागता स्वयं में शिक्षण संस्थान हुआ करती है। लेकिन आज पाम टॉप, स्मार्ट फोन और विभिन्न गजट्स के समय में मुद्रित किताबों के प्रयोग बेशक कम हुए हों लेकिन एकबारगी अप्रासंगिक नहीं हुए हैं। क्योंकि विभिन्न प्रकाशन विभाग से हजारों की संख्या में किताबें हर साल छप रही हैं। वे पाठकों तक आएं न आएं लेकिन पुस्तकालयों में ज़रूर घर बना लेती हैं। देश में जो किताबें छपती हैं उसकी पांच कॉपी कोलकाता राष्टीय पुस्तकालय में जमा करानी पड़ती है। हालात यह हैं कि इस लाइब्र्रेरी में किताबों को रखने की व्यवस्था तक नहीं है। पुरानी इमारत को बढ़ाने पर ध्यान दिया जाना चाहिए या फिर उन्हें अन्यत्र भवन मुहैया कराया जाए ताकि इस पुस्तकालय के संरक्षणीय उद्देश्य की पूर्ति तेा हो।

पुस्तकालय विज्ञान की दुनिया के प्रतिष्ठित प्रोफेसर पी बी मंगला का मानना है कि देश और समाज पेपरलेस सोसायटी की ओर बढ़ रही है लेकिन पेपर हमारी ज़िन्दगी से यूं ही गायब नहीं हो सकतीं। विश्व भर में रोजदिन लाखों पन्ने छप रही हैं और छप रही हैं किताबें इसलिए यह कहना बेबुनियाद है कि किताबें खत्म हो जाएंगी। किताबें तो रहेंगी ही बेशक उसके फॉम बदल जाएं। यही देखने में भी आ रहा है कि ऑन लाइन किताबें खरीदने और पढ़ने वालों का वर्ग अगल है जो लगातार खरीद-पढ़ रहा है। श्री ज्ञानेंद्र सिंह, पुस्तकालयाध्यक्ष, दयाल सिंह कॉलेज ज्ञानेंद्र का मानना है कि आने वाले दस पंद्रह सालों में लाइब्रेरी वही नहीं होगी जो 2000 से पहले थी। आज किताबें ईफॉम में आ चुकी हैं। बल्कि कहूँ तो यूजीसी एवं अन्य शैक्षिक संस्थाएं अपनने जर्नल्स ईफॉम में ही उपलब्ध करा रहे हैं। जिन्हें चाहिए वे ऑन लाइन डाउनलोड कर सकते हैं। निश्चित ही आने वाले वर्षों में किताबें इलेक्टॉनिक रूप हांेगी। किताबों को पुराना स्वरूप भी रहेगा किन्तु संख्याएं कम हो जाएंगी। पर्यावरण संरक्षकों की मानें तो कागज निर्माण से हमारे पेड़ काटे जाते हैं। ईफॉम से इन्हें दूर कर सकते हैं।

डॉ राघवेंद्र प्रपन्न, महर्षि वाल्मीकि कॉलेज ऑफ एजूकेशन में सहायक प्रोफेसर के तौर पर अध्यापन कर रहे हैं इनका मानना है कि पढ़ना और शिक्षित करना कोई अभियान के माध्यम से जागरूकता तो पैदा की जा सकती हैलेकिन इस दक्षता को विकसित करने और उसे बच्चों तक में प्रवाहित करने में और भी कई तत्व काम करते हैं। बिना पुस्तकालय को बचाए हम इसकी परिकल्पना भी नहीं कर सकते कि समाज में पुस्तक और पुस्तकालय के बगैर बच्चों और व्यस्कों में पढ़ने की आदत को बरकरार रख सकते हैं। इनका मानना है कि पढ़ने की आदत को बचाए बगैर लाइब्रेरी को नहीं बचाया जा सकता। वहीं महर्षि वाल्मीकि कॉलेज ऑफ एजूकेशन के पुस्तकालयाध्यक्ष श्री रेयाज़ का कहना है कि आने वाले समय में पारंपरिक किताबें सेल्फ से गायब हो जाएंगी। लाइब्रेरी में किताबें कम ईफार्म में ज़्यादा नॉलेज कंटेनर मिलेंगी। इतना ही नहीं बल्कि पाठकों की आवाजाही भी लाइब्रेरी मंे कम होगी क्योंकि उन्हें जानकारियां और किताबें तमाम चीजें ऑन लाइन और इलेक्टानिक रूप में मिला जाया करेंगी। इससे भी बड़ी बात यह कि पुस्तकालय तो तब होंगी जब पढ़ने वाले बचेंगे। आने वाले दिनों में पढ़ने की आदत काफी कम होगी। जो भी होगा ई किताबें और ईकंटेनर होंगे।

राजकमल प्रकाशन के प्रबंध संपादक श्री अशोक माहेश्वरी का मानना है कि हार्ड बाउंड में किताबों को पढ़ने का नशा नहीं जाएगा। हां किताबों के साथ चलने वाली किंडल, पॉम टॉप, ईबुक्स आ जाएंगी लेकिन पुरानी किताबें भी रहेंगी। जहां तक लाइब्रेरी के स्वरूपव का मसला है कि लाइब्रेरी में संभव है ऐसे प्रावधान कर दिए जाएं कि एक ओर एक जगह पर पुरानी प्रकाशित किताबें रखी हों और दूसरी ओर ईबुक्स रखी मिलें। लाइब्रेरी में बदलाव ऐसे भी होंगे कि मुद्रित किताबें की खरीद पर असर पड़े वहीं ई-बुक्स भी अपनी जगह बना चुकी होंगी।

कहते हैं इसी शहर में एक लाइब्रेरी भी हुआ करती थी। अब उसकी हालत खराब-सी है। जैसी विश्व भर में हजारों भाषाएं या तो मर चुकी हैं या फिर मरने की कगार पर हैं। एक लाइब्रेरी का खत्म होना शायद हम आज न समझ पाएं लेकिन जिन्हें किताबों से मुहब्बत है जिन्हें पढ़ने की लत है वे बड़े परेशान होंगे। लेकिन संभावना यह भी है कि उन्हें बहलाने के लिए नए-नए किसिम किसिम के ई बुक्स और नॉलेज कंटेनर आ जाएं और पुरानी लाइब्रेरी नई चाल में ढली नजर आए.