शहर से दोस्ती / सुभाष नीरव
पिताजी को गाँव से दिल्ली हमारे पास आए महीनाभर होने को है। इस बीच उन्होंने एक बार भी नहीं कहा कि बेटा, तेरी दिल्ली में मेरा दिल नहीं लगता। मेरी वापसी की टिकट करा दे। जब माँ जिन्दा थी, उसके साथ दो बार आए थे और हफ़्ताभर रहकर ही लौट गए थे। उनके आने से सुधा को भी आराम हो गया है। पोते रिंकू को सुबह स्कूल बस पर चढ़ाने और दोपहर को बस स्टैंड से लेकर आने का काम अब वही करने लगे हैं। रिंकू और उनके बीच अच्छी दोस्ती हो गई लगती है। सुबह-शाम की सैर में कोई नागा नहीं करते हैं। सुधा भी अब बाज़ार कम जाती है। पिताजी ही खुद बाज़ार से ला देते हैं, जो लाना होता है।
एक रविवार मैं सुबह हज्जाम के पास जाने लगा। पिताजी बोले, "रुक बेटा, मैं भी चलता हूँ। मेरे भी सिर के बाल बहुत बढ़ गए हैं, हल्के करवा लूँ।"
मैं पिताजी के संग घर से बाहर निकला।
"नमस्ते बाऊजी!" गली ख़त्म होने पर जैसे ही हम बाज़ार की सड़क पर हुए, गली के कोने में कपड़े प्रैस करती एक अधेड़ औरत ने ऊँची आवाज़ में पिताजी को 'नमस्ते' की।
"कैसी हो कमला? सब ठीक है न?" पिताजी ने उसके पास एक पल रुककर पूछा।
"सब ठीक है बाऊजी! आप ठीक हैं न?"
"हाँ, ठीक हूँ।" कहते हुए पिताजी पुनः मेरे साथ चलने लगे। एक दुकान के आगे बने चबूतरे पर दो बूढ़े कुर्सियों पर बैठे सर्दियों की गुनगुनी धूप सेंक रहे थे। जैसे ही हम उनके पास से गुज़रे, उनमें से एक ने हाँक लगाई-"कैसे चुपचाप निकले जा रहे हो मोहन शाह? कोई दुआ सलाम भी नहीं।"
"अरे, ब्रह्मदेव जी, राम-राम सच, ध्यान ही नहीं गया आपकी तरफ।
कैसे हैं? सब राज़ी बाज़ी? "
"हाँ, सब राज़ी-बाज़ी से... किधर कु चले सुबह-सुबह?"
"नाई धोरे जा रहा हूँ, सिर का जंगल जियादा घणा हो रिहा सै।"
मैं चौंका, पिताजी हरियाणवी कब से बोलना सीख गए। हज्जाम की दुकान से कुछ पहले सड़क किनारे सब्ज़ी की रेहड़ीवाले ने पिताजी को रोक लिया-"बाबा जी, परसों आप साग पूछ रहे थे ना... बिलकुल ताज़ा साग आया है, ले जाइए। आपके अपने गाँव में भी ऐसा ताज़ा साग न होगा।"
"अभी नहीं पूरन, वापसी पर लूँगा। मेरे लिए अलग रख दे एक किलो।" पिताजी ने सब्ज़ीवाले से यूँ बात की, जैसे उसे बरसों से जानते हों।
हेयर ड्रैसर की दुकान में घुसे ही थे कि किसी की शेव बनाता हज्जाम बोला, "कैसे हो बाबूजी? ... बैठिए... ये शेव बना लूँ, फिर आपका ही नंबर है।"
मैं हैरान! इस दुकान पर मैं बीसियों बार आया होऊँगा, पर इसने कभी इस तरह बात नहीं की थी। जब तक पिताजी और मेरा नंबर आया, हज्जाम पिताजी से लगातार बतियाता रहा। गाँव-घर की, देश-दुनिया की बातें। लगता था, जैसे कई बरस पुराना याराना हो।
कटिंग करवाकर दुकान के बाहर निकले तो मैंने पिताजी से कहा-"आपको तो यहाँ हर कोई जानने लगा है।"
"हाँ बेटा, अगर किसी शहर-कस्बे को अपना बनाना हो, तो पहले उससे दोस्ती गाँठनी पड़ती है, वहाँ के लोगों से दुआ-सलाम करनी पड़ती है। तब कहीं जाकर वह अपनेपन का अहसास करवाता है।"
"वाकई पिताजी, मुझे तो लग रहा है, जैसे आप यहाँ पिछले दस सालों से रह रहे हों और मैं आपका मेहमान बनकर आया होऊँ।"
"हा हा हा!" पिताजी ने ज़ोर का ठहाका लगाया और मित्रवत् मेरे कंधे पर हाथ रखकर चलने लगे।
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