शांतिदूत / नूतन प्रसाद शर्मा

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मां वसुन्धरा के आंगन में कभी कभी ऐसे महापुरूषों का अवतार हो जाता है जो अपने विशिष्टत आचरण व्यवहार एवं कार्यों के कारण गांव देश ही नहीं पूरे विश्व में विख्यात हो जाते हैं। ऐसे ही एक मुमुक्ष व्यक्ति है जिनका भगवान विष्णु की तरह एक सहस्त्र नाम है। लेकिन जगदीश के नाम से ज्यादा जाने पहचाने जाते है। शांतिवादी होने के कारण शांतिदूत भी कहे जाते हैं।

वे चर अचर सबके स्वामी हैं। सम्पूर्ण भूतों के आदि मध्य तथा अंत हैं देवों में इन्द्र पुरूषों में पुरूषतत्व अक्षरों में अकार ज्योतियों में किरणों वाले सूर्य, आठ वसुओं में अग्नि, जीतने वाले में विजय, समासों में द्वंद समास, गुप्त रखने योग्य भावों में मौन, यज्ञों में जप यज्ञ, जलाशयों में समुद्र, वेदों में सामवेद तथा यक्षों में धन के स्वामी कुबेर वे ही है। इस तरह उनके विस्तार का कहीं पता नहीं है।

वे सबके हितैषी और कल्याणकर्ता हैं। एकाक्ष होने पर भी एक दिव्यि दृष्टि हैं। उनके हृदय में किसी के प्रति द्वेष या घृणा नहीं है लड़ाई झगड़े से इतनी नफरत कि दो के बीच कभी नहीं पड़ते। जब कभी एक राष्ट्र, दूसरे राष्ट्र के ऊपर चढ़ाई कर देता है तो वे तीसरे राष्ट्र की शरण ले लेते हैं। न किसी को मित्र मानते हैं न किसी को दुश्मन। बस सबकी भलाई चाहते हैं इसलिए कबीर की खास कर एक दोहे का प्रतिक्षण जाप करते रहते हैं-

कबीरा खड़ा बाजार में सबकी मांगें खैर।
ना काहू से दोस्ती ना कहू से बैर।।

उनकी उदासी भावना को नासमझ कुछ अज्ञानी उन्हें पलाय नवादी करार देते हैं। पर वे ध्यान न देकर यूं कहते हुए अपनी राह लग जाते है -

उदासीन अरिमीत हित सुनत जरहि खलरीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति।।

जगदीश को आज तक कोई मात नहीं दे पाया है। जो भी उनसे टक्कैर लेने की सोचता है, अपने मुंह की खाता है। वे बीरबल की तरह हाजिर जवाब भी है। कैसी भी शंका हो तत्काल निवारण भी कर देते हैं। प्रश्न का उत्तर हां न दोनों में देते हैं। उनकी बातें स्पष्ट भी रहती है और अस्पष्ट भी। आगे वाला आधे वाक्य् को पूरी समझ जाता है तो आधे को सुन ही नहीं सकता यही कारण है कि आलोचक उनके सामने आने से कतराते हैं।

वे नारद की तरह एक स्थान पर अधिक समय तक कभी नहीं ठहरते। आज अमेरिका में दिखेगे तो कल फ्रांस में। आखिर पूरा संसार उनका ही है। उस दिन मुझे ज्ञात हुआ कि वे भारत आये हैं तो मैं दौड़ा-दौड़ा उनके पास गया। फोटोग्राफर एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं के प्रतिनिधियों को अभी निपटाकर बैठे थे कि मैंने मिलने इच्छा व्यक्तो की । यद्यपि उनके पास समय की बेहद कमी रहती है, इसलिए उस वक्त भी थी। पर मेरी प्राथर्ना को ठुकरा न सके। मुझे अंदर बुलवाया गया। उनके प्रथम दर्शन में ही मैं प्रभावित हुए बिना न रह सका। लम्बे केश, बढ़ी हुई दाढ़ी, माथे पर त्रिपुंड, गले पर रूद्राक्ष की माला कहने का मतलब वे सनातन ऋषियों की तरह देदीप्यमान हो रहे थे। मैंने सोचा-कलयुग मे प्राणियों को दण्ड देने के लिए कल्कि अवतार होने वाला है। कहीं ये ही तो नहीं है। पर नहीं मेरा विचार गलत था। क्योंकि हरार कटार का काम इनसे हो ही नहीं सकता। व्यर्थ लांछन क्यों लगाया जाय! हां, तो मैं उस आदि स्वरूप महामानव के दशर्न करने में तल्लीन था कि उन्होंने हिन्दी में बैठने को कहा। मेरा आश्चयर्चकित होना स्वाभाविक था। कुछ दिन पहले ही उन्होंने हिन्दी को मूर्खों की भाषा कहा था। सबसे पहले मैंने इसी संबंध में प्रश्न किया-महोदय, आपने हमारी मातृभाषा का अपमान करके क्या हम भारतीयों का दिल नहीं दुखाया है?

जगदीश कुछ देर मेरी ओर देखकर मुस्कराते रहे। फिर बोले-देखो भई यद्यपि यहां की संसद में भी हिन्दी की उपेक्षा की जाती है। लेकिन इस विषय पर न जाकर यह बताना चाहूंगा कि मैं देश काल के अनुसार ही अपना मत व्यक्त करता हूं। उस वक्त मैं अन्य राष्ट्र में था। इसलिए वहां की भाषा को प्राथमिकता दी। अब चूंकि हिन्दुस्तान में हूं अत: हिन्दी को सर्वोत्तम कहूंगा। जैसे बहे बियारि पीठ पुनि वैसी दीजै के अनुसार ही मेरा आचरण रहता है। मसलन यहां आया हूं तो गंगाजल का सेवन करूंगा और ठंडे मुल्क में जाऊंगा तो ड्रिंक लूंगा।

उनके सत्य भाषण ने मुझे काफी प्रभावित किया। समय की कमी को देखते हुए मैंने अपना वास्तविक उद्देश्य खोला -शांति स्थापना के लिए आप चारों दिशाओं का भ्रमण कर रहे हैं। ज्ञात भी होगा कि निरस्त्रीकरण के लिए सभी राष्ट्रों ने अपनी सहमति प्रकट की है। इस संबंध में आपका निजी विचार क्या है?

जगदीश बोले-अरे वाह, बात तो तूने पते की पूछी है। मेरी मंतव्य जानने की ललक है तो सुनो -आज के जमाने में मैं निरस्त्रीकरण को कायरतापूर्ण कार्य मानता हूं। जिनके पास विभिन्न शक्तिशाली बम लेसर और संहारक शस्त्र नहीं है, वे दूसरों से तुच्छ समझे जाते हैं। उनकी गणना निम्नों में होती है। मेरी अभिलाषा है कि सभी राष्ट्र अधिक से अधिक हथियारों का जमाव रखें। इससे होगा यह कि भय वश कोई देश, किसी अन्य देश के ऊपर अतिक्रमण नहीं करेगा वरन आपसी संबंध सौहाद्रर्पूर्ण बनाये रखेगा। बाबा तुलसी ने कहा भी है - भय बिन होई न प्रीत।

- कुछ राष्ट्रों ने समझौते के द्वारा रासायनिक अस्त्रों पर प्रतिबंध लगाने और नाभिकीय परीक्षणों पर पाबन्दी लगाने की पेशकश की है, क्या यह उचित नहीं है?

- लगता है तुम्हारे भेजे में भूसा भरा है। मालूम होना चाहिए कि कथनी और करनी में बहुत अंतर है। उपदेश देने वाले दूसरों को उल्लू बना जायेंगे और स्वयं अंदर ही अंदर हथियार बनाते रहेंगे साथ ही एक दिन पूरे विश्व में अधिकार जमाने की सोचेंगे। इसलिए तो कहता हूं कि विकास कार्य को भी ठप्प करके सिर्फ युद्ध सामाग्री बनायें ।

- तो क्या दूसरों की बातें न मानकर आपकी ही बातें माने?

- बिल्कुल

- तो फिर इससे तो संसार का विनाश निश्चित दिखता है?

- तो क्या हो गया! वतर्मान की स्थिति देख ही रहे हो। जनसंख्या वृद्धि के कारण कैसी विकट समस्या खड़ी हो गई है। तृतीय विश्वयुद्ध के बाद जो थोड़े बहुत बचेंगे, वे आराम से खायेंगे-पियेंगे तो?

- कुछ ऐसे राष्ट्र है जो एक तरफ तो अपने को अहिंसक घोषित करते हैं पर दूसरी ओर छुपे रूस्तम युद्ध सामाग्री भी बेचते हैं। क्या यह अमन स्थापना में बाधक नहीं है?

- बच्चों जैसी बातें मत करो। व्यापार के बिना कहीं संसार का कार्य सुचारू रूप से चल सकता है। एक की आवश्यकता को दूसरा पूरा करके समाजवादी सिद्धांत का पालन ही करता है। इसमें किसी का विरोध अनुचित है। अब तुम कहोगें-हथियारों के बदले खाद्यान्न या अन्य दूसरे जीवनोपयोगी सामानों की बिक्री क्यों नहीं करते! तो इसके उत्तर में तुम्हीं से प्रतिप्रश्न करूंगा कि दूसरी चीजों में लाभ ही कितना मिलता है!

- ऐसा नहीं हो सकता कि विध्वंसक अस्त्र शस्त्रों के निमार्ण में खर्च होता है, उसे गरीबी दूर करने में लगा दिया जाय?

- तुम्हें ज्ञात है, मैं नारियों के प्रति अत्यंत श्रद्धावान हूं। गरीबी को भगाने की बात सोच भी नहीं सकता।

वे बारम्बार अपनी घड़ी की ओर नजर दौड़ा रहे थे अत: समय की नाजुकता को समझते हुए मैंने पूछा-क्या आप बता सकते हैं कि आपका उद्देश्य सफल हो जायेगा,अथार्त परस्पर देशों में कभी भी टकराहट नहीं होगी?

सोफे से उठते हुए जगदीश बोले-बरखुर्दार, मैं इतना बेवकूफ नहीं हूं जो अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारूं। अगर सदा के लिए लड़ाई झगड़े बंद हो गये, तो मुझे कौन पूछेगा!