शाइस्ताखां का खत - 2 / बालमुकुंद गुप्त

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फुलर साहबके नाम।

बरादरम् फुलरजंग। तुम्हारी जंग खत्म हो गई। यह लड़ाई तुम साफ हारे। तुमने अपनी शमशीर भी म्यानमें कर ली। इससे अब तुम्हारे अलकाबमें "जंग" जोड़नेकी जरूरत नहीं है। पर जिस तरह तुम्हारी नवाबी छिन जानेपर भी हिन्दुस्तानी सरकार तुम्हें बम्बईमें विलायती जहाजपर तुम्हारे मामूली नवाबी ठाटसे चढ़ा देना चाहती है, उसी तरह मैंने भी मुनासिब समझा कि उस वक्त तक तुम्हारा अलकाव भी बदस्तूर रहे। इसमें हर्ज ही क्या है।

सचमुच तुम्हारी हुकूमतका अंजाम बड़ा दर्दनाक हुआ, जिसे तुमने खुद दर्दनाक बताया है। मुझे उसके लिये ताज्जुब नहीं, क्योंकि वह अटल था। पर अफसोस है कि इतना जल्द हुआ। मैं जानता था कि ऐसा होगा, उसका इशारा मेरे पहले खतमें मौजूद है। पर यह खयाल न करता था कि दस ही महीनेमें तुम्हारी नकली नवाबी तय हो जायगी। वल्लाह, भानमतीके तमाशेको भी मात किया। अभी गुठली थी, जरासा पानी छिड़क कर दो छटांक मट्टीमें दबा देनेसे फूट निकली। दो पत्ते निकल आये। चार हुए। बहुत हुए। पेड़ हुआ, फल लगे। थोड़ी देरमें वही गुठली और वही टीनका लोटा मियां मदारीके हाथ में रह गया।

तुमने यह सुनकर कि नवाबोंके कई कई बेगमें होती थीं, अपने रिआयामेंसे दो बेगमें फर्ज कीं। मगर उनमें जो होशियार थी, उसने तुम्हें मुंह न लगाया और न तुम्हारी नवाबी तसलीम की। जो भोली थी, उसे तुमने रिझाया। पर वह बेचारी अभी यह समझने न पाई थी कि तुम उसके हुस्नोसीरतपर नहीं रीझे, बल्कि होशियार बेगमकी बेएतनाई से कुढ़ कर मतलबकी मुहब्बत दिखाते थे, जिसकी बुनियाद निहायत कमजोर थी। अफसोस तुम्हारी यह शान भी न चली। सिर्फ दो बेगमोंको भी तुम न रिझा सके। सच है, कहीं बुलहवसी भी मुहब्बत हो सकती है।

और तुमने सुना होगा कि नवाब सख्ती बहुत किया करते थे। उनके अमलमें सब तरहकी अन्धाधुन्ध चल सकती थी। इसीसे तुमने भी सख्ती और अन्धाधुन्ध शुरु की। अपनी जबरदस्तीसे तुमने उस जोशको रोकना चाहा, जो अपने मुल्ककी बनी चीजोंके फैलाने औ गैरमुल्ककी चीजोंके रोकनेके लिये बंगालमें बड़ी तेजीसे फैल रहा था। तुमने इस बातपर खयाल न किया कि जो जोश तुम्हारे अफसरेआलाकी सख्तीसे पैदा हुआ है, वह सख्ती औ जबरदस्तीसे कैसे दब सकता है। शायद तुमने समझा कि वह पूरी सख्तीसे दबाया नहीं गया, इसीसे फैला है, तुम्हारी सख्ती उसे दबा देगी और जो काम तुम्हारे खुदावन्दसे न हुआ, उसके कर डालनेकी बहादुरी तुम हासिल कर लोगे। मगर अब तुम्हें अच्छी तरह मालूम हो गया होगा कि ऐसा समझनेमें तुमने कितनी बड़ी गलती खाई। तुम्हारे आला अफसरने यह ओहदा तुम्हारी बेहतरीके लिये तुम्हें नहीं दिया था, बल्कि अपनी जिद्द पूरी कराने या अपना उल्लू सीधा करानेके लिये। मगर उसकी वह आरजू पूरी न हुई, उल्टी तुम्हें तकलीफ और खिफ्फत उठानी पड़ी। तुम सच जानो तुम्हारे ओहदेपर बैठनेके लिये तुमसे बढ़कर लायक और हकदार लोग कई मौजूद थे। मगर वह लोग थे जो अपनी अक्लसे काम लेते और इस बातपर खूब गौर करते कि सख्ती करके जब हमारे आला अफसरने शकस्त खाई है तो हमें उसमें फतह कैसे हासिल होगी। तुम्हें भी अगर इतना सोचनेकी मोहलत मिलती तो तुम चाहे इस ओहदेहीको कबूल न करते या उस रास्तेको तर्क करते, जिसपर तुम चलकर खराब हुए।

देखो भाई। जो गुजर गया है, उसे कोई लौटा नहीं सकता। बहकर दूर निकल गया हुआ नदीका पानी क्या कभी फिर लौटा हैं? पांच सौ बरसका या मेरा दो सवादो सौ सालका जमाना फिर लौटा लेना तो बहुत बड़ी बात है, तुम अपनी नवाबीके बीते हुए दस महीनोंको भी लौटानेकी ताकत नहीं रखते। क्या तुम सन् 1906 ईस्वीको पीछे हटाकर 1406 बना सकते हो? नहीं; भाई इतने वर्ष तो कहां, तुममें 20 अगस्तको 19 बनानेकी भी ताकत नहीं है। जरा पांच सौ साल पहलेकी अपने मुल्ककी तारीखपर निगाह डालो। उस वक्त तुम्हारी कौम क्या थी? अगर तुम किसी तरह उस जमानेतक पहुंच जाओ तो अपनी शकल पहचान न सको। दुनिया तारीक दिखाई देने लगे और तुम खौफसे आंखें बन्द करलो। दुनियामें तुम्हें अपना कोई मातहत मुल्क नजर न आवे, बल्कि अपने ही मुल्कमें तुम्हें अपनेको बेगाना समझना पड़े।

हिन्दमें मेरा जमाना लानेके लिये तुम्हें रेल-तार तोड़ने, दुखानी जहाज गारत करने, डाक उठवा देने, गैस बिजली वगैरहको जेहन्नमरसीद कर देनेकी जरूरत है। नहरें पटवा देने और सड़कें उठवा देनेकी जरूरत है। साथ ही तालीमको नेस्तोनाबूद कर देनेकी जरूरत है। तुम सबको छोड़ कर एक तालीमको मिटानेकी तरफ झुके थे। यह हिदायत तुम्हें तुम्हारे मालिक मुर्शिद लाट कर्जनकी तरफसे हुई थी। पर अंजाम और ही हुआ। तालीम गारत न हुई, बल्कि और तरक्की पा गई। बंगाली अपना कौमी दारुलउलूम बनाते हैं। गारत हुई पहले तुम्हारी नेकनामी और पीछे नौकरी।

रिआया और मदरसेके तुलबासे लड़ते लड़ते तुमने नवाबी खत्म की। लोगोंको आम जलसे करने और कौमी नारे मारनेसे रोका। लड़कोंको अपने मुल्की मालकी तरफ मुतवज्जह देखकर तुमने उनको जेलमें भिजवाया, स्कूलोंसे निकलवाया और पिटवाया। तुम्हारे इलाके बरीसालमें तुम्हारे मातहतोंने इस मुल्ककी रिआयाके सबसे आला इज्जतदार और तालीमयाफ्ता बेइज्जत करनेकी निहायत खफीफ हरकत की। तुमने अपने मातहतोंका इसमें साथ दिया। नतीजा यह हुआ कि हाईकोर्टसे तुम्हारे कामोंकी मलामत हुई। तुमने बड़ी शेखीसे कहा था कि हाईकोर्ट मेरा कुछ नहीं कर सकती, पार्लीमेंट मेरे हुक्मको रोक नहीं सकती। मगर दोनों बातें गलत साबित हुई। हाईकोर्टसे तो तुमने मलामत सुनी ही पार्लीमेन्टसे भी वह सुनी कि सारी नवाबी भूल गये। तुम्हारी होशियारी और लियाकतका इसीसे पता लगता है कि तुम्हारे अफसरका हुक्म पहुंचनेसे पहले तुम्हारे सूबेमें एक बन्दयेखुदाको बेवक्त फांसी होगई।

तुम्हारी इन हरकतोंपर यहां जन्नतमें खूब खूब चर्चे होते हैं। पुराने बादशाह और नवाब कहते हैं कि भाई। यह फरंगी खूब हैं। एशियाई लोगोंके ऐब तलाश करनेहीको यह अपनी बहादुरी समझते हैं। दिखानेको तो उन ऐबोंसे नफरत करते हैं, पर हकीकत देखिये तो उनको चुन चुनकर काममें लाते हैं। मगर हुनरोंसे चश्मपोशी करते हैं। तुमलोग हमारे जमानेके ऐबोंको काममें लानेसे नहीं हिचकते। मगर उस जमानेके हुनरोंकी नकल करनेकी तरफ खयाल नहीं दौड़ाते, क्योंकि वह टेढ़ी खीर है। कहां आठ मनके चावल और कहां हथियार बांधनेकी आजादी।

आठ मनके चावलोंकी जगह तुम खुश्कसाली और कहत छोड़कर जाते हो। हथियारोंकी आजादीकी जगह दस आदमियोंका मिलकर निकलना मजलिसें करना और 'वन्देमातरम्' कहना बन्द किये जाते हो। अरे यार। इतना तो सोचा होता कि पिंजरेमें भी चिड़िया बोल सकती है। कैदमें भी जबान कैद नहीं होती। तुमने गजब किया लोगोंका मुंहतक सी दिया था।

और भी अहलेजन्नतने एक बातपर गौर किया है। वह यह कि किस भरोसेपर तुम अपने सूबेके लोगोंको मेरे जमानेमें फेंक देनेकी जुरअत करते थे। इसकी वजह सुनिये। तुम खूब जानते हो कि तुम्हारी डेढ़ सौ सालकी हुकूमतने तुम्हारे सूबेके लोगोंको कुछ भी आगे नहीं बढ़ाया। वह करीब करीब दो सौ साल पहलेके जमानेहीमें हैं। तुम उनको बढ़ाते तो आज वह तुमसे किसी बातमें सिवा चमड़ेके रंगके कम न होते। पर तुमने उन्हें वहीं रखा, बल्कि उनकी कुछ पुरानी खूबिया छीन लीं और पुराने पुराने हुकूक जब्त कर लिये। दी थी कुछ तालीम और कुछ नौकरियां, उन्हींको छीनकर तुम उन्हें औरंगजेबके जमानेमें फेंकना चाहते थे, वरना और दिया ही क्या था, जो छीनते और बढ़ाया ही क्या था, जो घटाते?

अपनी दस महीनेकी नवाबी से तुम खुद तंग आगये थे। इसीसे कयास करलो कि गरीब रैयतको कैसी तकलीफ हुई होगी। सब तुम्हारे जानेसे खुश हैं। ताहम खुशकिस्मतीसे हमारी मरहूम कौम रोनेको तैयार है। उसे तुम प्यारी बेगम कहकर बेवा बना चले हो। वह तुम्हारे फिराकमें टिसवे बहाती है। तुम्हें घरतक पहुंचा देनेमें वह टिसवे तुम्हारी मदद करेंगे। भाई। हमारी कौमकी सलतनत गई, हुकूमत गई, शानोशौकत गई, पर जिहालत और गुलामीकी आदत न गई। वह मर्द नहीं बनना चाहती, बल्कि रांड रहकर सदा एक खाविन्द तलाश करती रहती है। देखें तुम्हारे बाद क्या करती है।

तूल फुजूल है। तुम चले, अब कहनेसेही क्या है? पर जो तुम्हारे जानशीन होते हैं, वह सुन रखें कि जमानेके बहते दरयाको लाठी मारके कोई नहीं रोक सकता। दूसरेको तंग करके कोई खुश रह नहीं सकता। अपने मुल्कको जाओ और खुदा तौफीक दे तो हिन्दुस्तानके लोगोंको कभी कभी दुआये खैरसे याद करना। वस्सलाम् -

शाइस्ताखां - अज जन्नत।

['भारतमित्र', 18 अगस्त, 1906 ई.]