शाकाहार : दार्शनिक, आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण / कविता भट्ट

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योग दर्शन के अनुसार मुक्ति हेतु यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि का अभ्यास आवश्यक है। इसे अष्टांग योग या राजयोग कहा जाता है। राजयोग का आधार हठयोग है। हठयोग में षट्कर्म, आसन, प्राणायाम, मुद्रा-बन्ध, प्रत्याहार एवं धारणा, ध्यान तथा समाधि के अभ्यास को मुक्ति, मोक्ष या कैवल्य हेतु आवश्यक माना गया है। योग की दृष्टि से इन अभ्यासों के साथ ही शुद्ध-सात्त्विक-शाकाहारी भोजन को पथ्य एवं मिताहार के रूप में ग्रहण करना चाहिए। स्वामी स्वात्माराम लिखित हठयोगप्रदीपिका में आदर्श भोजन को पथ्य एवं वर्जित भोजन को अपथ्य कहकर उल्लिखित किया गया है। सामान्यतः पुष्टिकारक, आनन्दित करने वाला और रोग-प्रतिरोधक क्षमता का विकास करने वाला भोजन ही पथ्य कहलाता है। गेहूँ, चावल, बाजरा, अन्य अनाज, दालें, गाय या भैंस का दूध, दूध से बने खाद्य पदार्थ, शहद, हरी एवं मौसमी सब्जियाँ-चौलाई, बथुआ, जीवन्ती, हरे चने तथा मीठा गुड़ आदि का सेवन पथ्य है। बासी, सड़ा, मांसयुक्त, सूखा, अधिक नमकीन, मसालेदार, चटपटा, अधिक खट्टा, पचने में कठिन, अस्वस्थ करने वाला और बार-बार गर्म किया हुआ भोजन अपथ्यकारक है। इसी प्रकार घेरण्ड मुनि कृत घेरण्ड संहिता में भी आदर्श भोजन का निर्देश प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ में मिताहार का निर्देश दिया गया है। चावल, जौ और चने के आटे से बनने वाला सत्तू, गेहूँ का आटा, चना, उड़द, अरहर, परवल, अरबी, ककड़ी, केला, गूलर, चौलाई, बैंगन, बथुआ आदि कच्चा शाक, मौसमी सब्जियाँ तथा फल आदि भोजन में लेना उचित है। व्यक्ति को आधा पेट भोजन से, एक चौथाई पानी से भरना चाहिए और एक चौथाई वायु के लिए रिक्त रखना चाहिए। इसे मिताहार कहा जाता है। ठूंस-ठूंस कर भोजन करना वर्जित है। कड़ुआ, खट्टा, अधिक नमकीन, अधिक गर्म, अधिक ठंडा, तला-भुना हुआ, मसूर, प्याज-लहसुन युक्त, मसाले युक्त, मदिरा और नषीले पदार्थों से युक्त भोजन निषिद्ध आहार में रखा गया है।

श्रीमद्भगवत्गीता में भी भोजन का वर्गीकरण प्राप्त होता है। इसमें भी सात्त्विक, राजसिक एवं तामसिक तीनों ही प्रकार का भोजन बताया गया है। इसी प्रकार मधुर, स्निग्ध, सुपाच्य, पोषक और ताजे भोजन को सात्त्विक कहा गया है; जो कि वृद्धि, बुद्धिमत्ता, विकास, उत्थान, स्वस्थता एवं प्रसन्नता आदि में वृद्धि करता है। जो व्यक्ति सात्त्विक भोजन ग्रहण करते हैं; उनका व्यक्तित्व स्वस्थता, प्रसन्नता, शान्ति, अहिंसा, सत्यता, शुद्धता, निष्कामना, परोपकार एवं सहनशक्ति आदि गुणों से युक्त होता हैं। अधिक कड़ुवे, अधिक खट्टे, अधिक नमकीन व चटपटे, कठोर, शुष्क, एवं क्षारीय भोजन राजसिक होता है। राजसिक भोजन ग्रहण करने से दुःख, कष्ट, क्रोध एवं चिंता आदि बढ़ते हैं। अधपका, सूखा, बासी और अशुद्ध भोजन तामसिक होता है। ऐसा भोजन आलस्य, सुस्ती एवं अकर्मण्यता आदि दुर्गुणों को बढ़ाते है।

योगदर्शन की अवधारणा है कि जो व्यक्ति शुद्ध-सात्त्विक भोजन ग्रहण करता है; वह स्वस्थ, बुद्धिमान, नैतिक एवं आध्यात्मिक होता है। मांसाहार ग्रहण करने के पीछे प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि यह प्रोटीन का मुख्य स्रोत है; जबकि वैज्ञानिक अध्ययन भी शाकाहार के पक्ष में तर्क देते हैं। सर्वे बताते हैं कि अमेरिका, इंग्लैंड, यूरोप, जापान, इजरायल एवं ऑस्ट्रेलिया आदि में अधिकतर लोग शाकाहार के ही पक्षधर हैं और इन राष्ट्रों में प्रत्येक वर्ष शाकाहारियों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसके पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं हैं; किन्तु वे अच्छे स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से शाकाहार को अपना रहे हैं। योग के द्वारा निर्देशित शाकाहार को वैज्ञानिक दृष्टि से भी अधिक स्वास्थ्यवर्धक एवं पौष्टिक माना गया है। शाकाहार को अपनाने के वैज्ञानिक कारण इस प्रकार हैं।

पहला कारण-मानव का पाचन संस्थान के अनुरूप शाकाहार ही उचित है। यह मांसाहार को पचाने के अधिक उपयुक्त नहीं है। पाचन संस्थान से सम्बन्धित अनेक रोग मांसाहार से होते हैं। दूसरा कारण-मांसाहार में कोलेस्टॉरॉल की मात्रा अधिक होने के कारण हृदयरोग एवं रक्त परिसंचरण तन्त्र सम्बन्धी रोग अर्थात् उच्च रक्तचाप, धमनी अवरोध आदि होते हैं। तीसरा कारण-वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि मांसाहार हेतु पशुओं-पक्षियों को मारते समय उनके अत्यधिक पीड़ा के कारण उनके शरीर से कुछ अत्यंत हानिकारक हॉर्मोन्स स्रवित होते हैं; जो उनके माँस के तत्त्वों को भी प्रभावित करते हैं। उस मांस को भोजन में ग्रहण करने पर ये हॉर्मोनल विकृतियाँ भक्षण करने वाले के शरीर में भी प्रवेश करती हैं। ऐसा होने से मनुष्य का मन एवं शरीर दोनों की हानि होती है। चौथा कारण-घास एवं चारे आदि में कीटनाशक प्रयोग किए जाते हैं। घास एवं चारा पशुओं द्वारा ग्रहण किया जाता है; और पशुओं को मनुष्य खाते हैं; इस प्रकार मनुष्य तृतीय श्रेणी का उपभोक्ता हुआ। वैज्ञानिक अध्ययनों बताते हैं कि भोजन पिरामिड के अनुसार हर श्रेणी के बढ़ने के साथ ही कीटनाशक के हानिकारक तत्त्व और भी अधिक घातक होते चले जाते हैं। इस प्रकार मनुष्य तक आते-आते ये अत्यंत घातक हो जाते हैं; और मनुष्य के स्वास्थ्य पर अत्यंत विपरीत प्रभाव डालते हैं। पाँचवाँ कारण-मांसाहार के कारण शरीर में उष्मा बढ़ती है; जिससे व्यक्ति मानसिक रूप से हिंसक और उग्र होता है। रही बात प्रोटीन की तो दाल, दुग्ध और दुग्ध निर्मित पदार्थों से भी अच्छी मात्रा में प्रोटीन प्राप्त होता है। इस प्रकार वैज्ञानिक अध्ययन भी योग के द्वारा निर्देशित शाकाहार के ही पक्षधर हैं; अतः हमें नित्यप्रति सात्त्विक भोजन ही लेना चाहिए वह भी पथ्य एवं मिताहार के मापदण्डों के अनुसार ही लेना शास्त्रोचित है।

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