शाट / महेश दर्पण
किसी का बेटा जा चुका था तो किसी की माँ गुज़र चुकी थी। किसी की बीवी नहीं रही थी तो किसी का पिता दम तोड़ चुका था। कोई बाल-बाल बच गया था तो किसी को दहशत मारे डाल रही थी ।
विस्फ़ोट के बाद तीसरे दिन भी शहर के ज़्यादातर लोग बेहद परेशान थे। किसी का बेटा अस्पताल में था तो किसी की माँ। किसी की कोई ख़बर नहीं थी तो कोई पहचान में ही नहीं आ पा रहा था । पुलिस के कहने के बावजूद कोई यह मान ही नहीं रहा था कि उसका भाई नहीं रहा, तो कोई ऐन शिनाख़्त के वक़्त ही दम तोड़े दे रहा था। लोग पगलाये से इधर से उधर भाग रहे थे।
अख़बार वाले ही नहीं , टी.वी. चैनलों वाले भी दौड़-दौड़ कर पीड़ितों से उनका हाल पूछने में लगे हुए थे। एक चैनल वाला अपने आफ़िस को रिपोर्ट कर रहा था, "अब तक 60 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं और इससे भी ज्यादा घायल हो गए हैं।"
शहर की एक बच्ची इस सबसे बेख़बर थी। बच्ची ने अपनी प्यारी गुड़िया को कस कर पकड़ा हुआ था। अपने में डूबी। गुड़िया थामे वह जाने किस तरफ़ बढ़ी चली जा रही थी।
ठीक इसी वक़्त उस पर भी किसी चैनल वाले की नज़र पड़ गई। वह फ़ौरन उसकी तरफ लपका – “ऎ बच्ची , कहाँ जा रही हो?”
“जिदल मेली गुलिया को कोई खतला न हो।“
“तुम्हें डर नहीं लगता?”
“मेली गुलिया है तो साथ में।“
चैनल वाला उसकी मासूमियत के सामने इस कदर बेबस हो गया कि उसे यह ख़याल ही न रहा कि गुड़िया लिए उस बच्ची का शाट अपने चैनल के लिए रिकॉर्ड कर ले। देखते-देखते वह उसकी नज़रों से ओझल हो गई।