शादी-ब्याह पर वैभव का अभद्र प्रदर्शन / जयप्रकाश चौकसे

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शादी-ब्याह पर वैभव का अभद्र प्रदर्शन
प्रकाशन तिथि : 15 मई 2018


प्रधानमंत्री नरसिंह राव के दौर में उनकी सलाह पर तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारवाद का श्रीगणेश किया। आर्थिक नीतियां सामाजिक परम्पराओं में परिवर्तन करती हैं। जब वित्तमंत्री बजट प्रस्तुत करते हैं तब भी आम आदमी के जीवन में परिवर्तन आता है। राजिंदर सिंह बेदी का महान उपन्यास 'एक चादर मैली सी' भी आर्थिक दबाव के प्रभाव को रेखांकित करती है। ज्ञातव्य है कि शम्मी कपूर की पत्नी गीता बाली ने इस उपन्यास पर आधारित फिल्म की बारह रीलें बना ली थीं और उनकी अकाल मृत्यु के बाद फिल्म रद्‌द हो गई। अगर गीता बाली को बचपन में स्माल पॉक्स का टीका लगा होता तो उनकी मृत्यु इस रोग से नहीं होती।

बहरहाल, आर्थिक उदारवाद के दौर में एक वर्ग के पास बहुत अधिक धन आ गया और अपने वैभव के प्रदर्शन के लिए वे अवसर तलाशने लगे। शादी-ब्याह से बढ़कर क्या अवसर हो सकता है धन की होली के लिए। उसी दौर में सूरज बड़जात्या की शादी-ब्याह की रस्मों वाली फिल्म 'हम आपके हैं कौन' ने टिकिट खिड़की पर धमाल मचा दी थी और इसी मार्ग पर चलते हुए आदित्य चोपड़ा ने फिल्म बनाई 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे'। मुंबई के मराठा मंदिर सिनेमाघर में वह फिल्म सुबह के एक शो में जाने कितने वर्षों तक चली। महाराष्ट्र सरकार ने उसे मनोरंजन कर से मुक्त कर दिया था। अत: सस्ते टिकट में तीन घंटे वातानुकूलित सिनेमा में गुजारने वे लोग भी जाने लगे, जिन्हें फिल्मों में कोई रुचि नहीं थी। इस तरह मनोरंजन जगत में विवाह की रस्में जम गईं।

अमीर वर्ग की नकल करते हुए मध्यम वर्ग भी इन रस्मों में अपनी हैसियत से अधिक खर्च करने लगा। शादियां हमेशा ही महाजन की तिजोरियों को भरती रही हैं। शादी-ब्याह के लिए कर्ज लेना, मृत्यु हो जाने पर मत्युभोज के लिए कर्ज लेना हमारे समाज के लिए दीमक की तरह रहा है। सारी फिल्मों और कथा कहानियों में मर्द को ही साहूकार के रूप में प्रस्तुत किया गया है। फ्योदोर दोस्तोवस्की की 'क्राइम एंड पनिशमेंट' में एक महिला कर्ज और सूद का व्यापार करती है परंतु उससे प्रेरित हिंदुस्तानी फिल्म 'फिर सुबह होगी' में सूदखोर पुरुष है। बहरहाल, वर्तमान कालखंड में आर्थिक खाई बहुत अधिक बढ़ गई है। इस दौर में शादियां पांच दिवसीय आयोजन हो गई हैं। हाल ही में सोनम कपूर के विवाह में मेहंदी की रात दो दिन तक मनाई गई। इसी तरह पूरे देश में ही शादियों का जश्न अब कई दिन तक मनाया जाता है। दरअसल, शादियों पर खर्च किया गया अपार धन पूरी आर्थिक व्यवस्था के पहियों में तेल या ग्रीस का काम करता है। कड़वा यथार्थ तो यह है कि अार्थिक गाड़ी के पहिए जाम हो चुके हैं परंतु शादी-ब्याह पर किए गए खर्च से आर्थिक स्थिति बच्चों के खेलने के रॉकिंग हॉर्स की तरह है, जो एक ही जगह स्थिर होते हुए भी गति का भ्रम देता है।

दरअसल, फिल्मों में शादी के रस्मो रिवाज की गंगोत्री राज कपूर की 1982 में प्रदर्शित 'प्रेम रोग' हैं। राज कपूर ने केवल इनका स्पर्श किया था, क्योंकि फिल्म का विषय तो विधवा विवाह है। उस फिल्म को राज कपूर ने नारी के प्रति श्रद्धागीत की तरह रचा था। संभवत: वे मन ही मन 'सत्यम शिवम संुदरम' में नारी देह के प्रदर्शन पर शर्मिंदा थे। यह फिल्म एक अन्य महान उद्‌देश्य के लिए रची जा रही थी परंतु उस दौर में शिखर सितारे के साथ हिंसा फिल्मों की आंधी चल रही थी और उन्होंने महसूस किया कि हिंसा प्रधान फिल्मों की आंधी का मुकाबला देह प्रदर्शन से किया जाए। 'प्रेम रोग' उन्होंने प्रायश्चित और प्रार्थना की तरह गढ़ी। उनसे कहा गया कि सामंतवाद कानूनी तौर पर समाप्त कर दिया गया है परंतु प्रेम रोग में सामंतवादी परिवार और कुप्रथाओं को प्रस्तुत किया गया है। राज कपूर का कहना था कि कानूनी तौर पर समाप्त होने के बाद भी सामंतवादी कुरीतियां जारी हैं जैसे दहेज प्रतिबंधित होने के बाद भी दिया और लिया जा रहा है। प्रेम रोग बनाते समय राज कपूर की आयु 58 वर्ष थी परंतु उनकी सृजन क्षमता तब भी वही थी, जो 'आवारा' और 'श्री 420' बनाते समय थी।

फिल्म की बुनावट ऐसी थी कि एक फ्रेम भी काटी नहीं जा सकती। यह फिल्म सामंतवादी संगमरमरी हवेलियों में व्याप्त सामाजिक सड़ांध को प्रस्तुत करती है। हमारा गणतांत्रिक ढांचा बहुत हद तक सामंतवाद का मुखौटा ही रहा है। बहरहाल, शादी-ब्याह में धन की होली बदस्तूर जारी है।