शान्ति हँसी थी / अज्ञेय
“जानकीदास, मुजरिम, तुम पर जुर्म लगाया जाता है कि तुमने तारीख 14 दिसम्बर को शाम के आठ बजे हालीवुड पार्क के दरवाज़े पर दंगा किया; और कि तुम्हारी रोज़ी का कोई ज़रिया नहीं है। बोलो, तुम्हें जवाब में कुछ कहना है?”
जवाब के बदले जानकीदास को टुकुर-टुकुर अपनी ओर देखता पाकर न जाने क्यों मजिस्ट्रेट-पसीज उठे। उन्होंने कहा, “जो कुछ तुम्हें जवाब में कहना हो, सोच लो। मैं तुम्हें पाँच मिनट की मोहलत देता हूँ।”
पाँच मिनट!
जानकीदास के वज्राहत मन को, मानो कोड़े की चोट-सा, मानो बिच्छू के डंक-सा यह एक फ़िकरा काटने लगा, बताने की फिजूल कोशिश करने लगा... पाँच मिनट।’
पाँच मिनट।
जैसे नदी के किनारे पड़ा हुआ कछुआ, पास कहीं खटका सुनकर तनिक-सा हिल जाता है और फिर वैसा ही रह जाता है लोंदे का लोंदा, वैसे ही जानकीदास के मन ने कहा, ‘शान्ति हँसी थी,’ और रह गया।
पाँच मिनट।...
कुछ कहना है अवश्य, सफ़ाई देनी है अवश्य...
पाँच मिनट...
शान्ति हँसी थी।
कब? कहाँ? क्यों हँसी थी? और कौन है वह, क्यों है, मुझे क्या है उससे?...
पाँच मिनट...
उसे धीरे-धीरे याद-सा आने लगा। किन्तु याद की तरह नहीं। बुखार के बुरे सपनों की तरह।
शान्ति ने रोटी उसके हाथ में थमाकर उसी में भाजी डालते-डालते कहा था,
“इस वक़्त तो खा लेते हैं, उस बेर मेरी एकादशी है।”
उसने पूछा था, “क्यों?”
“क्यों क्या? तुम्हें खिला दूँगी...” और हँस दी थी।
उस जून के लिए रोटी नहीं है, यह कहने के लिए हँस दी थी।
दोपहर में, सड़कों पर फिरता हुआ जानकीदास सोच रहा था, इतनी बड़ी दुनिया में, इतने कामों से भरी हुई दुनिया, में, क्या मेरे लिए कोई भी काम नहीं है? वह पढ़ा-लिखा था, अपने माँ-बाप से अधिक पढ़ा-लिखा था, पर उन्हें मरते समय तक कभी कष्ट नहीं हुआ था, चाहे धनी वे नहीं हुए, तब वह क्यों भूखा मरेगा? और शान्ति, उसकी बहिन भी हिन्दी पढ़ी है और काम कर सकती है।
जहाँ-जहाँ से उसे आशा थी, वहाँ वह सब देख चुका था। बल्कि जहाँ आशा नहीं थी, वहाँ भी देख-देखकर वह लौट चुका था।
अब उसे कहीं और जाने को नहीं था - सिवाय घर के। और वहाँ उस बेर के लिए रोटी नहीं थी और यह बताने को शान्ति हँसी थी - हँसी थी...
तब तक, भले ही उसके मन में सम्पन्नता का, पढ़ाई का, दरजे का, इज्जत-आबरू का, बुर्जुआ मनोवृत्ति का, कुछ निशान भी बाक़ी रहा हो, तब नहीं रहा। उसके लिए कुछ नहीं रहा था। केवल एक बात रही थी कि उस बेर के लिए रोटी नहीं है और शान्ति हँसी थी।
राह-चलते उसने देखा, दायीं ओर एक बड़ा-सा आँगन है, एक भव्य मकान का, जिसमें तीन-चार सुन्दर बच्चे खेल रहे हैं। एक ओर एक लड़की बिना आग के एक छोटे-से चूल्हे पर, लकड़ी की हंड़िया चढ़ाये रसोई पका रही है और खेलनेवाले लड़कों से कह रही है “आओ भइया रोटी तैयार है...”
वह एकाएक आँगन के भीतर हो लिया। लड़के सहम कर खड़े हो गये - शायद उसका मुँह देखकर।
उसने एक लड़के से कहा, “बेटा, जाकर अपने पिता से पूछ दो, यहाँ कोई पढ़ाने का काम है?”
लड़के ने कहा, “हम नहीं जाते। आप ही पूछ लो।”
जानकीदास ने दूसरे लड़के से कहा, “तुम पूछ दोगे? बड़े अच्छे हो तुम...”
उस लड़के ने एक बार अपने साथी की ओर देखा, मानो पूछ रहा हो, ‘मैं भी ना कह दूँ?’ लेकिन फिर भीतर चला गया और आकर बोला, “पिताजी कहते हैं, कोई काम नहीं है।”
जानकीदास ने फिर कहा, “एक बार और पूछ आओ, कोई जिल्दसाज़ी का काम है? या बढ़ाई का? या और कोई?”
लड़के ने कहा, “अब की तो पूछ लेता हूँ, फिर नहीं जाने का।” और भीतर चला गया। आकर बोला, “पिताजी कहते हैं, यहाँ से चले जाओ। कोई काम नहीं है। फ़िजूल सिर मत खाओ।”
जानकीदास बाहर निकल आया।
कोई पढ़ाने का काम है? किसी क़्लर्क की ज़रूरत है? जिल्दसाज़ की? बढ़ई की? रसोइया की? भिश्ती की? टहलुए की? मोची-मेहतर की?
कोई ज़रूरत नहीं है। सबके अपने-अपने काम हैं, केवल जानकीदास की कोई ज़रूरत नहीं है।
और उस बेर खाने को नहीं है, और शान्ति हँसी!
शाम को हालीवुड पार्क के दरवाज़े के पास जो भीड़ खड़ी थी, उन्हीं में वह भी था। दुनिया है, घर है, शान्ति है, रोटी है, यह सब वह भूल गया था। भूल नहीं गया था, याद रखने की क्षमता, मन को इकट्ठा, अपने वश में रखने की सामर्थ्य वह खो बैठा था। न उसका कोई सोच था, न उसकी कोई इच्छा थी। यहाँ भीड़ थी, लोग खड़े थे - इसीलिए वह भी था।
भीतर असंख्य बिजली की बत्तियाँ जगमगा रही थीं। बड़े-बड़े झूले, रंग-बिरंगी रोशनी में किसी स्वप्न-आकाश के तारों-से लग रहे थे। कहीं एक एक बहुत ऊँचा खम्भा था, जिसकी कुल लम्बाई नीली और लाल लैम्पों से सजी हुई थी। और उसके ऊपर एक तख्ता बँधा हुआ था।
उसी के बारे में बातें हो रही थी। और जानकीदास मन्त्र-मुग्ध-सा सुन रहा था।
“वह जो है न खम्भा, उसी पर से आदमी कूदता है। नीचे एक जलता हुआ तालाब होता है, उसी में।”
“उससे पहले दूसरा खेल भी होता है, जिसमें कुत्ता कूदता है?”
“नहीं, वह बाद में है। पहले साइकल पर से कूदनेवाला है। वह यहाँ से नहीं दीखता।”
“वह कितने बजे होगा?”
“अभी थोड़ी देर में होनवाला है - आठ बजे होता है।”
“यह आवाज़ क्या है?”
“अरे, जो वह गुम्बद में मोटर-साइकिल चलाता है, उसी की है।”
जानकीदास का अपना कुछ नहीं था। इच्छा शक्ति भी नहीं। जो दूसरे सुनते थे, वह उसे सुना जाता था; जो दूसरे देखते थे, वह उसे दीख जाता था।
“वह देखो!”
झूले चलने लगे थे। चरखड़ियाँ घूमने लगी थीं। उन पर बैठे हुए लोग नहीं दीखते थे, पर प्रकाश में कभी-कभी उनके सिर चमक जाते थे और कभी किसी लड़की की तीखी और कुछ डरी-सी हँसी वहाँ तक पहुँच जाती थी - डरी-सी किन्तु प्रसन्न, आमोद-भरी...
जानकीदास देखता था और सुनता था और निश्चल खड़ा भी उत्तेजित हो जाता था। वही क्यों, सारी भीड़ ही धीरे-धीरे उत्तेजित होती जा रही थी।
तभी अन्दर कहीं बिगुल बजा। तीखा। किसी प्रकार की सोच या चिन्ता से मुक्त। पुकारता हुआ।
किसी ने कहा, “अब होगा साइकिलवाला खेल। चलो, चलें अन्दर।”
“तुम नहीं चलोगे?”
“चलो!”
“मैं भी चलता हूँ यार! यह तो देखना ही चाहिए...”
“आओ न-जल्दी, फिर जगह नहीं रहेगी।”
भीड़ दरवाज़े की ओर बढ़ी। उत्तेजना भी बढ़ी, फैली, फिर बढ़ी।
जानकीदास भी साथ पहुँचा, टिकट-घर के दरवाज़े पर।
लोग टिकट लेकर भीतर घुसने लगे। जानकीदास खड़ा देखने लगा।
तभी एक लड़का एक छोटी लड़की का हाथ पकड़े, उसे घसीटता हुआ, जल्दी से टिकटघर पर पहुँचा और टिकट लेकर, उत्तेजना से भर्राये हुए स्वर में बोला, “कमला, अगर देर से पहुँचे तो याद रखना, मार डालूँगा! उमर में एक मौक़ा मिला है...”
आगे जानकीदास नहीं सुन सका। वह लपककर टिकटघर पर पहुँचा। टिकट माँगी। ली। जेब में डाली। दूसरा हाथ अन्दर की जेब में डाला - पैसे निकालने के लिए - चार आने।
डाला और पड़ा रहने दिया। निकाला नहीं, उत्तेजना टूट गयी।
जेब में एक पैसा भी नहीं था।
“मुजरिम, तुम्हें कुछ कहना है?”
जानकीदास ने फिर एक बार दीन दृष्टि से मजिस्ट्रेट की ओर देख दिया, बोला नहीं। उसका मन कछुए की तरह तनिक और हिलकर बिलकुल जड़ हो गया।
उस बेर उसने नहीं खायी थी, तो शान्ति ने खा ली होगी।
मजिस्ट्रेट साहब सेकेंड-भर सोचकर बोले, “एक साल!”
शान्ति हँसी थी। उस बेर के लिए रोटी नहीं है, यह कहने के लिए शान्ति हँसी थी।
(लाहौर, जनवरी 1935)