शायद जोशी / पंकज सुबीर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह मोटा-सा आदमी आज फिर सामने बैठा है। इसका नाम शायद जोशी है। जोशी शायद प्रकाश या विकास जैसा कोई जोशी। सामने बैठा है मतलब उसके सामने टेबल के उस तरफ़ रखी हुई दो कुर्सियों में से एक पर। दूसरी कुर्सी ख़ाली पड़ी है। ये शायद जोशी अक्सर आता है। इस शायद जोशी के पास होते हैं कई शब्द। शब्द जो अक्षरों से बनते हैं और वाक्यों को बनाते हैं। आज भी इसके पास शब्द होंगे तभी तो आया है यहाँ। ये शायद जोशी जब उसके सामने नहीं बैठा होता है तो वहाँ होता है जहाँ पर उसके सामने की कुर्सी पर दूसरे लोग आकर बैठते है। वहाँ बैठकर ये शब्दों को इकट्ठा करता है, जब काफ़ी हो जाते हैं तो आ जाता है उसके पास।

कुर्सी पर बैठा शायद जोशी मुस्कुरा रहा है। नहीं मुस्कुरा नहीं रहा है शायद एक तरफ़ की दाढ़ में कुछ फंस गया है, जिसे निकालने का प्रयास करने के चक्कर में उसका चेहरा मुस्कुराता हुआ लग रहा है। वैसे ये शायद जोशी कभी मुस्कुराता नहीं है, मुस्कुरा भी नहीं सकता। जिनके पास शब्द होते हैं, वे मुस्कुराना भूल ही जाते हैं। वैसे कहा तो ये भी जाता है कि मुस्कुराना भूल जाने वाली चीज़ नहीं है। वह तो जन्मजात ही कुछ ऐसा होता है कि मुस्कुराना नहीं आता।

शायद जोशी का नाम वह एक बार फिर याद करने का प्रयास करता है, प्रकाश, विकास, दिनेश जैसे कई नाम आते हैं मगर कुछ तय-सा नहीं हो पाता। ऐसा कैसे हो सकता है कि आप किसी को जानते हों और उसका नाम आपको पता ही न हो। क्यों नहीं हो सकता? हो सकता है जब आपको उसका परिचय करवाया गया हो तब केवल ये कहा गया हो कि ये जोशी जी हैं ज़िला उद्योग केन्द्र में बाबू हैं। उसके बाद जो आपको याद रहता है वह उद्योग केन्द्र और जोशी ही रहता है। नाम जानने के बाद में ज़ुरूरत ही नहीं पड़ती। उसके बाद तो उद्योग केन्द्र वाला जोशी, ठिगना-सा जोशी, वह जोशी बाबू से काम चल ही जाता है।

ये शायद जोशी पता नहीं जोशी ही है या कोई और है। वैसे तो बहुत सारे लोग आते हैं उसके पास, उनमें से ये जोशी ही है ऐसा कै से कहा जा सकता है। माना कि ये भी ठिगना ही है जोशी की तरह, माना कि ये भी मुस्कुरा नहीं रहा जोशी की तरह, मगर इससे तो तय नहीं होता कि ये जोशी ही है। बहुत मुश्किल होता है चेहरे को और उनसे जुड़े शरीर को सही नाम के साथ याद रख पाना। चेहरे अक्सर सामने आते ही सवाल खड़ा कर देते हैं, नाम का, पहचान का। कई बार नाम याद आ जाता है तो पहचान नहीं मिलती और कई बार तो चार नाम एक साथ सामने आ जाते हैं। चेहरा और उससे जुड़े चार नाम 1 शर्मा, 2 श्रीवास्तव, 3 जोशी, 4 मालवीय। आपका पूरा समय एक-एक नाम के चेहरे के साथ जानकर सटीन उत्तर तलाशने में ही गुज़र जाता है और उधर तब तक चेहरा वापस छुप भी गया होता है।

शायद जोशी कुर्सी पर कसमसाया और धीरे से खंखारा। हूँ ...ये एक लक्षण तो जोशी की ही तरह का है पर इससे भी सिद्ध तो नहीं होता कि ये जोशी ही है। टेबल के उस तरफ़ रखी उन दो कुर्सीयों पर तो दिन भर में कितने ही लोग बैठते हैं आख़िर वह सब तो जोशी नहीं हो सकते ना और फिर केवल कसमसा कर खंखारने से ही कैसे मान लिया जाए कि ये जोशी ही है। वैसे वह जिस जोशी को जानता है वह जोशी भी है तो इसी की तरह का नाटा, सांवला, अक्सर चौकड़ी की शर्ट पहनने वाला, सामने से गंजा और खिचड़ी बालों धुंधाई-सी पीली आँखों वाला। मगर इससे भी कैसे कह सकते हैं कि ये जोशी ही है, दस में से-से नौ आदमी तो इसी तरह के होते हैं। दरअसल जब सारे के सारे सपने स्थगित हो जाते हैं तो हर आदमी ऐसा ही हो जाता है नाटा, सांवला, गंजा और पीली आँखों वाला और ऐसे में तो हर दूसरा आदमी उसे जोशी ही लगेगा।

जिस जोशी को वह जानता है वह जोशी बाबू है जो एक पुरानी-सी हीरो पुक पर सवार होकर किराए के मकान से अपने ऑफ़िस जाता है। उसकी दो लड़कियों में से एक भाग चुकी है और दूसरी जिसकी शादी की उसे चिन्ता है वह भी भागने वाली है। इसका एक लड़का भी है जो लगभग आवारा है और जिसको वह किसी सरकारी नौकरी में चिपकाने की जुगाड़ में है। ये जोशी चौकड़ी की शर्ट और भूरी पेन्ट पहनता है और पैरों में कोल्हापुरी चप्पल डाल कर रखता है। ऐसा लगता है मानो वह चौकड़ी की शर्ट, भूरी पेण्ट और कोल्हापुरी चप्पल भी उसका शरीर हो चुकी हैं। इस जोशी की एक अधेड़-सी पत्नी भी है जो उसके घर में वही सब करती है जो चार पाँच अलग-अलग काम वाली बाइयाँ करतीं। अगर सामने वाले शायद जोशी के बारे में भी ये सटीक हो तब भी निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि ये जोशी ही है क्योंकि फिर वही बात है कि हर दस में से नौ के साथ तो ऐसा ही है।

शायद जोशी उसके फ़ुरसत होने का इंतज़ार कर रहा है, वह जान बू्झकर एक फ़ॉइल में उलझा है। जानता है जैसे ही फ़ॉइल से फ़ुरसत पाएगा तो सामने बैठे इस शायद जोशी से उलझना पड़ेगा। जब ये आया था तब तो उसने आइये, आइये बैठिए, में ज़रा ये फाइल निबटा लूं कह कर छुटकारा पा लिया था। मगर जब बात करनी होगाी तब तो पता होना ही चाहिए कि ये कौन है। ये ख़ुद तो परिचय देगा नहीं कि मैं जोशी, उद्योग केन्द्र वाला, क्योंकि ये तो जानता है कि वह उसे पहचानता है। मगर नाम से क्या फ़र्क पड़ता है, बातचीत करने में बिना नाम के भी तो काम चलाया जा सकता है। नहीं-नहीं अगर इस शायद जोशी के नाम की ज़रूरत पड़ गई तो, मान लो कोई दूसरा व्यक्ति इस बीच आ गया और दोनों का परिचय कराना पड़ गया तो? क्या कह कर मिलवाएगा इसे? नाम तो जानना बहुत ज़ुरूरी है।

मगर इस शायद जोशी को ज़्यादा देर तक लंबित भी नहीं रखा जा सकता। बात तो करनी ही होगी। बात...? बात वह करता ही कहाँ है...? वह तो सुनता है। सुनता है शब्दों को। शब्द जो वाक्य बन-बन कर आते हैं और उसके कानों में कुछ एहसास-सा कराते हुए गुम हो जाते हैं। कभी-कभी तो उसे हैरानी भी होती है कि ये इतने सारे शब्द आख़िर जाते कहाँ हैं। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि किसी-किसी वाक्य के एक दो शब्द गायब भी होते हैं। रिक्त स्थानों की पूर्ती करो टाइप के सवालों वाली स्टाइल में। मगर जो शब्द होते हैं उनको ही कहाँ याद रख पाता है वो। अक़्सर ये सारे शब्द कतारबद्ध होकर वाक्य की शक्ल में आते हैं और दोनों तरफ़ के कानों में समाते चले जाते हैं। शुरूआत के कुछ शब्द तो उसे सुनाई देते हैं मगर बाद के शब्द ...? बाद के शब्द जब आ रहे होते हैं तब वों कहीं और जा चुका होता है। यहाँ पर अपने कानों को शब्दों के लिए रिसीवर की तरह छोड़कर कहीं और निकल जाता है।

इसमें कभी-कभी मुश्किल भी होती है, तब जब शब्दों से बने हुए वाक्य के अंत में पूर्ण विराम न होकर प्रश्न वाचक चिह्न होता है। प्रश्न वाचक चिह्न अर्थात वाक्य अपने लिए उत्तर की प्रत्याशा लेकर आ रहा है। अब समस्या ये है कि कानों को उत्तर देना नहीं आता। कान उत्तर दे भी नहीं सकते। दरअसल में रिसीवर होने का अर्थ ही होता है रिसीवर होना। जो भी आ रहा है उसे केवल रिसीव कर लो यहाँ उत्तर देने का कोई काम नहीं है। तो जब प्रश्नवाचक चिह्न वाला वाक्य आता है तब सामने की कुर्सी जो टेबल के उस तरफ़ रखी है उस पर बैठा व्यक्ति उत्तर की प्रतीक्षा में लग जाता है जब उत्तर नहीं मिलता तब वह शायद जोशी किंचित ऊंचे स्वर में उसे पुकारकर उसे वापस ले जाता है। वैसे ऐसा कम ही होता है क्योंकि उसके पास जितने भी शायद जोशी आते हैं, उनके पास जो शब्द होते हैं, उनसे जो वाक्य बनते है उन वाक्यों में प्रश्नवाचक तो छोड़ो पूर्ण विराम भी नहीं होता। दरअसल तो इन शायद जोशियों को तो ख़ुद भी नहीं पता होता कि वे क्या बोल रहे हैं, वे तो यहाँ स्खलित होने आते हैं और उसके दुर्भाग्य से इन शायद जोशियों को शीघ्र स्खलन की बीमारी भी नहीं होती।

कल की बात है शायद जब इस तरह का ही कोई शायद जोशी लगभग एक घंटे तक उसे अपनी व्यथा कथा सुनाता रहा था। शायद जोशी के जाने के बाद उसका सहायक जो एक फाइल लेकर आया था कुछ झिझकते हुए बोला था 'सर आप इन फ़ालतू लोगों को झेलते ही क्यों हैं?'

सहायक की बात सुनकर वह धीरे से मुस्कुराया था और फिर बोला था 'बलात्कार अपनी मर्ज़ी से नहीं होता, करनेवाले की मर्ज़ी से होता है। इसीलिए तो उसका नाम बलात्कार है।'

'मगर सर आप इतने पेशेंस के साथ कैसे सुन लेने हैं इतनी सारी बातें?' सहायक ने फिर पूछा था।

'कौन सुनता है? मैं...? मैं तो उस समय। ख़ैर जाने दो तुम नहीं समझागे। बस इतना समझ लो कि...! अच्छा मंदिर-वंदिर जाते हो?' जाने क्या सोच कर अपनी ही बात को काट कर कहा था उसने।

'जाता हूँ सर' सहायक ने उत्तर दिया था।

'वहाँ तुम जिस मूर्ती के सामने खड़े होकर अपनी परेशनियाँ, तकलीफ़ें सुना कर आ जाते हो वह क्या सुन लेती है? नहीं, मगर सुनाने के बाद तुम रिलेक्स हो जाते है। ये एक अच्छी व्यवस्था है। स्खलित हो जाने से तनाव का तात्कालिक हल तो हो ही जाता है। पत्थर की मूर्ती रखी ही इसलिए जाती है कि वह सब कुछ सुनने का एहसास दिलाती रहे। तुमने देखा भी होगा कि सारी की सारी मूर्तियों की आंखें एकदम सामने वाले की आंखों में आंखें डाली ही बनाई जाती हैं। इससे तुमको एहसास भी होता रहता है कि तुम्हें सुना जा रहा है और तुम्हें सुनने का कष्ट किसी को उठाना भी नहीं पड़ता और कुछ समय के लिए तो तुमको ये भी यक़ीन हो जाता है कि वह मूर्ती तुम्हारे लिए कुछ कर भी देगी।' लंबी बात ख़त्म करके वह रुका था। सहायक के चेहरे पर मूर्ती को लेकर की गई तल्ख़ टिप्पणी के कारण कुछ नाग़वारी थी। 'मूर्तियाँ वास्तव में व्यवस्था द्वारा पैदा किया गया एक भ्रम हैं, अगर ये भ्रम ही न हो तो फिर तो हर कोई अपने सवाल लेकर व्यवस्था के पास ही चल पड़ेगा। व्यवस्था के पास कहाँ इतना समय है कि वह हर किसी की सुने। इसीलिए उसने मूर्तियाँ लगवा दी हैं। अलग-अलग मंदिरों में अलग-अलग मूर्तियाँ, आदमी एक तरह की मूर्ती से निराश होता है तो दूसरी के पास दौड़ता है, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी। दौड़ता रहता है, दौड़ता ही रहता है और फिर मर जाता है और इसी बीच अगर कहीं व्यवस्था को लगता है कि आदमी तो मूर्तियों से हार कर अब उसकी तरफ़ देख रहा है तो व्यवस्था फ़ौरन ही मूर्तियों को दूध पिलाने का चमत्कार रच देती है। के देख लो ये मूर्तियाँ भले ही पत्थर की हैं पर इनमें कुछ न कुछ तो है, इसलिये लगे रहो कभी न कभी कुछ न कुछ तो हो ही जाएगा।' उसकी बात पूरी होते न होते सहायक कसमसाने लगा था उसे लगा कि उसने कुछ ज़्यादा ही तीखी बात कह दी है अगर इस सहायक का कान्टेक्ट बजरंगियो से होगा तो कल ही उसका पुतला फुंकवा देगा। 'बस वैसा ही मैं भी हूँ मैं तो केवल भ्रम पैदा करता हूँ कि उनको सुना जा रहा है। मैं तो केवल आंखो में आंखें डाल कर रखता हूँ। उन सबको स्खलित होने का भरपूर मौक़ा देता हूँ और यक़ीन मानो उनके स्खलन से मेरा कौमार्य भंग नहीं होता।' कहते हुए उसने माहौल को हल्का करने के लिए एक ज़ोरदार ठहाका लगाया था।

इन शायद जोशियों के शब्द वाक्य सब गड्ड-मड्ड रहते हैं। इन सबकी ध्वनियाँ मिलती जुलती ही होती हैं अम्मा कि बीमारी, लड़के की नौकरी, बेटी या बहन की शादी, पत्नी का कमर दर्द, पिताजी का चिड़चिडापन, साले की शादी जैसी ध्वनियाँ अक़्सर शब्दों को बदल बदलकर आती हैं। इन शब्दों में वाक्यों में कहीं कोई तारतम्य भी नहीं होता। कभी-कभी उससे लगता है कि ये सारे के सारे शायद जोशी झुंड में बैठे कव्वे हैं या फिर घनघोर बरसात के बाद की रात में किसी पोखर के किनारे बैठे मेंढकों का झुंड। इन सारे शायद जोशियों के पास एक-सी ही तो ध्वनियाँ हैं। सड़क पर रेंग रहे लिजलिजे केंचुए के समान ध्वनियाँ। ध्वनियाँ, जिनमें कुछ भी नहीं है। कुछ भी नहीं का मतलब सचमुच कुछ भी नहीं। ध्वनियाँ, जो कहने को तो शब्दों से भरी हुई हैं किन्तु जिनमें अर्थ नहीं हैं।

सामने बैठा शायद जोशी संभवतः उसकी तरफ़ ही देख रहा है। इसके अलावा उस शायद जोशी के पास कोई विकल्प भी तो नहीं है। दरअसल वे लोग जिनके पास शब्द और वह भी बिना किसी अर्थ वाले शब्द इकट्ठे होने लगते हैं उनकी स्थिति भी संभोग की प्रतिक्षा में छटपटा रहे नौजवान की तरह हो जाती है। हर कोई स्खलित हो जाने के लिए उचित माध्यम की तलाश करने लगता है। शब्दों वाले मामले में हस्त मैथुन की तरह कोई ठीक ठाक-सी कारगर तकनीक भी नहीं है कि अपने शब्द अपने ही कान में पहुँचा कर स्ख्लित हो जाय जाए। हस्त मैथुन कई सारे संभावित बलात्कारों को तात्कालिक रूप से टाल देता है। मगर ये शायद जोशी तो वह भी नहीं कर सकते। बलात्कार करना इनकी संवेधानिक मजबूरी होती है और इसीलिए ये सारे के सारे शायद जोशी उसके ही समान माध्यमों की तलाश में रहते हैं। ऐसे रिसीवर जो शब्दों को बिना किसी प्रतिकार के ग्रहण करते रहें। फाइल पर नज़रें जमाए उसको कुछ चुभने एहसास हो रहा है, ये चुभन निश्चित रूप से शायद जाशी की नज़रें हैं, शायद जोशी के पास जो शब्द हैं वह नज़रों के माध्यम से आकर दस्तक दे रहे हैं कि हमें सुन लो, सुन लो नहीं तो हमारे होने का कोई अर्थ नहीं होगा। सुन लोगे तो कम से कम ये तो हो जाएगा कि हम दर्ज हो जाएँगे कि जून की तपती दोपहर में फलाँ तारीख़ को, फलाँ दिन इतने बज कर इतने मिनट पर हमें बाक़ायदा सुना गया था। हम भी उन करोड़ों अरबों शब्दों में शामिल हो जाएँगे जिन्हें प्रयोजन या बिना किसी प्रयोजन के बोला गया और सुना भी गया। शब्दों की सबसे बड़ी मजबूरी यही तो है कि केवल बोले जाने से कुछ भी नहीं होने वाला, पूर्णता तो होती है सुने जाने से।

ऐसे ही एक बार किसी शायद जोशी के पास से आ रहे शब्द को रोक कर उसने पूछा था कि 'भाई जब तुम्हारे होन का कोई प्रयोजन ही नहीं है। तुम्हें सुन लिए जाने के बाद तुम्हें कोई याद रखता ही नहीं तो फिर तुम क्यों बिला वज़ह के परेशान होते हो।' शब्द एक क्षण को ठिठका था फिर बोला, 'अच्छा तो आप क्या हैं महात्मा गांधी? विवेकानंद? कार्ल मार्क्स या फिर एडोल्फ हिटलर?' उसने कुछ झुंझलाते हुए जवाब दिया था 'कुछ नहीं, मैं एक आम इंसान हूँ मैं इनमें से कुछ हो भी नहीं सकता।' शब्द कुछ देर तक उसे घूरता रहा फिर बोला 'नहीं हो सकते तो मर क्यो नहीं जाते। जब तुम्हारे होने का कोई प्रयोजन ही नहीं तुम्हारे मर जाने के बाद तुम्हे याद रखा ही नहीं जाएगा तो क्या फ़र्क़ पड़ता है कि आज मरो या तीस साल बाद? मर जाओ आज ही'। वह एकदम से कोई जवाब नहीं दे पाया था तब शब्द ही फिर से बोला था 'हम सब ऐेसे ही हैं। हम मतलब तुम भी और हम भी। हम सब जानते हैं कि हमारा होना निष्प्रयोजन है फिर भी हम होते हैं। तुम ना तो गांधी हो पाए ना हिटलर फिर भी तुम हो। उसी तरह से हम भी हैं। ये होना ही हमारी नियति है और कुछ हम कर भी नहीं सकते।' कहता हुआ वह शब्द कुछ उदास हो गया था। 'हमारा दुर्भाग्य है कि हम आज और अभी पैदा हो रहे हैं और आज ही तुम्हारे कानों के इस अंधे कुंए में समा जाएँगे। तुम्हारे विचारों में बिना कोई हलचल मचाए समाप्त हो जाएँगे। फिर कभी नहीं दोहराया जाएगा हमें। कभी नहीं का मतलब कभी नहीं। बिना कोई हलचल मचाए समाप्त हो जाना बहुत पीड़ादायी होता है। बहुत पीड़ादायी होता है ये जानना कि आपके जाने के बाद कोई शून्य या कोई रिक्त स्थान बना ही नहीं। मानों आप तो थे ही नहीं। आपका तो अस्तित्व ही नहीं था आप तो बिला वज़ह ही होने का भ्रम पाले हुए थे।' कहता हुआ वह शब्द फिर से ख़ामोश हो गया था। कुछ देर तक फिर से ख़ामोशी बिछी रही थी।

'तुम जानते हो कि अगर में इस शायद जोशी के पास नहीं होता तो किसी और के पास होता। किसी और के पास होता तो भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ना था। तुम नहीं सुनते तो कोई और सुनता। सुनाने वाला वही होता मोटा, गंजा, ठिगना और स्थगित सपनों वाला कोई अधेड़।' शब्द इतना कह कर चुप हो गया था और फिर काफ़ी देर तक चुप ही रहा था।

'वही तो मैं भी कह रहा था कि अगर प्रयोजन है ही नहीं तो फिर अर्थ ही क्या है।' वाक्य पूरा करने के साथ ही उसे लग गया था कि उसने ये पूरा वाक्य बिना कुछ सोचे समझे यूं ही बिला वज़ह बोल दिया है। केवल इसलिए कि वह कुछ बोलना चाह रहा था, शग्द की चुप्पी उसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी। 'एग्ज़िसटेंस और नान एग्ज़िस्टेंस ये हमारे तय करने से कहाँ होता है। वास्तव में तो हमारे तय करने से कुछ भी नहीं होता। कुछ भी नहीं। तुम अभी यहाँ बैठै हो ये ऊपर से पंखा गिरे ओर ख़त्म हो जाओ। हो जाओ क्या फ़र्क़ पड़ता है। अमेरिका के राष्ट्रपति को पता चलेगा कि अमकी जगह के ढिमके मोहल्ले में फलाना आदमी फ़ौत हो गया? कभी नहीं चलेगा। अमेरिका के राष्ट्रपति को छोड़ो तुम्हारे बचपन से लेकर के अब तक के सारे मित्र परिचित, क्या सबको पता चलेगा कि तुम जो कल तक थे अब नहीं हो। वह बचपन का तुम्हारा पक्का दोस्त दीनू जो बीस साल पहले दुबई चला गया और जिससे स्कूल छूटने के बाद तुम आज तक नहीं मिले। क्या उसे पता चलेगा कि तुम मर गए। वही दीनू जिसके साथ स्कूल में तुम्हारे इस तरह के रिश्ते थे कि चोट उसको लगती थी और दर्द तुमको होता था। वही जिसके बारे में तुम ये सोचा करते थे कि अगर वह मर जाए तो तुम भी मर जाओगे। उसी दीनू को पता भी नहीं चलेगा कि तुम मर चुके हो।' कह कर शब्द चुप हो गया था।

'आज भले ही पता न लगे मगर साल छः महीने में तो पता लग ही जाएगा।' कुछ लापरवाही भरे स्वर में कहा था उसने।

'अच्छा...?' शब्द कुछ व्यंग्य के भाव लिए मुस्कुरा रहा था 'क्या तुम्हें पता है कि वही दीनू दो साल पहले दुबई में ही मर चुका है।'

'क्या...?' चौंक गया था वो। 'तुम्हें कैसे पता?'

'हम शब्द हैं, हमारा तो काम ही है सूचनाओं को इधर से उधर करना। तुम भले ही हमें निष्प्रयोजन कह रहे हो पर हम ऐसे होते नहीं है। हाँ ये अलग बात है कि हमरा निष्प्रयोजन हो जाना कभी-कभी परिस्थिति जन्य हो जाता है।' कहता हुआ वह शब्द उसके कानों में समा गया था। उस दिन काफ़ी देर तक उद्विग्न रहा था वो। दीनू चला गया और उसको पता भी नहीं चला, ऐसा कैसे हो सकता है। दीनू और उसके बीच तो।

शायद जोशी अब उकता रहा है। उसने फ़ाइल का आख़िरी पेज पलटकर उसे बंद कर दिया और कुछ मुस्कुराते हुए शायद जाशी की तरफ़ देखा, शायद जोशी भी हल्के से मुस्कुराया (मगर नहीं, मुस्कुराना तो उसे आता ही नहीं है) । 'कैसे हैं आप?' (इसका नाम तो अभी तक याद नहीं आया) उसने कुछ विनम्रता पूर्वक पूछा।

'बस क्या बताऊँ? जी रहे हैं' शायद जोशी ने उत्तर दिया।

अचानक उसे याद आया कल रात को रेडियो पर सुना लता मंगेशकर का फ़िल्म शंकर हुसैन का वह गाना 'अपने आप रातों में'। उसे नहीं पता था कि शंकर हुसैन में एक और इतना बढ़िया गाना भी है वरना अभी तक तो वह 'आप यूं फ़ासलों से गुज़रते रहे' पर ही फ़िदा था।

इसी बीच शायद जोशी ने कुछ बोलना शुरू कर दिया था। शब्द बीच-बीच में कभी उसे सुना भी रहे थे, तब जब वह रात को सुने गीत पर से कुछ फ़ुर्सत पाता था तब। थोड़ी देर बाद ये शब्द भी नहीं सुनाई देंगे।

उसकी आंखें शायद जोशी पर ही जमी हैं, शायद इसी से शायद जोशी को भ्रम बना रहता है कि उसे सुना जा रहा है और बाक़ायदा सुना जा रहा है। कितना बेवकूफ होता है सुनाने वाला, जो ये समझता है कि आंखों से सुना जाता है। जो ये समझता है कि आंखें अगर आप पर हैं, तो इसका मतलब ये है कि आपको सुना जा रहा है। सुनने वाले लोग अक़्सर इस ही बेवक़ूफ़ी का तो फ़ायदा उठाते हैं। शायद जोश्ी संभवतः अपने बेटे के बारे में कुछ बता रहा है, बीच-बीच में एक दो शब्द जो ग़लती से वह सुन लेता है उनमें ऐसा ही कुछ है। आवारा, फेल, गुंडागर्दी जैसे शब्द बीच-बीच में सुना जाते हैं। हाँ क्या तो भी शुरूआत थी उस गाने की 'अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं, चौंकते हैं दरवाज़े सीढ़ियाँ धड़कती हैं' उफ़्फ़ क्या शब्द हैं और कितनी ख़ूबसूरती से गाया है लता मंगेशकर ने। कोई संगीत नहीं, कुछ नहीं, बस मद्धम-मद्धम स्वर में गीत और उसके बाद 'अपने आप' शब्दों को दोहराते समय 'आ' और 'प' के बीच में लता का लंबा-सा आलाप उफ़्फ़ जानलेवा ही तो है। एक तो फ़िल्म का नाम ही कितना विचित्र है 'शंकर हुसैन' पता नहीं क्या होगा इस फ़िल्म में। काश वह इसे देख पता। कुछ चीज़ें होती हैं न ऐसी, जिनको लेकर आप हमेशा सोचते रहते हैं कि काश आप इसे देख पाते। बचपन में जब इतिहास के टीचर इतिहास पढ़ाते थे तब उसकी बहुत इच्छा होती थी कि काश उसे एक बार सिकंदर देखने को मिल जाए। वह छूकर देख पाए कि अच्छा ऐसा है सिकंदर। ऐसा ही कुछ वह काश्मीर में खिलने वाले क्वांग पोश, दामपोश फूलों के बारे में भी सोचता था। शंकर हुसैन को लेकर भी उसको ऐसी ही उत्सुकता है कि क्या होगा इस फ़िल्म में और क्यों नहीं किया उस समय के बजरंगियों ने इसका विरोध कि शंकर के साथ हुसैन कैसे लग गया।

'पत्नी के घुटनों का दर्द फिर बढ़ गया है, कल एक नए डाक्टर को दिखाया है काफ़ी नाम सुना था उनका।' शायद जोशी का एक पूरा का पूरा वाक्य उसके सुनने में आ गया। वाक्य के तत्वों के हिसाब से उसने चेहरे पर कुछ संजीदगी ओढ़ ली।

मुखड़े के बाद जो अंतरा शुरू होता है वह भी कमाल का ही था

' एक अजनबी आहट आ रही है कम कम-सी

जैसे दिल के परदों पर गिर रही हो शबनम-सी

बिन किसी की याद आए दिल के तार हिलते हैं

बिन किसी के खनकाए चूड़ियाँ खनकती हैं

अपने आप...'

पहले तो उसने पक्का सोच लिया था कि ये गीत गुलज़ार का ही है। वही लिखते हैं इस तरह शब्दों के साथ खेल-खेल कर। ख़ामोशी का गीत 'हमने देखी है उन आंखों की...' भी तो इसी तरह का है। उत्सुकता के साथ उसने गीत के ख़त्म होने का इंतज़ार किया था और जब गीतकार का नाम लिया गया था तो चौंक गया था वो। क़ैफ़ भोपाली...? उनका गीत था ये...? थोड़ा अच्छा भी लगा था उसे, अपने ही शहर वाले ने लिखा है इतना सुंदर गीत।

शायद जोशी चुप हो गया है और उसकी तरफ़ देख रहा है। उसने चौंक कर पूछा 'हाँ ...?' पूछने की वज़ह स्पष्ट है, शायद जोशी ने कोई वाक्य प्रश्न की शक्ल में भेजा था और अब उत्तर की प्रतीक्षा में चुप है। अन्यथा तो चुप होने वाली कोई बात है ही नहीं।

'मैं पूछ रहा था कि भाभीजी तो सुना है इंदौर की हैं, वहाँ तो कान्यकुब्ज ब्राह्मण काफ़ी हैं। कहिये ना भाभी जी से कि कोई ठीक ठाक लड़का हो बताएँ। इस बार ठंड में बेटी की शादी करनी ही है।' शायद जोशी ने अपनी बात दोहरा दी।

'हाँ-हाँ बिल्कुल मैं आज ही बात कर लूंगा।' उसने आश्वासन के स्वर में कहा।

' लड़की अच्छी है। बी.ए. कर लिया है। कम्प्यूटर कोर्स कर रही है, आप तो जानते हैं आजकल कम्प्यूटर तो...

दूसरा मुखड़ा तो पहले से भी ज़्यादा अच्छा था

' कोई पहले दिन जैसे घर किसी को जाता हो

जैसे ख़ुद मुसाफ़िर को रास्ता बुलाता हो

पांव जाने किस जानिब बेउठाए उठते हैं

और छम छमा छम-छम पायलें छनकती हैं

अपने आप...'

आश्चर्य चकित रह गया था वो, इतना सुंदर गीत उसने आज तक सुना क्यों नहीं था। कितनी सीधी सीधी-सी बात कही है। पांव जाने किस जानिब बेउठाए उठते हैं। जोन किस जानिब और वह भी बेउठाए । क्या बात कही है ये गीत छुपा कहाँ था अब तक? कितने मशहूर गीत सुन चुका है वह अब तक, फिर ये गीत कहाँ छुपा था? वैसे क़ैफ़ भोपाली और लता मंगेशकर की जुगलबंदी में पाक़ीज़ा के सारे गाने उसे पंसद हैं। विशेषकर 'यूं ही कोई मिल गया था सरे राह चलते चलते' वह तो अद्भुत गीत है।

' अब तो दफ़्तर में भी वही झिकझिक होने लगी है, इधर अफ़सर हैं तो उधर नेता। हर किसी को हमारी ही मारना है ... शायद जोशी बुदबुदाहट की तरह बोल रहा है। शब्द इस तरह से आ रहे हैं मानो इसके अलावा उनके पास और कोई चारा भी न हो।

गाने का तीसरा अंतरा शायद पूरी शिद्दत के साथ लिखा गया था। उसी अज्ञात की तरफ़ बार-बार इशारा करते हुए शब्दों को पिरोया गया है जो शायद उन सबके जीवन में होता है जिनके सारे स्वप्न अभी स्थगित नहीं हुए हैं। एक अज्ञात, जो होता है पर दिखाई नहीं देता। ये जो सारे के सारे शाायद जोशी हैं, इनकी सारी समस्याओं का मूल एक ही है, जीवन से अज्ञात की समाप्ति। जब तक आपको लगता है कि न जाने कौन है, पर है ज़रूर, तब तक आप सपने देखते हैं। सपने देखते हैं, उस न जाने कौन के सपने। वह न जाने कौन आपके आस पास फ़िरता है, मगर दिखता नहीं है। वही आपको ज़िंदा रखता है। जैसे ही आपको यक़ीन हो जाता है कि हम तो इतने दिन से फ़िज़ूल ही परेशान हैं, कोई भी नहीं है, उसी दिन आपको सपने आने भी बंद हो जाते हैं (स्थगित हो जाते हैं) ।

' जाने कौन बालों में उंगलियाँ पिरोता है

खेलता है पानी से तन बदन भिगोता है

जाने किसके हाथों से गागरें छलकती हैं

जाने किसी बाँहों से बिजलियाँ लपकती हैं

अपने आप...'

क्या डिफ़ाइन किया है अज्ञात को। 'जाने कौन बालों में उंगलिया पिरोता है' ज्ञात और अज्ञात के बीच एक महीन से सूत बराबर गुंजाइश को छोड़ा गया है, यह कह कर कि जाने किसकी बाँहों से बिजलियाँ लपकती हैं। क़ैफ़ भोपाली ऐसा ही लिखते थे 'फ़िरते हैं हम अकेले बाँहों में कोई ले ले...'। कौन ले ले...? कुछ पता नहीं हैं। बस वही, जो है, पर नहीं है। यहाँ पर भी उसकी बांहों से बिजलियाँ लपक रही हैं। पता नहीं ये शंकर हुसैन अब उसको देखने को मिलेगी या नहीं। क्या होगा जब वह मर रहा होगा? क्या ये तब तक भी उसको परश्ेान करेगी? कशमीर के क्वांगपोश और दामपोश फूलों की तरह। क्या सचमुच इतने सारे अनुत्तरित प्रश्नेां को साथ लेकर ही मरेगा वह? फिर उन प्रश्नों का होता क्या होगा जो उस आदमी के साथ जीवन भर चलते आए हैं, जो अभी-अभी मर गया है। जैसे दीनू ही मर गया ख़त्म हो गया।

आख़िर में एक बार फिर लता मंगेशकर की आवाज़ उसी मुखड़े को देाहराती है

' अपने आप रातों में चिलमनें सरकती हैं

चौंकते हैं दरवाज़े सीढ़ियाँ धड़कती हैं

अपने आप...'

और विस्मय में डूबा हुआ छोड़कर गीत ख़त्म भी हो जाता है।

'आपका तो अच्छा है आप तो अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं, पर हम लोगों का तो...' शंकर हुसैन की लय टूटी तो शायद जोशी के शब्द पुनः सुनाई देने लगे। इस वाक्य को बोल कर शायद जोशी चुप हो गया है। शायद उसके पास के सारे शब्द ख़त्म हो गए हैं। अब ये काफ़ी देर तक इसी प्रकार चुपचाप बैठा रहेगा। गो कि अपने द्वारा अभी तक कही गई सारी की सरी बातों पर विषय विशेषज्ञ की टिप्पणी की प्रतीक्षा कर रहा है। आज पहली बार उसे किसी शायद जोशी पर दया आ रही है। इस बेचारे को तो पता भी नहीं होगा कि शंकर हुसैन नाम की कोई फ़िल्म आई थी, जिसमें लता मंगेशकर ने क़ैफ़ भोपाली का लिखा एक अद्भुत गीत गाया था। इसको अभी वह गीत सुना भी दिया जाए तो ये कुछ भी रिएक्ट नहीं करेगा। किस क़दर ख़ाली और चुका हुआ है ये शायद जोशी।

'अच्छा चलता हूँ, आपका काफ़ी समय ले लिया।' कहता हुआ वह शायद जोशी उठ खड़ा हुआ। औपचारिकतावश उसने भी कुर्सी पर ही उठने की मुद्रा बनाई। शायद जोशी ने धीरे से दरवाज़े को बाहर धकेला और निकलने के लिए बढ़ने ही वाला था कि अचानक जाने क्या सोचकर वह शायद जोशी से बोला 'आप मर जाने के बारे में क्यों नहीं सोचते, आपके लिए अच्छा रहेगा।' शायद जोशी ने पलटकर देखा। शायद जोशी की आंखों में ख़ौफ़ नज़र आ रहा था चेहरा पीला पड़ गया था। घबराहट में वह वापस पलटा और दरवाज़े से बाहर निकल गया। निकलते समय वह पैरदान से उलझ कर गिरते-गिरते भी बचा।

शायद जोशी जा चुका था और उसके द्वारा छोड़ा गया दरवाज़ा धीरे-धीरे डोर क्लोज़र के प्रेशर से वापस आ रहा था। वह कुर्सी की पुश्त से सर टिका कर सोचने लग गया कि आख़िर इस शायद जोशी का नाम था क्या? उसे सब कुछ याद आ रहा था। क्वांगपोश, दाम पोश, सिकंदर, दीनू, लता मंगेशकर, क़ैफ़ भोपाली, शंकर हुसैन, पर नहीं याद आ रहा था तो अभी-अभी उठ कर गए शायद जोशी का नाम।