शायरी है कि पैग़ाम है (ज़हूर सिद्दीक़ी) / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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शायरी है कि पैग़ाम है शायरी है कि पैग़ाम है ज़हूर सिद्दीक़ी ज़हूर सिद्दीक़ी ज़हूर सिद्दीक़ी इस व़क्तव्य में फ़ैज़ के पैग़ाम का खु़लासा करने के साथ-साथ लेखक ने 1959-60 के दिनों में उनके दिल्ली आगमन पर एक रिपोर्ट भी पेश की है। इससे पता चलता है कि फ़ैज़ हिंदुस्तान में भी कितने लोकप्रिय हो गये थे और उन्हें चाहने वाले उनसे मिलने, उन्हें सुनने के लिए किस तरह उमड़ पड़ते थे। संफ़ैज़ की शायरी ने अपनी पहचान इसलिए बनायी क्योंकि उनमें दूर-दूर तक बनावट नहीं थी; जो दिल पर गुज़री उसको ‘रक़म कर’ दिया1। हां, यह भी ठीक है कि उनकी अक़्ल ने उन्हें शायद कभी ‘तन्हा’ नहीं छोड़ा और इसी कारण उनकी शायरी सोच और भावनाओं की एक 2 लय बन जाती है।

लोग कहते हैं कि उन्होंने कम लिखा; हम कहते हैं जितना उन्होंने लिखा उसको पहले समझ तो लो और अगर समझ में आ जाये तो फिर अपने क़दमों को आगे बढ़ाओ, कुछ कर बैठो। जहां तक हमारी बात है जब भी उनके कलाम पर हमने नज़र डाली तो ऐसा लगा कि इस शेर को या उस शेर को अपने दिल में हम वो जगह नहीं दे पाये जिसका वो मुस्तहक़ था।3

कभी-कभी हम सोचते हैं कि कोई शायर फ़ैज़ जैसा या उससे ऊंचा बन भी पायेगा? सवाल मुश्किल है।हमारा विचार है कि यदि फ़ैज़ कुछ नहीं लिखते, केवल ‘हम जो तारीक राहों में मारे गये’ की तख़लीक़4 कर जाते तो साहित्य की दुनिया में जिं़दा रखने के लिए काफ़ी था। हमें यह नज़्म बहुत पसंद है और बाद में मालूम हुआ कि फ़ैज़ भी इसको अपनी सबसे प्रिय रचना मानते थे।

क्या किसी को गुमान होगा कि जो नज़्म ‘होठों के फूलों की चाहत’ से शुरू हो; जहां ‘होठों की लाली लपकती’ हो और ज़्ाुल्फ़ों से ‘मस्ती बरस’ रही हो लाखों दिलों को हिलाने वाली आवाज़ बन जायेगी। एक नज़र पीछे की तरफ़ घुमाकर फिर सामने देखें तो ऐसा लगता है कि हुस्न कालिदास की शकुंतला बनकर सदियों का सफ़र तै करके उनके शेरों में नुमायां5 हो गया है और क्या होठों की लाली को देखकर अनार का सुर्ख़ फल याद नहीं आ जाता है? लेकिन इतनी सहज सुंदर भाषा का एक दर्दनाक लेकिन ज़रूरी पहलू भी नज़र आता है, जब फ़ैज़ इस पंक्ति पर पहुंचते हैं :

देख क़ायम रहे इस गवाही पर हम अंतिम सांस तक,

जामें6 शहादत पीते हुए।

इस जवाबाज़ जोड़े (इथल व ज्युलियस रोज़नबर्ग) ने कैसी दृढ़ता दिखायी? बेशक भावनाएं उमड़ी हैं, दिल को थामना पड़ जाता है और फिर जब हम इन शेरों को याद करते हैं:

नरसाई अगर अपनी तक़दीर थी

तेरी उल्फ़त तो अपनी ही तदबीर थी

किसको शिकवा है गर शौक़ के सिलसिले

हिज्र की क़न्लगाहों से सब जा मिले

ये रोजनबर्ग जोड़ा अपनी ‘उल्फ़त’ पर मोहित है, ‘शर्मसार नहीं’।भले ही इस राह ने उन्हें क़त्लगाह तक पहुंचा दिया। पर इथल व ज्युलियस रोज़नबर्ग ने महिमा तथा मर्यादा की ज्याली मिसाल क़ायम की। ‘ दिल में कं़दील ग़म’ होना स्वभाविक है। क्योंकि दिल फिर दिल है। ‘संग व खि़श्त’7 नहीं लेकिन फ़ैज़ की शायरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनके क़दम आगे बढ़ने से डगमगाते नहीं और गिरे हुए परचमों को लेकर ज्याले आशिक़ों के काफ़िले निकल पड़ते हैं।

यह दर्दनाक हादसा सीमित बनकर नहीं रह जाता बल्कि गंूज जाता है। दर्द के फ़सले को भी एक हद तक पाटने लगता है। दरअसल ‘हम जो तारीक राहों में मारे गये’ फ़ैज़ का कम्युनिस्ट घोषणापत्रा बन गया है।

फ़ैज़ ने अनेक ऐसी रचनाएं पेश की हैं जो अपनी गहराई, गंभीरता तथा गहनता के कारण संसार के हर लोकप्रिय शायर को उनके सामने अपना सर झुकाने पर मजबूर कर देती हैं और आलोचक कितना भी संगदिल हो जब वह उनके शेरों को संजीदगी से पढ़ता है तो वह भी फ़ैज़ की सन्नाई8 का क़ायल हो जाता है।

वास्तव में फ़ैज़ का दौर कुछ ऐसा था जहां एक तरफ़ ज़्ाुल्म का लावा फूट रहा था तो दूसरी ओर सुखऱ् किरनें उभर आयी थीं ; एक तरफ़ दर्द की पीड़ा थी तो दूसरी ओर उसका मदावा भी था। फ़ैज़ ने दर्द को भी चूम लिया और उसके इलाज को भी।

बाज़ी है बहुत सख़्त म्याने9

हक़10 व बातिल11

वह ज़्ाुल्म में कामिल12 हैं तो हम सब्र में कामिल

बाज़ी हुई अंज़ाम, मुबारक हो अज़ीज़ो13

बातिल हुआ नाकाम, मुबारक हो अज़ीज़ो

6. प्याला
7. पत्थर व ईंट

8. बनाने की कला 9. बीच में 10. सच्चाई 11. झूठ 12. पक्के, दक्ष 13. प्यारो

फ़ैज़ इस मरसिया में रूलाते नहीं बल्कि जगाते हैं और उनकी शायरी में मुशाहिदा14 तो है ही साथ-साथ एक अनोखा अंदाज़ भी है: ‘गुलों में रंग’ भरते हुए ‘सूएदार’15 तक पहुंच जाते हैं, रूमानियत को कभी लक्ष्य पर हावी नहीं होने देते।

अगस्त के महीने में उनकी लिखी हुई ‘यूमे16 आज़ादी’ के संदर्भ में लिखी गयी नज़्मों का जायज़ा भी लीजिये: आज़ादी का वह दिन उनके लिए मायूसकुन था :

यह दाग़ दाग़ उजाला यह शब गज़ीदह17 सेहर18

वो इंतिज़ार था जिसका यह वह सेहर तो नहीं

अगस्त 1952 में कुछ हालात बेहतर हुए तो कह बैठे:

अब भी खि़ज़ान का राज है लेकिन कहीं कहीं

गोशे राहे चमन में ग़ज़ल ख़्वान हुए तो हैं

इनमें लहू जला हो ‘हमारा’ कि जान व दिल

महफ़िल में कुछ चिराग़ फ़रोज़ान19 हुए तो हैं

लेकिन फिर अगस्त 1955 के दौर में उन्हें यह कहने में देर नहीं लगी:

चांद देखा तेरी आंखों में, न होंठों पे शफ़क़20

मिलती जुलती है शबे ग़म से तेरी दीद अब के

आज़ादी के उस दिन पर लिखी हुई फ़ैज़ की 14 अगस्त 1967 की नज़्म जिसका शीर्षक ‘दुआ’ है, अपने सुबक अंदाज़ लेकिन पुरमायने पैग़ाम के लिए उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में गिनी जाती है। चंद पंक्तियां:

आइये हाथ उठायें हम भी

हम जिन्हें रस्मे दुआ याद नहीं

हम जिन्हें सोजे़ मोहब्बत के सिवा

कोई बुत, कोई ख़ुदा याद नहीं

..... ..... ..... .....

जिनकी आंखों को रुख़े सुबह का यारा भी नहीं

उनकी रातों में कोई शमा मुनव्वर कर दे

..... ..... ..... .....

जिनकी दीं पैरवी-ए कज़्बे दरिया है उनको

हिम्मते कुफ्ऱ मिले, जुराते तहक़ीक़ मिले


(जिनका धर्म / ईमान झूठ का दरिया है, उनको कुफ्ऱ की हिम्मत मिले यानी ऐसे दीं को उखाड़ फंेकने की हिम्मत मिले और उनमें नये रास्ते की खोज की हिम्मत और दिलेरी हो।)

फ़ैज़ को अपने वतन से बेपनाह मोहब्बत थी और इसीलिए ‘रुख़े सहर की लगन’ उनके क़दमों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रही: ‘चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आयी।’ लेकिन फ़ैज़ दूसरे मुल्क के लोगों को नीचा दिखाने को वतनपरस्ती नहीं समझते थे। चाहे कुर्सी पर बैठे हुए लोग कुछ भी तमाशे दिखाते रहें लेकिन उनका हिंदुस्तान आना नहीं रुका और जब भी वे आये लोग सैकड़ों व हज़ारों की तादाद में उनसे मिलने, उन्हें सुनने पहुंच जाते थे। 1959-60 के दौरान उनका जब दिल्ली आना हुआ तो वे डा. के.एम. अशरफ़ से मिलने करोड़ीमल काॅलेज आये। उनको यह पता नहीं था कि काॅलेज वालों ने उनको सुनने के लिए हाल में मीटिंग का प्रबंध कर लिया था; वक़्त से पहले ही हाल खचाखच भर गया था लेकिन जब वक़्त ज़्यादा हो गया तो डा. अशरफ़ हाल से बाहर आकर खड़े हो गये; उनके पीछे उनके शगिर्द अर्जुन देव और हरबंस मुखिया भी चले आये और इस इंतिज़ार की घड़ी में हमने भी उनका साथ दिया।

ख़ुदा-ख़ुदा करके फ़ैज़ की शक्ल नज़र आयी और वे आते ही डाॅ. अशरफ़ के जुमले का शिकार हुए ः ‘हमने तो अपने माशूक़ का भी कभी इतना इंतिज़ार नहीं किया।’ फ़ैज़ कुछ झेंप से गये और डा. अशरफ़ से बग़लगीर होते हुए बोले: ‘बन्ने भाई (सज्जाद ज़हीर) उठने ही नहीं देते थे, बड़ी मुश्किल से आया हूं।’ फिर हम सब हाल के अंदर दाखि़ल हुए। हम तो समझते थे कि हाल आधा हो चुका होगा लेकिन कोई बंदा खिसका ही नहीं और जैसे ही वह मंच पर पहुंचे आवाज़ें लगने लगीं:

मुझ से पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग

इसके बाद अनेक बार उनका दिल्ली आना हुआ। और जे.एन.यू. में जो मीटिंग सीताराम येचुरी ने करवायी, उसमें हज़ारों की तादाद में उनके प्रेमी पहुंचे। फ़ैज़ ने अपने चाहने वालों से इंतिज़ार तो ज़रूर करवाया, लेकिन उनके कलाम ने उन्हें कभी मायूस नहीं किया। कितने भी जटिल हालात हों उनके शेरों की ‘चांदी दमकती’ रही।

अगर पाकिस्तान फ़ैज़ की पत्नी थी तो हिंदुस्तान उनकी महबूबा। उनके दिल में हर उस इनसान की इज़्ज़त थी जो इंसानियत का परचम लिए नेक राह पर चल रहा हो; और जब ऐसे इनसानों पर ज़्ाुल्म होता तो उन पर अजीब कैफ़ियत21 तारी हो जाती और वह अपने दर्द के रिश्ते के इसरार पर क़लम चलाना शुरू कर देते।

फ़ैज़ का विश्बोध कोई थोपा हुआ लोहे का ख़ाल नहीं था ; वह उनकी बेलौस समझ का अंग था; ज़्ाुल्म से हर जगह टकराने के लिए तैयार।

उनकी ‘दो नज़्में फ़िलिस्तीन के लिए’ का जायज़ा लीजिए ; ज़रा भी तो इनमें दोहरापन प्रतीत नहीं होता ; उनकी नज़्म ‘फ़िलिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी’ एक दिलफ़िगार शाहकार है। कौन सा दिल है जो इन पंक्तियों को पढ़कर तड़प न उठे:

(जिनका धर्म/ईमान झूठ का दरिया है, उनको कुफ्ऱ की हिम्मत मिले यानी ऐसे दीं को उखाड़ फंेकने की हिम्मत मिले और उनमें नये रास्ते की खोज की हिम्मत और दिलेरी हो।)

फ़ैज़ को अपने वतन से बेपनाह मोहब्बत थी और इसीलिए ‘रुख़े सहर की लगन’ उनके क़दमों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती रही: ‘चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आयी।’ लेकिन फ़ैज़ दूसरे मुल्क के लोगों को नीचा दिखाने को वतनपरस्ती नहीं समझते थे। चाहे कुर्सी पर बैठे हुए लोग कुछ भी तमाशे दिखाते रहें लेकिन उनका हिंदुस्तान आना नहीं रुका और जब भी वे आये लोग सैकड़ों व हज़ारों की तादाद में उनसे मिलने, उन्हें सुनने पहुंच जाते थे। 1959-60 के दौरान उनका जब दिल्ली आना हुआ तो वे डा. के. एम. अशरफ़ से मिलने करोड़ीमल काॅलेज आये। उनको यह पता नहीं था कि काॅलेज वालों ने उनको सुनने के लिए हाल में मीटिंग का प्रबंध कर लिया था; वक़्त से पहले ही हाल खचाखच भर गया था लेकिन जब वक़्त ज़्यादा हो गया तो डा. अशरफ़ हाल से बाहर आकर खड़े हो गये; उनके पीछे उनके शगिर्द अर्जुन देव और हरबंस मुखिया भी चले आये और इस इंतिज़ार की घड़ी में हमने भी उनका साथ दिया।

ख़ुदा-ख़ुदा करके फ़ैज़ की शक्ल नज़र आयी और वे आते ही डाॅ. अशरफ़ के जुमले का शिकार हुए ः ‘

हमने तो अपने माशूक़ का भी कभी इतना इंतिज़ार नहीं किया।’ फ़ैज़ कुछ झेंप से गये और डा. अशरफ़ से बग़लगीर होते हुए बोले: ‘बन्ने भाई (सज्जाद ज़हीर) उठने ही नहीं देते थे, बड़ी मुश्किल से आया हूं।’ फिर हम सब हाल के अंदर दाखि़ल हुए। हम तो समझते थे कि हाल आधा हो चुका होगा लेकिन कोई बंदा खिसका ही नहीं और जैसे ही वह मंच पर पहुंचे आवाज़ें लगने लगीं :

मुझ से पहली-सी मोहब्बत मेरी महबूब न मांग

इसके बाद अनेक बार उनका दिल्ली आना हुआ। और जे.एन.यू. में जो मीटिंग सीताराम येचुरी ने करवायी, उसमें हज़ारों की तादाद में उनके प्रेमी पहुंचे। फ़ैज़ ने अपने चाहने वालों से इंतिज़ार तो ज़रूर करवाया, लेकिन उनके कलाम ने उन्हें कभी मायूस नहीं किया। कितने भी जटिल हालात हों उनके शेरों की ‘चांदी दमकती’ रही।

अगर पाकिस्तान फ़ैज़ की पत्नी थी तो हिंदुस्तान उनकी महबूबा। उनके दिल में हर उस इनसान की इज़्ज़त थी जो इंसानियत का परचम लिए नेक राह पर चल रहा हो; और जब ऐसे इनसानों पर ज़्ाुल्म होता तो उन पर अजीब कैफ़ियत21 तारी हो जाती और वह अपने दर्द के रिश्ते के इसरार पर क़लम चलाना शुरू कर देते।

फ़ैज़ का विश्बोध कोई थोपा हुआ लोहे का ख़ाल नहीं था ; वह उनकी बेलौस समझ का अंग था; ज़्ाुल्म से हर जगह टकराने के लिए तैयार।

उनकी ‘दो नज़्में फ़िलिस्तीन के लिए’ का जायज़ा लीजिए ; ज़रा भी तो इनमें दोहरापन प्रतीत नहीं होता; उनकी नज़्म ‘फ़िलिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी’ एक दिलफ़िगार शाहकार है। कौन सा दिल है, जो इन पंक्तियों को पढ़कर तड़प न उठे:

21. भावदशा

मत रो बच्चे

अम्मी, अब्बा, बाजी, भाई

चांद और सूरज

तू गर रोयेगा तो ये सब

और भी तुझको रुलवायेंगे

तू मुस्कायेगा तो शायद

सारे एक दिन भेस बदल कर

तुझ से खेलने लौट आयेंगे

‘ईरानी तुल्बा के नाम’ उनकी उन नज़्मों में से है जो क्रांतिकारी साहित्य में अपनी जगह रखती है; जब इन जियालों पर गोली चली और उनमें से अनेक मारे गये तो इस दर्द को जेल की सलाख़ों के पीछे इस क़ैदी ने अपने दिल की गहराई में महससू किया:

यह कौन सख़ी हैं

जिनके लहू की

अश्रफ़ियां, छन छन, छन छन,

धर्ती के पेहम प्यासे

कशकोल में ढलती जाती हैं

कशकोल को भरती हैं

इस वक्तव्य के अंत में मैं यह कहना चाहता हूं कि:

दिल से पेहम24 ख़याल कहता है

इतनी शीरीन है जिं़दगी इस पल

ज़्ाुल्म का ज़हर घोलने वाले

कामरां26 हो सकेंगे आज न कल

जलवागाहे विसाल27 की शम्में

वो बुझा भी चुके अगर तो क्या

चांद को गुल करें तो हम जानें

हमारा चांद कभी गुल न होगा; हम कल चले जायेंगे मगर फ़ैज़ की क्रांतिकारी शायरी आनेवाली पीढ़ियों को पैग़ाम देती रहेगी हक़ का, संघर्ष का और इनसानी दोस्ती का।

‘रक़म कर’ दिया -- व्यक्त कर दिया
दिलनवाज़ -- मार्मिक

मुस्तहक़ -- अधिकारी तख़लीक़ -- रचना नुमायां -- प्रदर्शित मुशाहिदा -- परख सूएदार -- फांसी की ओर यूमे -- दिन गज़ीदह -- विष-भरी, दंशित सेहर -- स ुबह फ़रोज़ान -- रोशन शफ़क़ -- लाल रौशनी जो सूरज निकलने से पहले और डूबने के बाद नमूदार होती है

कैफ़ियत -- भावदशा पेहम -- लगातार शीरीन -- मीठी। कामरां -- कामयाब। विसाल -- मिलन।