शारीरिक जख्मों से दिव्य प्रकाश का प्रवेश? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 25 अक्तूबर 2019
'द स्काई इज पिंक' फिल्मकार सोनाली बोस की तीसरी फिल्म है। 55 वर्षीय सोनाली बोस की पहली फिल्म 'अमू' और दूसरी फिल्म कल्की कोचलिन अभिनीत 'मार्गरीटा विद ए स्ट्रा' थी। उनका विचार है कि महिला फिल्मकार अपने व्यक्तिगत जीवन के अनुभव और भावनाओं का निवेश करती हैं। पुरुष फिल्मकार अन्य लोगों के जीवन और अनुभव से प्रेरित फिल्में बनाते हैं। वे इस यथार्थ को भी रेखांकित करती हैं कि महिला फिल्म को पूंजी निवेशक भी कठिनाई से मिलते हैं। सोनाली बोस का कहना है कि उन्होंने फिल्म विधा का जितना ज्ञान विधा के स्कूलों से सीखा है, उससे अधिक ज्ञान उन्हें अपने बच्चों को कहानियां सुनाने और उनसे कहानियां सुनने से प्राप्त हुआ है। सोने के पहले कथा सुनना और सुनाने की बड़ी पुरानी परंपरा है।
दादा-दादियां, नाना-नानियां बच्चों को कथा सुनाते हुए बीमारी से लड़ने के नुस्खे भी बताती हैं, परंतु अचार डालने का नुस्खा कभी अपनी बहूओं को नहीं बतातीं। दरअसल चटपटा अचार डालने के कारण उन्हें परिवार से सम्मान मिलता है। अत: वे इसे शेयर नहीं करतीं। पुरस्कार हमेशा अर्जित किए जाते हैं वह भीख में नहीं मिलते। सोनाली बोस की तीनों फिल्मों में माता और पुत्री के रिश्ते की गहराई को खोजने का प्रयास किया गया है। पिता-पुत्र पर बहुत किताबें और फिल्में बनी हैं। पुरुष केंद्रित समाज में ये तो होना ही था। सोनाली बोस ने तीनों फिल्मों में जेनेटिक बीमारियों को केंद्र में रखा है। जींस आज भी रहस्यपूर्ण है। उनका प्रभाव सात पीढ़ियों तक चलता रहा है। विरासत में धन-दौलत ही नहीं मिलती वरन् व्याधियां भी मिलती हैं। गरीबी वंशानुगत नहीं है। वह फैक्ट्री उत्पाद है। गरीबी निर्माण के कारखाने सतत चलते रहते हैं। 'स्काई इज पिंक' में दिखाए गए परिवार के सदस्य कुछ समय भारत में रहते हैं और कुछ समय विदेश में। सोनाली बोस स्वयं भी इसी तरह जीवन व्यतीत करती रही हैं। जब वे भारत में होती हैं तो उन्हें विदेश याद आता है। विदेश में रहते हुए बिताए गए समय की स्मृति उन्हें चैन नहीं लेने देती। बहरहाल, 'स्काई इज पिंक' में एक विवाहित जोड़े की तीन संतानों में दो को वंशानुगत बीमारी है। उनके शरीर में बीमारियों से लड़ने की क्षमता नहीं है। अधिकांश व्यक्ति इस क्षमता के साथ जन्म लेते हैं। मानव शरीर स्वयं को सेहतमंद करते हुए चलता है। इम्यूनिटी सिस्टम के अभाव में बार-बार इंफेक्शन होता रहता है। इस फिल्म में अपनी पुत्री के इर्द-गिर्द वे स्प्रे करती हैं कि कोई कीटाणु उसे बीमार न कर दे। फिल्म में एक मार्मिक दृश्य है जब माता अपनी पुत्री की कब्र पर स्प्रे करती है। मानो कब्र में सोती हुई पुत्री को इंफेक्शन से बचा रही हो। बीमार पुत्री एक किताब लिखती है। जब मृत्यु उसके पैंताने खड़ी है। तब माता प्रकाशक को फोन करती है कि किसी तरह किताब की एक प्रति शीघ्र भेज दें, ताकि बेटी प्रकाशित किताब देख सके। अपनी पुत्रियों के बीमारी से जूझते समय पति-पत्नी के बीच तकरार भी होती है। दोनों ही तनावग्रस्त हैं। इस बात पर भी विवाद होता है कि क्या पत्नी की भूमिका भोजन पकाने और घर को स्वच्छ रखते हुए बच्चों को जन्म देने और पालने तक ही सीमित है?
सोनाली बोस के सिनेमा में यह भी रेखांकित किया गया है कि ईश्वरीय कमतरी की शिकार लड़कियों के हृदय में शारीरिकता के प्रति गहरा आकर्षण होता है और मृत्यु के पूर्व वे ये अनुभव प्राप्त करना चाहती हैं। यह एक स्वाभाविक है परंतु रुढ़िग्रस्त समाज इस स्वाभाविक अधिकार से लोगों को वंचित रखना चाहता है। पवित्रता के जालों में स्वाभाविक इच्छाओं को उलझा दिया जाता है। अतृप्त कामनाओं के साथ अधिकांश लोगों की मृत्यु हो जाती है। इन अनअभिव्यक्त अतृप्त कामनाओं के वृत्त अंतरिक्ष तक जाते हैं। प्रियंका चोपड़ा, जायरा वसीम और फरहान अख्तर ने विश्वसनीय अभिनय किया है। प्रियंका का चेहरा उस कैनवास की तरह सामने आता है, जिस पर गहरे दर्द को पेंट किया गया है। खबर है कि यह फिल्म हिंदुस्तानी और अंग्रेजी भाषाओं में बनी है। इस फिल्म के अंग्रेजी भाषा में बने संस्करण को ऑस्कर मिल सकता है। अमेरिकन एकेडमी ईश्वरीय कमतरियों की फिल्म को महत्व देती है। इसका कारण उनका अपराध बोध भी हो सकता है कि उन्होंने अनावश्यक होने के बावजूद दूसरे विश्व युद्ध में आणुविक विस्फोट किए थे। जीत की कगार पर यह अमानवीय कार्य अनावश्यक था।
इस फिल्म को देखते समय मराठी भाषा में बनी फिल्म 'श्वास' की याद ताजा हो गई। फिल्म में असाध्य बीमारियों से जूझते हुए बालक को उसका पिता अस्पताल अधिकारियों की निगाह से बचाते हुए लेकर बाहर भाग जाता है। वह अपने बालक को शहर दिखाने ले जाता है। मेले तमाशे में ले जाता है। उसकी मंशा स्पष्ट है कि बालक मृत्यु पूर्व खुशी से सैर सपाटा कर सके। ज्ञातव्य है कि आयशा चौधरी के परिवार ने ही सोनाली बोस से आग्रह किया कि वे उनकी पुत्रियों पर फिल्म बनाएं। बीमार मनुष्य के शरीर के जख्मों से दिव्य रोशनी शरीर में प्रवेश करती है। आशावादी मनुष्य इस तरह अपना मन बहलाता है। ईश्वरीय कमतरी 'चिल्ड्रन ऑफ लेसर गॉड' का संस्कृत अनुवाद और शरीर के जख्म से दिव्य प्रकाश के प्रवेश करने के रास्ते पर विचार करें।