शार्त्र / शैलजा सक्सेना
वह आवश्यक दफ्तरी कागज़ों को भर कर, फाइल सँभाले, थोड़ी बेचैन सी कुर्सी में सधी बैठी थी जब मैंने पहली बार उसे देखा। काले चमड़े से मढ़ा शरीर, चमकती सफेद आँखें और चमकते सफेद दाँत। थोड़ा भारी शरीर। काले बालों के बीच हाईलाइट की हुई लाल लटें। मुझॆ किसी ने बताया था कि अफ्रीकी महिलाएँ प्राय: विग पहनती हैं। उसके सुन्दर बालों को देख कर मैं क्षण भर को सोच में पड़ गई कि क्या यह भी विग हैं? अगर सुन्दरता में शरीर के गोरे होने की शर्त न मानें तो उसे सुन्दर कहा जा सकता था।
मैं उसे "हलो”कह कर, मौसम का हाल पूछ्ती, साक्षात्कार के कमरे में ले आई। हमारी बातचीत अंग्रेज़ी में हो रही थी। नाम पूछने पर बताया, “शार्त्र लूले"
"इसका अर्थ क्या होता है", मैंने कहा।
वह बोली, "प्रसन्नता, खुशी... . "
"क्या तुम खुश हो?”मैंने हँसकर मज़ाक किया।
"आपको क्या लगता है?”उसने भी हँसकर कहा।
बात आगे बढ़ाते हुए मैंने उस से अपने बारे में कुछ बताने के लिए कहा।उसकी आँखॆं क्षण भर को अतीत के किसी पृष्ठ पर ठहरीं, फिर स्थिर हो कर वह बोली, "यह मेरा पहला इंटरव्यू है पर मैं इस नौकरी के लिए आवश्यक सभी शर्तें पूरी करने में समर्थ हूँ। “
"इस से पहले क्या कहीं भी काम नहीं किया ?"
"अगर बीमार माँ की दिन -रात की देखभाल को आप काम मानें तो कह सकती हूँ कि काम किया है।"
“तो यह निजी सहायक (पर्सनल सपोर्ट वर्कर) का कोर्स कब किया?”वह इसी पद की नौकरी के लिए हमारी “हेल्थ केयर (स्वास्थ्य-देखभाल) कम्पनी में आई थी।
"माँ की देख-भाल ठीक से कर सकूँ, इसीलिए यह कोर्स किया था। अभी कुछ दिन हुए उनका देहान्त हो गया तो सोचा कि क्यों न किसी और के ही काम आऊँ। स्कूल में आप के दफ्तर का नाम बताया गया था, सो आवेदन भरा और अब आप के सामने बैठी हूँ।”रुक-रुककर यह बात बताते हुए उसका चेहरा लाल हो गया। ऐसा लगा था कि अपने बारे में इतनी सी बात बताना भी उसके लिए मानो भारी हो रहा हो।
"तुम्हारी माँ के लिए मुझे अफसोस है।”मैं औपचारिकता निभाते हुए बोली।
उसकी सफेद आँखों में मेरी काली दुनियादारी ज़रूर चुभी होगी तभी वह कुछ रुककर बोली , "मेरी माँ अफ़सोस करने की नहीं, गर्व करने योग्य महिला थीं।"
मुझे अपनी कहनी पर कुछ संकोच हुआ। हमारी औपचारिकताएँ केवल बेमानी शब्द हैं पर हम सब उन्हें कहने के आदी हैं और मज़ा यह कि सुनने वाले के कानों को भी ये अर्थहीन शब्द बुरे नहीं लगते पर इस लड़की को यह बात चुभी ! यानि इस पर शब्दों का असर होता है !
मैंने कुर्सी में सीधे होकर बैठते हुए पूछा, “उन्हें क्या रोग हुआ था?"
"पुरानी बातें याद करने का और वर्तमान को भूलने का रोग हो गया था उसे, वही जिसे "अल्ज़ाइमर”कहते हैं आप लोग।"
मैंने उसके रेज़्यूमे (बायोडाटा) को देखते हुए पूछा, "तुमने तो नर्सिंग कोर्स किया है अपने देश में?”
उसकी आँखों में कई छायाएँ आईं और गईं। आदमी ज़मीन बदल सकता है, पहनावा बदल सकता है, संबंध बदल सकता है पर मन का रहस्य खोलने वाली अपनी आँखें नहीं बदल पाता, मन में छुपी बातें नहीं बदल पाता। ये बातें मन में चुभे काँटों की तरह होती है जिन पर चलते उसकी भावनाओं के पैर लहुलुहान होते हैं और खून के धब्बे कभी-कभी उसकी आँखों से झाँक ही जाते हैं। शार्त्र की आँखों में अतीत के खून के धब्बे दिखाई दे रहे थे। उसके चेहरे पर अतीत की हल्की सिकुड़ने पड़ने लगीं ! इंटर्व्यू की यह माँग थी कि वह अपनी पढ़ाई और नौकरी के अनुभव को बताए और वो शायद अपने पुराने दर्द में उलझ रही थी कि कितना खोले और कितनी बँधी रहे।
ठीक इसी समय धूप का एक टुकड़ा खिड़की से कूदकर उसकी कुरसी के पास आकर पसर गया। धूप और छाँव का एक अनोखा खॆल अब उस कमरे में चलने लगा।
"हाँ, किया था, माँ के कहने पर ही... . ”वह वाक्य आधा छोड़कर ही चुप हो गई।
“नर्स के ऊँचे सोपान के बाद "पर्सनल सपोर्ट वर्कर”बन कर कैसा लगेगा? क्या फिर से नर्स बनना चाहोगी?”मैंने उसे कुरेदा।
"कुछ नहीं लगेगा मुझॆ, सोपान ऊँचा हो या नीचा, आदमी को केवल खड़े रहने की जगह चाहिए ,ताकि वह दुनिया के धक्कों से गिर न पड़े। आपके दूसरे प्रश्न के उत्तर में यही कहना चाहती हूँ कि मैं नर्स नहीं बनना चाहती।”
"ऐसा क्यों? तुम्हारी कुछ अल्पकालीन या दीर्घकालीन योजनाएँ, उद्देश्य भी तो होंगे?"
“मेरे उद्देश्य... . ”ठंडी साँस लेकर वह बोली, “मैं बिना शर्तों के मनुष्य की तरह स्वतंत्र जी सकूँ... . अभी तो बस यही मेरी योजना है और यही मेरा उद्देश्य।"
मैंने ऐसे उत्तर की आशा नहीं की थी। नौकरी के साक्षात्कार में इस तरह का दार्शनिक उत्तर कोई देगा, ऐसी अपेक्षा किसी से कहाँ की जाती है ? पर देखॆं, तो बात सच है। जीने की सबसे बड़ी ज़रूरत यही है कि मनुष्य, मनुष्य की तरह स्वतंत्रता से, इज़्ज़त के साथ जी सके...। हम पचासों तरीके के सपने देखते हैं, अपने विकास के नाम पर इन सपनों के पीछे भागते कोल्हू के बैल बन जाते हैं, स्वार्थ में अंधे होकर न जाने कितने अनुचित काम करते हुए अपने को गिराते हैं, अपने किए को उचित सिद्ध करने के लिए व्यावसायिकता की परिभाषाएँ गढ़ते हैं, बाज़ारी नीतियाँ गढ़ते हैं, फिर किसी दिन यह गढ़न टूटती है, अतृप्ति की थकावट से चूर आत्मा पूछती है, “क्या तुम सच ही मनुष्य बनकर जिए ? और हम कहते हैं... ”सफल मनुष्य बनने के लिए यह सब करना ज़रूरी था... "
...और भीतर कहीं कोई ठठा कर हँस पड़ता है।
हम सब ही तो अगले सोपान पर चढ़ने के लिए भाग रहे हैं दिन-रात, एक दूसरे को धकियाते हुए और समाज के इस सारे चक्रव्यूह को तोड़कर यह आबनूसी औरत कहती है कि मैं केवल मनुष्य की तरह जीना चाहती हूँ? यह औरत जो नर्स थी, अब नर्स नहीं होना चाहती? लोगों के मल-मूत्र साफ़ कर, उनकी बीमार देहों को नहलाकर, उनके जूठे बर्तन माँजकर, उनके दवाई की बदबू में लिपटे, घाव के पसों से सने गंदे कपड़े धोकर, उनके चिड़चिड़ेपन से भरी झिड़कियाँ सुनकर शेष जीवन बिता देना चाहती है ? आखिर क्यों? कोई इस चक्रव्यूह से ऐसी आसानी से निकलकर अपने को अलग और ऊँचा कैसे घोषित कर सकता है? मेरी बुद्धि और भाव अहंकार से दपदपा उठे।
गंभीर स्वर में बोली, “वह सब तो ठीक, पर तुमने भविष्य के बारे कुछ नहीं सोचा? क्या तुम आगे नहीं बढ़ना चाहती? कुछ और नहीं होना चाहतीं?"
मेरे अधिकारीपने का उस पर उल्टा असर हुआ। वह लज्जित होने की बजाय अपने नकली बालों को झटका देकर सीधी बैठ गई।
"नहीं, मैं आगे नहीं बढ़ना चाहती, कुछ होना नहीं चाहती। “पर्सनल सपोर्ट वर्कर”बनना चाहती थी, बन गई। क्या आपकी कंपनी के लिए यह काफ़ी नहीं है? मेरा स्कूल का अनुभव और अपनी माँ के साथ का अनुभव मुझॆ इस कार्य में सफल बनाएगा, मैं आपको विश्वास दिला सकती हूँ।"बोलते -बोलते वह हाँफने लगी थी।
"नहीं मैं तुम्हारे अनुभव पर संदेह नहीं कर रही... . पर यह तो स्वाभाविक ही है कि आदमी आगे बढ़े।”मेरी आवाज़ उसमें कोई सेंध न लगा पाने के कारण मेरे पास ही थककर लौट आई थी।
यह इंटर्व्यू मेरे लिए एक पहेली बनता जा रहा था। वरना इतने सालों में वही घिसे हुए से प्रश्न होते थे और वही नपे-तुले जबाब। मेरे सवाल अब भी वही थे पर उसके पास नए उत्तर थे, वे उत्तर जिनकी मैंने आशा नहीं की थी!वह शायद कुछ तीखा कहने जा रही थी;पर अपनी स्थिति को यादकर सँभल गई। बोली, “पिछले कुछ वर्षों में आगे बढ़ी हुई ज़िन्दगी को बार-बार पीछे पलटते देखा है मैंने। जीवन में सब कुछ होकर भी ना-कुछ होते हुए देखा है; इसलिए अब कुछ होने, करने की इच्छा शेष नहीं रह गई है। मेरे इन भावों को आप अपनी भाषा में कोई नाम देना चाहें तो दे सकती हैं;पर माँ के जीवन और मृत्यु ने मेरे भीतर बहुत कुछ बदल दिया है।”वो क्षण भर रुकी जैसे इस निर्णय पर पहुँच रही हो कि अब अपनी कहानी का कुछ हिस्सा खोले बिना नौकरी की बात आगे नहीं बढ़ेगी।
एक लंबी साँस लेकर उसने बात फिर शुरू की, "उसने मेरे लिए बहुत से सपने बुने थे, मुझॆ ज़बर्दस्ती "कम्पाला”भेजा, नर्सिंग का कोर्स करने। वो मुझॆ डॉक्टर बनाना चाहती थी और मैं इस के लिए तैयार नहीं होती थी। उसने बहला-फुसलाकर ही नर्सिंग कोर्स कराया; क्योंकि उसे उम्मीद थी कि एक बार मैं यह कोर्स करूँगी ,तो मुझॆ ‘मेडिकल’ क्षेत्र में रुचि होने लगेगी। वह डॉक्टरों की कमी से बहुत परेशान हुआ करती थी। “वह फिर उन दिनों में खोने लगी थी...
“फिर तुमने क्या डॉक्टरी की पढ़ाई की?”मैंने पूछा
“नहीं, उसकी योजना चल नहीं पाई”वह फीकी सी मुस्कुरा दी।
“क्यों, तुमको उसकी योजना समझ आ गई थी क्या?”मैंने वातावरण को हल्का करते हुए मज़ाक किया।
“नहीं, वह भी नहीं था। वह बहुत सब्र वाली महिला थीं और अपनी बहुत-सी बातें मन की पेटी में ऐसे छुपाकर रखती थीं कि उसकी योजनाओं को कोई नहीं समझ पाता था;पर निश्चित समय पर सही कदम उठाकर वह हम सब घर वालों को हैरान कर देती थी। पर इस बार उसका सोचा हुआ भी पूरा नहीं हुआ है। उसके बाद से उसका सोचा हुआ कुछ भी पूरा नहीं हुआ। तभी तो सोचती हूँ कि योजनाएँ बनाने से भी क्या होता है ! मेरी माँ अपने देश में ही रहना चाहती थी और वहीं मरना चाहती थी; पर उसका सोचा हुआ कहाँ पूरा हुआ ! युगांडा और तंजानिया के युद्ध ने हमें अपने गाँव ‘मसक्का’ से निकाल दिया, ‘लूले’ नाम ने हमें कहाँ-कहाँ नहीं भटकाया”मेरी आँखों के सवाल को पढ़ते हुए उसने स्पष्ट किया, “परिवार के एक सदस्य तत्कालीन शासक ईदी अमीन से लड़ने वाली “यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट”में सक्रिय थे, अत: उन्हें पकड़ न पाने पर उनके घर वालों को पकड़कर उन पर अत्याचार करने की कहानियाँ मेरे परिवार के प्रत्येक सदस्य से आप सुन सकती हैं। माँ भी राजनैतिक कार्यवाहियों में सक्रिय थी, यह मैं अभी जान पाई। मैं तो ’कम्पाला’ रहती थी सो यह सब कैसे जानती... . भागने के दिनों में थोड़ा-सा बताया था उसने, बस... . "
अब वह जैसे अपने से बात करने लगी... ”सारा जीवन मैं उसे गाँव की सीधी, सरल औरत समझती रही... . सोचती थी कि उस के दिमाग में मेरी और मेरे भाई की चिन्ताओं और योजनाओं के अलावा कुछ और है ही नहीं ! वह हमारी सुरक्षा के लिए ही परेशान है। पिता का देहान्त बहुत पहले हो गया था; इसलिए उसका हमारे बारे में चिन्ता करना स्वाभाविक ही था पर मुझॆ क्या पता था कि उसके दिमाग में देश की सुरक्षा की चिन्ता घूम रही थी, देश को ईदी अमीन से छुड़ाने और सुरक्षित करने की योजनाएँ पल रहीं थीं... . ! हम सोचते थे कि वह हमारे बिना अकेली रह जाती होगी;पर मुझॆ नहीं पता था कि वह कितने बड़े समूह से जुड़ी उनके लिए काम करती है। हम जीवन भर इस भ्रम में रहते हैं कि हम कम से कम अपने, बिल्कुल अपनों को तो जानते हैं ,पर सब भ्रम ही है।”उसकी नज़रें मुझॆ जीवन का रहस्य बताते हुए मुझ पर गड़ गईं। गहरी साँस लेकर वह बोली... . ”हमें सीमा पार करके भागने में जो मुश्किलें आईं , उनके बारे में यहाँ सुरक्षित बैठे हुए कल्पना करना भी असंभव है, कोई सोच भी नहीं सकता। शायद इसीलिए वह छुपकर काम करती थी कि कल को कहीं हम पर कोई आँच न आए। यहाँ बैठकर यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो सकता है कि जब आप डर का माहौल क्या होता है, ऐसे में किसी पर भी विश्वास करना कितना मुश्किल होता है। हमें शक़ करने की आदत हो जाती है !”वह बोलते -बोलते फिर ठिठकी।
-बाद में तो वह मुझॆ पहचानती भी नहीं थी, न कभी आवाज़ देती थी... बस अजाने से नाम पुकारती... अजानी बातें करती... . सारे जीवन मेरे साथ रहकर भी मेरे साथ नहीं थी वह... भला हो उसके रोग का, जो मैं उस को कुछ जान पाई वरना कहाँ जान पाती कि मेरी माँ... . ”अपने वाक्य को अधूरा छोड़कर वह अपनी नम आँखों को झुठलाती हुई-सी हँस पड़ी। बात समाप्त करने की मुद्रा में बोली, “अब आप बताइए कि अपनी ऐसी माँ के लिए मैं गर्व करूँ या शोक ? जीवन के इस उतार-चढ़ाव को देख कर हँसूँ या रोऊँ?, मुझॆ हँसना अच्छा लगता है ,सो वही करने की चेष्टा करती हूँ। जीवन के हर हाल में हँस सकने की चेष्टा !!”
मैं उस की कहानी से सम्मोहित -सी बैठी थी, तुरंत कुछ कह नहीं पाई। वह अपनी बात सुना सकने के लिए धन्यवाद देते हुए उठने लगी... ”नौकरी तो अब आप मुझॆ देंगी नहीं... . आप का इतना समय नष्ट किया, माफ कीजिएगा।"
"पर नौकरी देने का फैसला तो मेरा है, यह निर्णय तुमने कैसे ले लिया? और रही बात समय की... . तो हर अच्छी कंपनी, अपने कर्मचारियों और आवेदनकर्ताओं से अच्छे संबंध बनाने और उन्हें जानने की चेष्टा करती है। मैं तुम्हें आवश्यक कार्यवाही करके सूचित करूँगी;परंतु आसार अच्छे ही हैं, तुममें योग्यता और क्षमता, दोनों ही दिखाई देते हैं।”कहती हुई मैं भी कुर्सी से उठ खड़ी हुई।
दरवाज़े तक उसे छोड़कर मैं पलटने ही वाली थी कि कुछ याद आने से ठिठककर रुक गई... मुझॆ रुकता देखकर शार्त्र भी रुक गई, उस की आँखों में प्रश्न था।
"तुम्हारे सबसे पहले प्रश्न का उत्तर देना तो भूले ही जा रही थी... तुम सचमुच शार्त्र... . यानी खुश हो... . क्योंकि तुम जीवन के प्राप्य को आदर देती हो।”मेरी बात सुन वह मुस्कुरा दी। उसकी आँखों की चमक जैसे दुगुनी हो गई। ऐसा लगा जैसे आबनूसी रंग के बीच उजाले का कोई झरना बह निकला हो ॥