शालोम ब्रू / अनुजीत इक़बाल
धर्मकोट की उस शांत पहाड़ी पर, जहां बादल अक्सर चीड़ और देवदार के पेड़ों से लिपट जाते हैं, एक छोटा-सा कैफे था। बाहर एक साधारण-सा बोर्ड टंगा था, ‘शालोम ब्रू’। कैफे की खिड़कियों से दिखाई देता हिमालय मानो जीवन के अनुभवों की एक खुली किताब हो। पहाड़ों की हर परत किसी अध्याय की तरह प्रतीत होती, कुछ हल्के, कुछ गहरे, और कुछ रहस्यमयी। जैसे किताबें अपने भीतर अनगिनत कहानियां और ज्ञान समेटे होती हैं, वैसे ही ये पहाड़। हर मोड़, हर घाटी और हर शिखर मानो जीवन का कोई नया पाठ सिखाने के लिए तत्पर हो।
कैफे के भीतर की दीवारें किताबों से भरी थीं, यहां वर्ड्सवर्थ, जॉन कीट्स, इलियट, लॉर्ड बायरन, व्हिटमैन, टॉल्स्टॉय, वर्जीनिया वुल्फ, शेक्सपीयर, जेन ऑस्टिन, खलील जिब्रान, टैगोर। किताबों के साथ हल्के संगीत का माहौल था, कभी इजरायली किनोर धुनें, कभी मिडल ईस्ट औद की रहस्यमय गूंज, तो कभी जापानी कोतो की मधुर तान।
कैफे में घुसते ही ताजा पीसी हुई कॉफी की खुशबू सांसों में घुल जाती। गर्म कॉफी के साथ ताजे बेक किए हुए क्वासों और पेन औ’ चॉकलेट की मीठी महक वहां की हवा में रची-बसी रहती। एक कोने में देसी मसालों से महकता हुआ कैरेट और अखरोट का केक और पिसी हुई दालचीनी के साथ गर्म सॉरडो ब्रेड के लोफ। पास ही एप्पल पाई, चीजकेक और मैकरॉन्स की सजी हुई ट्रे, तो दूसरी ओर टार्ट्स और ब्रियोश बन्स की नरम सुगंध हर किसी को लुभा लेती।
अवंतिका जी, इस कैफे की मालकिन जो करीब उनसठ की उम्र में किसी शांत झील-सी लगती थीं। सफेद बाल जूड़े में सहेजे रहतीं, लंबा कद और भूरी-सी आंखें, जिनमें एक गहरी थकान-सी नजर आती थी। उनकी चाल धीमी थी, मानो वह वर्षों का अकेलापन अपने कदमों में लेकर चल रही हों। वह अपने कैफे को बहुत लगाव से संभालती थीं। उनके हाथों की बनाई फ्रेंच प्रेस कॉफी यहां की पहचान थी। कभी-कभी वह ग्राहकों के साथ, जिनमें ज्यादातर युवा थे, बैठकर चाय-कॉफी के प्यालों के संग किताबों, संगीत और जीवन पर चर्चा करतीं।
उनके कैफे का हर कोना उनके व्यक्तित्व की तरह सरल, लेकिन गहराई लिए हुए था। कैफे का माहौल ऐसा था, मानो हिमालय के इस शांत कोने में समय ठहर गया हो।
वह लखनऊ से यहां आई थीं। वही लखनऊ, जहां की हवाओं में गंगा-जमुनी तहजीब घुली हुई थी। चौक की गलियों से उठती गुलाबों की खुशबू, रूमी दरवाजे की भव्यता और नवाबी दौर के किस्सों से सजी शामें। जहां मुगलई खाने की खुशबू, गुलाबी चाय और रेवड़ी मिलकर शहर की रूह को मिठास से भर देती थी। लेकिन अवंतिका जी का जीवन इस मिठास से कोसों दूर था। एक तीन कमरों के फ्लैट में उनका पूरा संसार सिमटकर रह गया था। जब पढ़-लिख कर अंग्रेजी की प्रोफेसर बनीं तो पिता का साया सिर से उठ गया और मां डिमेंशिया से जूझ रही थीं। अवंतिका जी इकलौती संतान थीं। उनकी पूरी जिंदगी मां की सेवा में गुजर गई, बाद में मां भी चल बसी और अवंतिका जी अकेली रह गईं।
उनके भीतर एक और जीवन छुपा था, सपनों से भरा, संभावनाओं से लबालब लेकिन वह जीवन उनके भीतर घुटता रहा। अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को उन्होंने इस कदर दबा दिया था कि मानो उनका अस्तित्व ही मिट गया हो।
लखनऊ की मिट्टी ने अवंतिका को बहुत कुछ दिया था। उनके विद्यार्थियों का निश्छल प्रेम, संगीत और लेखन के प्रति अद्भुत लगाव। उनके व्यक्तित्व में जो सादगी और गहराई थी, वह इसी शहर की देन थी। अंग्रेजी साहित्य के अनुवाद में उनका योगदान उल्लेखनीय था।
एक बार उनके एक सहकर्मी ने उनसे बड़े ही सहज भाव से पूछा था, ‘अवंतिका, आप शादी क्यों नहीं करतीं?’
अवंतिका ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया था, ‘कुछ लोग अकेले ही पूरे होते हैं।’
यह जवाब सुनने वालों को गहराई से सोचने पर मजबूर कर देता था, पर उनके भीतर का सच इससे बहुत अलग था। वह जानती थीं कि यह पूरा होने का एहसास महज एक आवरण था। उनकी मां के जाने के बाद, लखनऊ के उस छोटे-से फ्लैट में वह अकेली रह गई थीं। कमरों का सन्नाटा उनकी आत्मा के भीतर तक गूंजने लगा।
कभी-कभी रात के अंधेरे में, जब पूरा शहर गहरी नींद में डूबा होता, वह अपनी डायरी लेकर बैठतीं। पन्नों पर शब्द उतरते जाते, जैसे वे उनका साथ निभाने आए हों। पर वह जानती थीं, शब्दों का सहारा स्थायी नहीं होता। उनका अकेलापन कभी-कभी इतना गहरा हो जाता कि वह खुद को एक अनजान शून्य में तैरते हुए पातीं। अवंतिका जी का जीवन उस अधूरेपन की दास्तान था, जो बाहर से संपूर्ण दिखता था, पर भीतर से एक खामोश पुकार बनकर रह जाता था।
स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद जब लखनऊ में रहना असंभव हो गया, तो उन्होंने सब कुछ बेच कर हिमाचल में धर्मकोट का रुख किया, क्योंकि वे अक्सर यहां आती रही थीं, कभी स्टूडेंट्स के साथ या कभी अकेले। यहां उन्होंने लोकल दोस्तों की सहायता से ‘शालोम ब्रू’ कैफे खोला, जिसका अर्थ था शांति की कॉफी। अवंतिका जी ने दो तिब्बती सहायिकाओं को रखा, ताशी और पेमा, जो न सिर्फ अपनी मेहनत से कैफे को सजीव रखती थीं, बल्कि दोनों की खासियत थी विदेशी बेक्ड चीजों में महारत। ताशी के हाथों में जैसे किसी जादू की छड़ी हो, जो मैडेलीन और कैनले को बिलकुल वही स्वाद देती थी, जिसे लोग यूरोप में खाते हैं। पेमा की बेकिंग में ताजगी और सादगी का संगम था। उसकी तैयार की हुई टार्ट टैटिन और अमारेती कुकीज हमेशा ताजगी से भरी होती थीं। अवंतिका जी को गर्व था कि उसने इन दोनों के साथ मिलकर अपने कैफे को न केवल लोकल संस्कृति से जोड़ा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय फ्लेवर भी वहां लाया।
यह जगह कॉफी और साहित्य प्रेमियों के लिए एक ठिकाना थी। कैफे में आने वाले लोग अक्सर किताबें पढ़ते, जीवन पर चर्चा करते।
अवंतिका का जीवन वहीं ठहर गया था। वह सुबह कैफे खोलतीं, किताबों की अलमारियों को ठीक करतीं और शाम ढलते ही खिड़की के पास बैठ जातीं। जब बाहर पहाड़ों की पगडंडियां अंधेरे में खो जातीं, ताशी और पेमा कैफे बंद करके चली जाती तो अवंतिका वापस अपने कमरे में आ जाती, जो कैफे के ऊपर था।
दिसंबर की एक ऐसी ही शाम में अवंतिका काउंटर के पीछे बैठी, पाब्लो नेरुदा की प्रेम कविताओं की किताब में खोई हुई थी। इजरायली संगीत बज रहा था। दरवाजा खुला, और भीतर एक लंबा, दुबला–पतला लगभग साठ–पैंसठ वर्ष का व्यक्ति दाखिल हुआ। सफेद बाल हवा से बिखरे हुए थे, कमर थोड़ी झुकी, तीखी और सीधी नाक लेकिन उसकी आंखों में ऐसा गहरापन था जो पहली नजर में ही खिंचाव पैदा कर दे।
उसने साधारण-सी हिंदी में पूछा, ‘क्या यहां बैठ सकता हूँ?’
अवंतिका ने चौंककर सिर हिलाया। वह विदेशी था, लेकिन उसकी हिंदी आत्मीय और सहज थी।
‘अच्छी जगह है’, उसने मुस्कुराते हुए कहा।
‘क्या इसे आपने बनाया है?’
‘हां, अवंतिका ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया।
‘मैं डैनियल हूँ’, उसने हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘इजराइल से, लेकिन अब तो भारत मेरा घर है। हिमालय और आध्यात्म ने मुझे यहां रोक लिया है।’
अवंतिका डैनियल को ध्यान से देख रही थीं, उसका व्यक्तित्व उसके यहूदी होने की पहचान करवा रहा था।
डैनियल की नजर कोने में रखी किताबों की अलमारी पर पड़ी। वह धीरे-धीरे वहां गया, जैसे किसी पुराने मित्र से मिलने। उसकी उंगलियां किताबों के पन्नों को छूते हुए ठहर गईं। उसने मुड़कर पूछा, ‘क्या मैं इसे पढ़ सकता हूँ?’
अवंतिका ने हामी भरी, लेकिन उनकी नजरें डैनियल के चेहरे पर टिक गई थीं। एक अजनबी होकर भी वह इतना परिचित क्यों लग रहा था?
डैनियल : ‘यहाँ कैफे में कोई इजरायली संगीत चल रहा है लेकिन कोई वहां की डिश भी हो, तो बताइए।’
अवंतिका : ‘जैसे हलवा, बाबका या बोरका?’
डैनियल : (चौंककर) ‘आपने बोरका का नाम लिया? अद्भुत! क्या आपके पास है?’
अवंतिका : (हँसते हुए) ‘जी, है।’
डैनियल : (गर्मजोशी से) ‘बस एक कॉफी और बोरका।’
अवंतिका ने हल्की मुस्कान के साथ उसकी पसंद का ध्यान रखते हुए कॉफी और ताजा डिश टेबल पर रखवा दी। दोनों में खूब बातचीत हुई। डैनियल ने अपनी उंगलियों में कॉफी के कप को थामा और पहली चुस्की लेते ही उसकी आंखों में एक अपरिचित चमक उभरी और उसने अवंतिका को ध्यान से देखा। अवंतिका ने यह देखा, चुपचाप अपनी दृष्टि खिड़की के पार मोड़ ली। दोनों के बीच की बातचीत सहज, निश्छल, और अप्रत्याशित थी। डैनियल की आवाज में कहीं दूर की वादियों की गूंज थी और अवंतिका के शब्दों में उस घाटी की चुप्पी, जो उसे सुन रही थी। वह उसकी कहानियों को सुनती रहीं। सुदूर देशों की बातें, समुद्रों के विस्तार, और उन जगहों का जिक्र, जिनका रंग और रूप उन्होंने केवल कल्पना में महसूस किया था।
सारी शाम में डैनियल तीन कप कॉफी पी गया। तीसरे कप के बाद वह हँसते हुए बोला, ‘आपकी कॉफी में ऐसा क्या है, जो मैं खुद को रोक नहीं पा रहा?’
यह पहली शाम थी- बातों की शुरुआत का पहला स्वाद। डैनियल की आंखों में उनकी तरफ देखने का ढंग, उनकी हर बात को सुनने का धैर्य, और उसके उत्तरों में उस खास ठहराव का स्पर्श… यह सब अवंतिका के लिए किसी अधूरे गीत की तरह था।
सर्दियों की वह शाम जैसे दोनों के बीच कोई अनकही बात लिख रही थी। शायद यह शुरुआत थी, उस कहानी की जो समय के साथ पन्ना दर पन्ना खुलने वाली थी।
अगले दिन अवंतिका को कैफे के काउंटर पर सफेद गुलाब रखा मिला। जिसके कार्ड पर डैनियल का नाम लिखा था। यह सिलसिला अब रोज का हो गया था। वह कोई पत्र नहीं लिखता, शब्दों की जगह फूल छोड़ जाता, जो कहने से ज्यादा अनकहा कह जाते।
फूलों को वह अच्छे से सहेज कर रख लेती और महसूस करती कि यह प्रतीक्षा, यह मौन ही उनका संवाद है।
सर्दियों के दिन अब जैसे अपनी एक नई लय में ढलने लगे थे। कैफे शालोम ब्रू की टेबल, जो पहले एक अजनबी कोने की तरह थी, अब डैनियल के लिए एक परिचित ठिकाना बन गई थी। वह नियमित आगंतुक बन गया था और उसे अब कभी ऑर्डर देने की जरूरत नहीं पड़ती थी। अवंतिका उसकी पसंद जान चुकी थी। कॉफी के साथ एक प्लेट में स्ट्रॉबेरी टार्ट, कभी एप्पल स्ट्रूडेल और कभी लेमन मैरिंग पाई।
डैनियल जब भी आता, वह खिड़की के पास वाली अपनी पसंदीदा सीट पर बैठता। बाहर, पहाड़ियों से उतरती ठंडी हवा और भीतर कॉफी और बेक्ड चीजों की महक का मेल जैसे किसी पुराने संगीत का सुर ताल। अवंतिका की नजर हमेशा उसकी तरफ होती, पर यह नजरें चुप्पी के भीतर छुपी बातें कहती थीं।
‘आज क्या है?’ डैनियल मुस्कुराते हुए पूछता।
अवंतिका मुस्कुराते हुए प्लेट उसके सामने रख देती जिन में कभी पाइन नट्स और कभी हनी टार्ट होता।
डैनियल पहला निवाला लेता और उसकी आंखों में चमक आ जाती और वह अवंतिका को प्रेम से देखता।
उनके बीच की बातचीत जैसे धीमी आंच पर सिंकते इजरायली चल्लाह ब्रेड का स्वाद, हर शब्द, हर बात में सौंधी मिठास, जो मन के भीतर तक उतर जाती थी।
डैनियल अपनी यात्राओं के किस्से सुनाता और अवंतिका कभी उसकी बातों में खो जाती, तो कभी उसकी कहानियों के किसी अनकहे हिस्से को टटोलती। दोनों के बीच यह संवाद जैसे किसी अनगढ़ कविता का रूप ले रहे थे।
शामें यूं ही बीतने लगीं। डैनियल के लिए यह कैफे अब केवल एक जगह नहीं, बल्कि एक अनुभव बन चुका था और अवंतिका के लिए, हर डिश जो वह उसके लिए परोसती, जैसे किसी अनकही भावना का इजहार थी। खिड़की के बाहर धुंध के पार छुपी घाटियां और भीतर की इस कहानी में एक अनजानी समानता थी। दोनों अपनी गहराई में किसी को खींच लेने की ताकत रखती थीं।
वह हर बार नई कहानियां अवंतिका को सुनाता, उसकी अपनी यात्राओं की कहानियां। उसने जवानी के दिनों में दो बार माउंट एवरेस्ट फतह की थी। इसके इलावा कंचनजंगा, किलिमंजारो, मकालू आदि की यात्राएं वह अनंत बार कर चुका था। माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई करने वाले पहले इजरायली व्यक्ति डोरोन एरन से प्रभावित होकर उसने जीवन भर यायावरी को ही अपना धर्म बना लिया था। परिवार बसाने का ख्याल कभी उसकी प्राथमिकताओं में नहीं रहा। जवानी के दिनों की कुछ अधूरी प्रेम कहानियां उसने अवंतिका को सुनाई थीं, जो कभी अपने मुकाम तक नहीं पहुंच सकीं। अपनी घुमक्कड़ी के साथ वह हर बार अकेला ही चलता रहा, मानो उसकी सच्ची जीवन संगिनी उसकी यात्रा ही हो। उसका ज्यादातर वक्त यहां धर्मकोट या कसोल में बीतता। जहां उसके देश के अन्य लोग भारतीय जीवन में रचे-बसे थे। वह गले में एक चेन डाले रहता था जिसमें एक हंसा के डिजाइन वाली अंगूठी होती थी।
अवंतिका रोज उसका इंतजार करती और उसके पास बैठ कर उसकी यात्राओं के बारे में सुनती रहती। उतनी देर कैफे को ताशी और पेमा संभालतीं।
एक दिन अवंतिका ने साहस करके पूछा, ‘यह हंसा वाली अंगूठी जो आपने गले में पहनी है… इसकी क्या कहानी है?’
डैनियल ने क्षणभर अंगूठी को देखा जैसे कोई पुरानी स्मृति का द्वार खुला हो। उसकी आवाज धीमी और गहरी हो गई। ‘यह मेरी मां की थी। जब मैं छोटा था, वह इसे पहनकर कहती थीं, हंसा आत्मा का दूत है। यह हर तूफान में सही दिशा दिखाएगा।’
डैनियल कुछ पल रुका, फिर कहा, ‘मां अब नहीं हैं। लेकिन इस अंगूठी में उनका स्पर्श बचा है। कभी-कभी लगता है, यह मुझे उनके पास वापस ले जाएगी।’
अवंतिका ने चुपचाप उस अंगूठी को देखा। उसमें जैसे मां की याद की एक अनकही कहानी जीवित थी।
शालोम ब्रू में अवंतिका और डैनियल एक अदृश्य पुल के दोनों किनारों पर खड़े यात्री थे, जैसे किसी अंतरिक्षीय यात्रा पर निकले हों, समय और स्थान के बंधन से मुक्त। अवंतिका का चेहरा, जो हमेशा अपने भीतर की गहरी सोच को ढके रहता था, अब हल्का हो रहा था, वह उनसठ की उम्र में, फिर से युवावस्था की ताजगी को महसूस कर रही थी जैसे शरीर और आत्मा ने समय की सीमाओं को पार कर लिया हो। वे दोनों एक अदृश्य राग में बंधे हुए थे। वह राग न किसी शब्दों में समाया था, न किसी ध्वनि में। वह बस एक अनुभव था। डैनियल का उनके जीवन में आना सिर्फ एक संयोग नहीं था, बल्कि एक चेतना की जागृति थी। जहां कोई सोच नहीं थी। कोई भविष्य नहीं था। बस वर्तमान का एक संगीत था, जो भीतर से बाहर और बाहर से भीतर बह रहा था।
एक शाम वे दोनों पहाड़ की चोटी पर खड़े थे। सामने धौलाधार का बर्फ से ढका विस्तार था जैसे उस पहाड़ ने अपनी आत्मा के सच्चे रंगों को शांतिपूर्वक आच्छादित कर लिया हो। चांदनी जब बर्फ पर गिरती, तो पूरा इलाका एक दिव्य आभा में डूबा प्रतीत होता। ठंडी हवा देवदार और बांज के वृक्षों के बीच से गुजरती हुई ऐसे महसूस हो रही थी जैसे कोई अदृश्य बांसुरी बजा रही हो। कहीं दूर हिमालयन मॉनाल पक्षियों की स्वर लहरियां सुनाई दे रही थीं। नीचे की पहाड़ी से मोनेस्ट्री से हल्का धुआं उठ रहा था जैसे पर्वतों की गहरी चुप्पी में कुछ अज्ञेय विचार ऊपर उठ रहे हों।
डैनियल ने धीरे से कहा, ‘क्या आपने सुना? ये हवा, ये पक्षी… ये पेड़ों की फुसफुसाहट… सब अपनी कहानी कह रहे हैं।’
अवंतिका ने उस वक्त महसूस किया कि पहाड़ का मौन सचमुच मौन नहीं था। वह एक अदृश्य गीत था। एक सुंदर कविता।
अवंतिका की आंखें, जो दूर किसी काल्पनिक संसार में खोई हुई थीं, वापस डैनियल की तरफ लौट आईं।
उन्होंने धीरे से कहा, ‘डैनियल… सुनिए, एक कविता है।’
उन्होंने बिना किसी तैयारी के सहज ही पाब्लो नेरुदा की कविता सुनानी शुरू की।
‘मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, यह जाने बिना कि कैसे, कब, या कहां/मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, बिना किसी जटिलता या गर्व के/निश्चल, निष्कपट प्रेम…/क्योंकि मुझे पता है/इसके अलावा कोई और रास्ता नहीं है…’
उनके शब्द हवा में तैर रहे थे। वह पल जैसे ठहर गया था। दो प्रेमियों का मिलना, बर्फ के पहाड़ों और उन ठंडी हवाओं के बीच, जहां सब कुछ था फिर भी कुछ नहीं था। शब्दों का असर पहाड़ की चुप्पी में गूंज उठा था।
डैनियल उनकी बातें गहरे ध्यान से सुन रहा था और फिर उसने आवाज में एक ठहराव के साथ कहा, ‘नेरुदा तो यह भी कहते हैं- क्या कहते हैं चक्रवातों को, जब वे ठहरे हुए होते हैं?’
अवंतिका उसके शब्दों का अर्थ समझ रही थी जैसे वे उनके अपने अनुभवों की गूंज हो, लेकिन कुछ बोली नहीं। मानो उन शब्दों का उत्तर उनके भीतर गहरे कहीं छिपा हुआ था, जिसे वह शब्दों में नहीं बता सकती थी।
दोनों वापस कैफे की तरफ चल पड़े। चलते-चलते डैनियल एक यहूदी गाना गुनगुना रहा था ‘एरेव शेल शोशनीम, नेत्से ना एल हाबुस्तान…’ जिसका अर्थ उसने अवंतिका को बताया कि यह गुलाबों की शाम है। चलो बगीचे की ओर चलें, जहां सुगंधित फूल और खुशबू हमारी राह को सजाएंगे।
दोनों की आंखें ऐसी थीं जैसे दोनों ही अपने भीतर कुछ अनदेखा खोज रहे हों। उनके गानों और कविताओं में एक नई लय थी जैसे एक दूसरे के पास आना ही था, बिना किसी शब्द या सीमा के। दोनों का अकेलापन धीरे-धीरे मिटता जा रहा था जैसे पगडंडी पर चलते हुए वे एक-दूसरे के संग वह खालीपन भर रहे हों, जिसे कभी शब्दों में नहीं बांधा जा सकता था।
अवंतिका ने देखा, डैनियल की आंखों में भी वही नमी थी जो उनके अपने दिल में थी। उनका यह मिलन, यह यात्रा, जैसे एक अदृश्य धागे से बंधी हुई हो। एक बेजुबान समझ जो दोनों के बीच अब एक सहज-सी बात बन गई थी। वह जानती थी या शायद नहीं भी जानती थी कि इस पल के साथ ही इस पहाड़ी रास्ते पर प्यार धीरे-धीरे कदम रखते हुए दस्तक दे रहा था। जैसे उनके बीच कुछ अनकहा था, जो धीरे-धीरे अब शब्दों में तब्दील हो रहा था। विशुद्ध प्यार, जो अभी तक दबे पांव आ रहा था, अब अपना रूप लेने को लगभग तैयार था। वे दोनों अकेले होते हुए भी किसी और ही जगह, किसी और ही समय में मौजूद थे, पैरेलल युनिवर्स में शायद।
समय आगे बढ़ रहा था और उनका अनकहा प्यार भी। फरवरी की बर्फबारी की उस शांत और सर्द शाम, जब धर्मकोट को बर्फ ने अपनी आगोश में लेकर उसकी गति को शांत कर दिया था, अवंतिका अकेली कैफे में बैठी हुईं थी। खिड़की से गिरती हुई बर्फ को देख रही थी। उनकी दृष्टि में एक अधूरी प्रतीक्षा थी, एक अनकहा आह्वान। शायद उनको किसी का इंतजार था। फिर अचानक दरवाजे के उस ओर बर्फ की चादर के बीच एक छाया-सी महसूस हुई। दरवाजा खुला और डैनियल का चेहरा, जो सर्द हवाओं और बर्फ के फाहों से नम था, सामने आया। उसकी आंखों में वही हल्की-सी गर्मी थी, जो अवंतिका ने हमेशा महसूस की थी। वह चुपचाप फायरप्लेस के पास जाकर बैठ गया बिना किसी शब्द के। अवंतिका ने बिन कहे उसे फ्रेंच प्रेस कॉफी और बाबरा दिया। बाहर ‘क्लोज्ड’ का साइन टांगा और खुद भी आकर उसके पास बैठ गई।
आज तक वो दोनों भीड़ में मिले थे। जब उन्होंने पहली बार एकांत में एक-दूसरे की आंखों में देखा, तो जैसे सब कुछ ठहर गया। कोई आवाज नहीं, कोई हलचल नहीं। डैनियल ने धीरे से अवंतिका के हाथ को छुआ और उस पल ने दोनों को ऐसे अपनी गिरफ्त में लिया जैसे एक चुप्प सन्नाटा, जो एक-दूसरे के ख्यालों में खो जाने का पैगाम हो। उनके बीच की दूरी जैसे सिमट कर गायब हो गई और वह नाजुक स्पर्श दोनों के दिलों में एक हलचल की तरह महसूस हुआ।
डैनियल ने एक शांत मुस्कान के हंसा के डिजाइन वाली अंगूठी अवंतिका को पहना दी। अंगूठी में हाथ और एक आंख उकेरित थे। अंगूठी न केवल रक्षा का प्रतीक थी, बल्कि एक अनकहा वादा भी, एक सूक्ष्म-सा इशारा था। अपनी मां की अंगूठी किसी को देना, शायद यही एक ऐसा पल होता है, जब शब्द नकारे जाते हैं और भावनाएं अपनी पूरी गहराई में व्यक्त होती हैं।
अवंतिका की आंखों में नमी थी, जो शब्दों से कहीं अधिक कह रही थी। पहली बार उनके दिल में यह एहसास गूंजा कि कोई उनकी आत्मा के उस कोने को देख सकता है, जहां प्यार और स्नेह की तलाश, निराशाओं में खो गई थी।
अवंतिका कुछ संभल कर बोली, ‘डैनियल, तुमने ओब्लिवियन के बारे में सुना है।’
डैनियल : ‘ओब्लिवियन? ये किसी कविता का नाम लगता है।’
अवंतिका : ‘नहीं, यह एक नदी है। कहते हैं, जो भी वहां पहुंचा, उसने अपने सारे दर्द, सारी यादें… सब कुछ भुल दिया।’
डैनियल (मुस्कुराते हुए) : ‘और यह नदी कहां मिलती है?’
अवंतिका : ‘यही तो रहस्य है। इसका रास्ता कोई नहीं जानता। ये किसी नक्शे में नहीं है।’
डैनियल (थोड़ा हैरान) : ‘तो लोग वहां पहुंचते कैसे हैं?’
अवंतिका (धीमे स्वर में) : ‘शायद खोजने से नहीं, बुलाने से। जिसने भी उसे पाया, उसने उसकी धारा में डुबकी लगाई… या उसका जल पिया… फिर, वो हर दुख, हर कसक से मुक्त हो गया।’
डैनियल (सोचते हुए) : ‘हर दुख? क्या ये सच है?’
अवंतिका (आंखों में गहराई लिए) : ‘हां, डैनियल। यहां तक कि वह प्यास भी मिट जाती है, जो जन्म-जन्मांतर से इंसान के साथ चलती है।’
डैनियल (धीरे से) : ‘ये नदी की बात नहीं कर रहीं हैं आप।’
अवंतिका (मुस्कुराकर) : ‘तो तुम समझ गए।’
डैनियल (आंखें मूंदते हुए) : ‘तो क्या आपको वह नदी मिल गई अवंतिका?’
अवंतिका : ‘शायद नदी ने खुद मुझे बुला लिया।’
बर्फ़ गिरती रही, फ़ायरप्लेस जलता रहा और कैफ़े की पीली रोशनी में गूँजती जैज म्यूजिक की धुन, यह सब जैसे समय की धारा को रोककर उन्हें एक साथ समेट लेना चाहता हो। वे दोनों एक-दूसरे के क़रीब बैठे रहे, पूरी दुनिया से बेख़बर और उस पल में उनके बीच केवल एक ही सच था एक-दूसरे के प्रेम का एहसास, जिसे केवल वायु, अग्नि और हिम ही समझ सकते थे। प्रकृति जैसे श्वास रोक उस क्षण की साक्षी बन रही थी।
इस रिश्ते का क्या भविष्य था? दोनों में से कोई भी नहीं जानता था। प्रेम भविष्य नहीं देखता, वह, बस, वर्तमान में होता है। वह सिर्फ़ उस पल की सच्चाई है, जो हम जीते हैं। उम्र और समय, ये सब प्रेम के रास्ते में रुकावट नहीं डाल सकते। यह तो एक मुक्त प्रवाह है, जो किसी भी बन्धन से परे हमारी आत्मा को सम्पूर्ण करता है।
अवंतिका ने अपने सपनों का संसार पा लिया था, क्योंकि वह जान चुकी थी कि प्रेम वही है जो बिना किसी अपेक्षा के, बस, होता है। वह प्रेम में खो गई, उस शुद्ध प्रेम में, जो उम्र, समय, देशकाल, धर्म और परिस्थितियों से परे था। एक निर्वाण, जहाँ बीती हुई यादें नहीं थीं, न भविष्य की चिन्ता। दोनों वर्तमान में, यहीं और अब, खोए हुए थे।
शालोम ब्रू के भीतर दोनों प्रेमी उस क्षण में पूरी सृष्टि को समेटे हुए थे।
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