शास्त्रों का अध्ययन / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
अपारनाथ मठ में ही संस्कृत पाठशाला थी। उसमें व्याकरण, न्याय, वेदांतादि सभी विषयों की पढ़ाई होती थी। हमने सोचा कि बिना व्याकरण अच्छी तरह पढ़े दर्शनों के पढ़ने में मजा न आएगा। इसलिए उसे ही शुरू करने का निर्णय किया। सो भी लघुसिद्धांत कौमुदी तो कुछ पढ़ी चुके थे। संस्कृत का बोध भी अच्छा था। इसलिए सिद्धांत कौमुदी आरंभ किया। उस समय श्री हरिनारायण त्रिपाठी उपनाम तिवारी जी की ख्याति कौमुदी पढ़ाने में काशी में सर्वोपरि थी। सौभाग्यवश अपारनाथ में वही पढ़ाते थे। फिर तो सोने में सुगंध मिली और हमने खूब मनोयोगपूर्वक उसे पढ़ना शुरू किया। उसकी फक्किकाओं और कठिन स्थलों को हृदयंगम किया। उसके कई पाठ वहाँ होते थे। मैं सभी सुनता था और जो बातें तिवारी जी बताते थे एक-एक कर के सभी लिख लेता था डेरे पर जा कर। इस प्रकार एक लंबा और मोटा नोटबुक तैयार हो गया। वह छात्रों के बहुत ही काम का था। पीछे एक छात्रा ने ही अपने अभ्यास के लिए उसे लिया और मैं उससे वापस लेना भूल गया। फलत: वह नोटबुक गायब हो गया। नहीं तो सिद्धांत कौमुदी की वह सुंदर टीका होती और छपा दी जाती।
सन 1911 ई. के मध्य तक मैंने सिद्धांत कौमुदी पढ़ डाली। लोग कहा करते हैं कि कौमुदी पढ़ने के लिए तो बारह वर्ष का समय चाहिए। छ: वर्ष तो आम तौर से लोग लगाते ही थे। यों पढ़ लेना तो उतना कठिन नहीं। मगर काशी में उसकी पढ़ाई की जो रीति है और विशेष कर तिवारी जी जिस प्रकार उसे पढ़ाते थे उसमें तो ज्यादा समय लगना स्वाभाविक था। पोथी भी तो बहुत बड़ी है। मगर उसके रोज कई पाठ पढ़ने के फलस्वरूप मैंने प्राय: ढाई वर्ष में ही उसे पूरा कर डाला। निस्संदेह तिवारी जी उसकी हर-बात की तहों को खोल देते थे। फलत: सैकड़ों छात्रा सिर्फ उसी का पाठ सुनने के लिए उनके पास जमा हो जाया करते थे।
लेकिन यह नहीं कि मैं केवल कौमुदी के ही पाठ से संतुष्ट रहता। थोड़े ही दिनों के बाद न्याय का भी पाठ आरंभ कर दिया। दोनों साथ-साथ चलने लगे। आगे चल कर जब सिद्धांत कौमुदी के बाद शब्देंदु शेखर, परिभाषेंदु शेखर आदि के पाठ चलने लगे और फिर भूषण, मंजूषा, महाभाष्य का समय भी आया, तो ईधर सांख्य, मीमांसा, वेदांत, योग आदि दर्शनों के भी पाठ मैंने साथ ही शुरू कर दिए। इतना ही नहीं। दिन में समय बचने पर साथ पढ़नेवालों और दूसरों को कौमुदी आदि पढ़ाता भी था। मैंने देखा कि जो मुझसे पूर्व बहुत वर्षों से सिद्धांत कौमुदी पढ़ रहे थे, वही मुझसे भी उसे ही पढ़ने आते थे! मैंने तय कर लिया कि पाँच-सात वर्षों के भीतर दर्शनों का पूरा मंथन कर लेना चाहिए। इसीलिए दिन-रात लगा रहता था। अपने पाठों का अभ्यास दिन में तो कर सकता न था। क्योंकि कई पाठों के पढ़ने और दूसरों को पढ़ाने में ही सारा दिन गुजर जाता था। इसलिए रात में अभ्यास करता था। उस समय नींद न सता सके, इसीलिए समय बचा कर दिन में ही थोड़ा सो लिया करता था। तभी से दिन में सोने की मेरी आदत कुछ ऐसी हो गई कि आज तक छूटी ही नहीं। हालत यह है कि यदि दिन में थोड़ी देर भी न सोऊँ तो दिमाग में बहुत गर्मी सी बनी रहती है और एक प्रकार की सुस्ती तथा बेचैनी मालूम पड़ती है। बारहों महीने दिन में भोजन के बाद जरूर सो लेता हूँ। दिन में सोने को आयुर्वेदवाले बुरा बताते हैं। मगर मेरी तो उलटी गंगा बहती है। शायद पित्त प्रकृतिवालों को दिन में सोना हानिकारक न हो। वरन लाभकारी होता है, ऐसी भी बात है। चाहे जो हो, अनुभव से ही मैं कह सकता हूँ कि दिन की इस संक्षिप्त निद्रा से मुझे तो सदा लाभ ही हुआ है।