शाहआलम / रामचन्द्र शुक्ल

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सन् 1785 के अंत में सहारनपुर का रुहेला सरदार मर गया और उसकी जगह पर उसका लड़का गुलामक़ादिर खाँ, जो बड़ा ही निष्ठुर और उग्र स्वभाव का था, गद्दी पर बैठा। शाहआलम उस समय दिल्ली के तख्त पर थे और महाराज सिंधिया उनके वज़ीर थे। गद्दी पर बैठते ही गुलामक़ादिर ने पहले तो अपने चाचा अफ़ज़ल खाँ को राज्य से निकाल कर उसकी सारी सम्पत्ति जब्त कर ली। इसके पीछे उसने बादशाह की अवज्ञा की और सनद लेने के लिए उसके पास नहीं गया। उसने गौसगढ़ के क़िले को ख़ूब मज़बूत किया और अपने चाचा से छीने हुए धन से सेना बढ़ाई। उसने अपने साथ और दूसरे सरदारों को भी बहकाया कि दिल्ली के बादशाह को कर न दे । पर जब सिंधिया ने दंड देने की तैयारी की तब कर भेज दिया गया। उन दिनों सच पूछिए तो दिल्ली की बादशाहत सिंधिया ही करते थे। उनसे दिल्ली के बहुत से मुगल सरदार कुछ दिनों से बहुत बुरा मानने लगे थे। कारण यह था कि निर्वाह के लिए उन्हें जो जागीरें मिली थीं सब सिंधिया ने निकाल ली थीं। मुगल सरदारों में भीतर ही भीतर बड़ा असंतोष फैला था पर अपने सिर पर मराठो की बड़ी भारी फ़ौज देख कर वे चुँ नहीं कस सकते थे। इसी समय नायब वज़ीरनारायण् दास अपने पद से अलग कर दिए गए और उनकी सारी जायदाद सिंधिया ने ज़ब्त कर ली। इन्हीं सब कामों से सिंधिया के विरुद्द एक भारी दल खड़ा हो रहा था जिसमें बहुत से मुगल सरदार और सेनापति सम्मिलित थे। इसी समय जयनगर के राजा प्रतापसिंह ने भीतर-भीतर मुगल सरदारों से मिल कर खुल्लमखुल्ला अपनी स्वतंत्रता प्रकाशित की। सिंधिया ने उस पर चढ़ाई की। पर ज्यों ही सिंधिया की फ़ौज जयनगर के पास पहुँची मुगल सरदार अपने-अपने सिपाहियों को लेकर बादशाही फ़ौज से अलग हो गए और जयनगर के बलवाइयों से जा मिले। सिंधिया इस बात से ज़रा भी न घबराए और उन्होंने मराठो को लेकर शत्रु पर धावा किया। बलवाइयों का सरदार मोहम्मद बेग गोला लगने से मर गया, पर उसका भतीजा इस्माईल बेग बड़ी धीरता और वीरता के साथ लड़ता रहा । इसी बीच बलवाइयों में और सिपाही आकर मिले जिससे मराठे कुछ ढीले पड़ने लगे। अपना पक्ष निर्बल देख सिंधिया अल्वर होते हुए ग्वालियर चले गए और वहीं से बैठे-बैठे सब हाल-चाल लेते रहे। बलवाई अब दो दलों में बँट गए इस्माईल बेग तो आगरे की ओर बढ़ा और प्रतापसिंह अपनी राजधानी को लौट गया।

इस्माईल बेग ने आगरे को घेर लिया। नगर वाले तो घबरा कर अधीन हो चुके थे वहाँ का मराठा क़िलेदार ऐसी दृढ़ता से लड़ा कि बलवाई कुछ न कर सके। इधर मराठो के हट जाने से दिल्ली बिल्कुल असुरक्षित हो गई। गुलाम कादिर को यह अच्छा अवसर हाथ लगा। वह भीतर-भीतर शाही नाज़िर मंसूर से मिला हुआ था जो मराठो का आधिपत्य देख कर बहुत जलता था। मंसरू बादशाह का बड़ा विश्वास-पात्र था और चाहता था किग को अपने हाथ में करके उसे सिंधिया के स्थान पर प्रतिष्ठित कर दे। दिल्ली को बिलकुल असुरक्षित देख गुलाम कादिर बड़ी भारी सेना लेकर दिल्ली पर चढ़ा और जमुना नदी के पूर्वी किनारे पर उसने डेरा डाला। वहाँ से मंसूर के द्वारा वह सब हाल चाल लेता रहा। बलवाइयों की इतनी बड़ी फ़ौज देखकर दिल्ली वाले दहल गए पर दिल्ली की रक्षा के लिए जिन मराठे सरदारों को सिंधिया छोड़ गए थे उन्होंने अपने भरसक कोई बात नहीं रखी और थोड़े से सिपाही को लेकर उन्होंने गुलाम कादिर पर आक्रमण किया। पर रुहेलों की संख्या बहुत थी इस कारण उन्हें लाचार होकर हटना पड़ा। मराठे सरदारों को जब मंसूर की कुटिलता मालूम हुई तब वे छल से मारे जाने के डर से दिल्ली से भाग गए। अब तो गुलाम क़ादिर ने जमुना पार की और चुने हुए सिपाही साथ लेकर वह सीधे शाही महलों की ओर गया। नाज़िर ने उसे बादशाह के सामने पेश किया। उसने बादशाह से सिंधिया की जगह के लिए दरख़ास्त की। बादशाह को झख मार कर मंजूर करना पड़ा। रुहेला सरदार वज़ीरी की सनद पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ। किन्तु दिल्ली में कुछ लोग ऐसे भी बचे थे जो बादशाह और सिंधिया के पूरे खैरख्वाह थे। वे बादशाह का अपमान सुनकर बहुत बिगड़े और उसकी मर्यादा की रक्षा के प्रयत्न में लगे। इनमें से मुख्य सरधाना की बेगम समरू थी। वह बड़ी राजभक्त थी। इससे दिल्ली के दरबार में उसकी बड़ी चलती थी। गुलाम क़ादिर ने उसे अपनी ओर मिलाने के लिए बहुत उपाय किए पर सब निष्फल हुए। वह अपनी सीखी सिखाई तैयार फ़ौज लेकर महल में आ धमकी और कहने लगी, “मैं बादशाह को अपना प्राण तक देकर बचाऊँगी”। उसे देखकर बादशाह भी बहुत प्रसन्न हुए और देखा-देखी और लोगों को भी उत्साह हुआ। धीरे-धीरे बादशाह की ओर से लड़ने के लिए एक पूरी फ़ौज इकट्ठी हो गई। गुलाम क़ादिर ने जब देखा कि उसका बना-बनाया खेल बिगड़ रहा है तब वह जमुना के उस पार अपने डेरे में गया और वहाँ से बादशाह के पास बड़े अविनीत शब्दों में कहला भेजा कि, “आप बेगम को तुरंत निकाल दें नहीं तो मैं चढ़ाई करता हूँ”। इस पर कुछ ध्यान नहीं दिया गया और गुलामक़ादिर ने महल पर धावा कर दिया। कृतघ्न मंसूर अपने मित्र गुलामक़ादिर के पैर उखड़ते देख कहने लगा कि अब तो ख़जाने में रुपया ही नहीं है। इस पर लड़ाई के ख़र्च के लिए शाही जवाहरात गिरवी रखे गए। इसी बीच यह शुभ समाचार मिला कि शहज़ादा जवांबख्त बड़ी भारी सेना लेकर राजधानी की ओर आ रहे हैं। मंसूर ने चट गुलामक़ादिर को इसकी ख़बर देकर संधि करने की सलाह दी। गुलामक़ादिर ने अधीन भाव से संधि के लिए प्रार्थना की और बहुत सी नज़र भेजकर दोआबे के उन गाँवों को लौटा देने का वादा किया जिन्हें वह दबा बैठा था। इस प्रकार संधि हो जाने पर गुलामक़ादिर अपना डेरा डंडा उखाड़ कर सहारनपुर लौट गया।

शहज़ादा जवांबख्त की बड़ी भारी फ़ौज लेकर दिल्ली में रहना मंसूर को खटकने लगा। उसने देखा कि शहज़ादे के रहते उसकी दाल नहीं गल सकती। इससे वह शहज़ादे के विरुद्ध बादशाह के कान भरने लगा। उसने बादशाह के जी में यह बात जमा दी कि शहज़ादा उसे तख्त से उतार कर उसके साथ वही व्यव्हार करेगा जो औरंगजेब ने शाहजहाँ के साथ किया था। अंत में बाप और बैटे में यहाँ तक बिगड़ी कि शहज़ादा दिल्ली छोड़ कर चला गया और मंसूर और गुलामक़ादिर के लिए मैदान साफ़ हो गया।

गुलामक़ादिर ने इस बार इस्माईल बेग को भी मिलाकर दिल्ली पर चढ़ाई की। दिल्ली में मराठो की कुछ फ़ौज रह गई थी और बहुत से मुगल सरदार भी बादशाह के पक्ष में आ गए थे। गुलामक़ादिर अपने दल-बल के साथ जमुना के उस पार ठहरा और वहाँ से उसने बादशाह के पास कहला भेजा कि हम इसी समय सामने आना चाहते हैं। बादशाह ने अपने सरदारों का भरोसा करके उसकी बात नामंजूर की। बेचारे बादशाह को यह कुछ ख़बर न थी कि मंसूर ने भीतर-भीतर मुगल सरदारों को बलवाइयों के पक्ष में कर रखा है। वे एक-एक करके बादशाह का साथ छोड़ने लगे। गुलामक़ादिर और इस्माईल बेग दो हज़ार सिपाहियों को लेकर दिल्ली में घुसे। मंसूर ने उनकी अगवानी की और उन्हें बादशाह के सामने पेश किया। गुलामक़ादिर और इस्माईल तख्त के दोनों ओर बैठ गए। गुलामक़ादिर ने कहा, “मुझ पर जो बग़ावत का इलज़ाम लगाया गया सब झूठा था। मैं उसका बदला लेने के लिए आया हूँ।” बादशाह डर से काँप गया और उसे सन्तुष्ट करने के लिए कहने लगा, “मुझे अब आप पर पूरा इत्मिनान हो गया”। बादशाह अपनी प्रसन्नता जताने के लिए उससे गले मिला। इतना हो चुकने पर बादशाह से कहा गया कि, “जहाँपनाह के खाना खाने का वक्त हुआ अब अंदर जाएं”, जब बादशाह दरबार ख़ास से उठ कर चला गया तब षट्चक्रकारियों की एक गोष्ठी हुई। मंसूर के सुझाने पर यह तय हुआ कि शीतलदास ख़चांजी भीतर जाकर बादशाह से कहें कि, गुलामक़ादिर बड़ी भारी फ़ौज लेकर मराठो को दबाने के लिए जा रहा है, बेहतर होगा कि शाही घराने का कोई शहज़ादा भी फ़ौज के साथ जाय और दिल्ली में जो मेगज़ीन और रिसाले हैं, वे जिन्हें गुलामक़ादिर कहे उनके मातहत कर दिए जाएं”। हिन्दू ख़ज़ांची ने बादशाह से साफ़ कहा कि “गुलामक़ादिर का विश्वास करना ठीक नहीं। अभी दिल्ली में बहुत राजभक्त हैं जो बादशाह के लिए लड़ने को तैयार हैं”। पर बादशाह के जी में गुलामक़ादिर का ऐसा डर समाया था कि उसने गुलामक़ादिर की सब बातें मंजूर कर लीं।

इस बीच में रुहेले सिपाही दिल्ली को लूटने लगे। बादशाह ने गुलामक़ादिर से उन्हें रोकने की प्रार्थना की और कहा कि किले में थोड़े से सिपाही रखकर अपनी और फ़ौज आप लौटा दीजिए। गुलामक़ादिर ने बादशाह के सामने तो हाँ कर दिया पर जब बाहर किले के फाटक पर आया तब अपने सिपाहियों को किले के भीतर घुसने का इशारा कर दिया। देखते ही देखते किला बलवाइयों के अधिकार में हो गया। गुलामक़ादिर ने बादशाह के रक्षकों से हथियार रखवा लिया और मुख्य-मुख्य सरदारों को पहरे में डाल दिया। बादशाह ने यह सुनकर गुलामक़ादिर से बहुत विनती की कि ऐसे लोगों के साथ ऐसा अन्याय न किया जाय, पर उसने एक न सुनी। जिससे-जिससे बादशाह को सहायता पहुँचने की आशा थी सब को क़ैद करके वह बादशाह के दरबार ख़ास में पहुँचा और उससे अपने सिपाहियों की तनख्वाह चुकाने के लिए ज़मीन माँगने लगा। बादशाह ने कहा, “बाबा! ज़मीन देना मेरे इख्तियार के बाहर की बात है महल में जो कुछ पाओ ले जाओ”। इस पर गुलामक़ादिर बादशाह को भला बुरा कहने लगा तब वह हरम में चला गया। दूसरे दिन सवेरे गुलामक़ादिर बहुत से सिपाहियों को लेकर सीधे दीवान-ए-ख़ास में पहुँचा। जहाँ शाहआलम बैठा था, और उसने तख्त को घेर लिया। शाही घराने के जो शहज़ादे वहाँ मौजूद थे सबको उसने हट जाने की आज्ञा दी। इसके अन्तर उसने सलीमगढ़ से बेदारशाह को बुलवा भेजा जो पूर्व बादशाह अहमदशाह का लड़का था। इतना करके वह शाही तख्त की ओर बढ़ा और उस पर से ढाल तलवार आदि चिह्न हटा कर उसने बादशाह से तख्त से उतर जाने को कहा। बुङ्ढा बादशाह इस अपमान से कातर होकर कहने लगा, “मुझे इस तरह ज़लील करने से अच्छा यह है कि तुम अपनी कटार मेरी छाती में धँसा दो”। गुलामक़ादिर इस पर बड़ा झल्लाया और तलवार की मुट्ठी पर हाथ ले जा चुका था कि मंसूर ने उसे तलवार खींचने से रोक लिया। शाहआलम भीतर हरम में भेज दिया गया और बेदारशाह दिल्ली के तख्त पर बैठाया गया।

गुलामक़ादिर अब हरम को लूटने लगा। जब उसे और कोई चीज़ लेने को न रह गई तब उसने बादशाह को अपने सामने बुलवाया और पूछने लगा, “बताओ, अपना ख़ास ख़ज़ाना कहाँ छिपा रखा है?” बादशाह ने कहा, “मेरे पास कुछ नहीं है जो मैं छिपाऊँ”। उस अन्यायी ने कड़क कर कहा, “मैं अभी तुम्हारी ऑंखें निकालता हूँ, नहीं बताओगे?”। बुङ्ढा बादशाह गिड़गिड़ा कर कहने लगा, “ क्या तुम इन ऑंखों को फोड़ोगे जिन्होंने साठ बरस तक क़ुरान पढ़ा है”। गुलामक़ादिर ने अपने सिपाहियों को शाहआलम को पकड़ने की आज्ञा दी। फिर शाहआलम को ज़मीन पर पटक कर गुलामक़ादिर उसकी छाती पर चढ़ बैठा और उसने अपने कटार की नोंक से उसकी दोनों ऑंखें निकाल लीं। बुङ्ढे बादशाह की दोनों ऑंखों से रक्त की धारा बहने लगी और वह इसी दशा में गुलामक़ादिर की आज्ञा से हरम में पहुँचाया गया।

इसके उपरान्त विश्वासघाती मंसूर की बारी आई। गुलामक़ादिर ने उसे बुला कर कहा, “तुम्हारे पास क्या-क्या है सब ठीक-ठीक बताओ।” उसने जब इधर-उधर किया तब गुलामक़ादिर ने उसे कैद कर के उसका सारा माल ज़ब्त कर लिया। इसके पीछे वह अपने साथी इस्माईल बेग पर फिरा। इस पर इस्माईल बेग अपनी फ़ौज लेकर दिल्ली से चला गया।

शाहआलम के तख्त पर से उतारे जाने की खबर सिंधिया तक पहुँची। सिंधिया ने बड़ी भारी फ़ौज के साथ अपने सेनापति को दिल्ली भेजा। डर के मारे इस्माईल बेग भी मराठी सेना के साथ मिल गया। गुलामक़ादिर यह सुनते ही सहारनपुर भागा। सिंधिया की सेना गुरजती हुई सहारनपुर की ओर मुड़ी। गुलामक़ादिर के सिपाही सब तितर-बितर हो गए और वह आप भाग कर एक गाँव में जा छिपा। वहाँ वह पहचान लिया गया और मराठो के डेरे में लाया गया। बैरी के साथ मराठो की निर्दयता प्रसिद्ध है। जैसा उसका अपराध वैसे ही उसके दंड देनेवाले मिले। हाथ पैर और नाक कान काट कर वह एक कटघरे में रखा गया। इसी दशा में वह दिल्ली पहुँचाया जा रहा था पर बीच ही में उसके प्राण निकल गए। उसका साथी मंसूर कैदख़ाने से निकाला गया और हाथी के पैर के नीचे कुचलवा दिया गया।क्व

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 1912 ई)