शाहबलूत का पत्ता / अनघ शर्मा
प्रेम युद्ध से पलायित देवताओं का स्वांग भर है!
चौमासों की रात, रात की उमस और आकाश में बादल। आकाश का हर हिस्सा आज बादलों से पटा पड़ा था। बूँदें लबालब भरी हुई थीं, इतनी कि कोई एक बूँद भी हिले तो बीच का तारतम्य ही टूट जाये। "आज पानी न पड़े" उसने सोचा।
उधर छत पर कोई किसी को कहानी सुना रहा था जिसके टूटे-टूटे शब्द उसके कानों में पड़ रहे थे।
"आला खोल टटिया, बाला खोल टटिया, में खोल टटिया, चें खोल टटिया।"
उसे यूँ लगा जैसे कोई मन भीतर के किवाड़ खटखटा रहा हो। बार-बार कह रहा हो खोलो, खोल दो ये दरवाज़े जिनके पीछे जाने क्या-क्या बंद कर रखा है तुमने?
सरसराती बूँद जैसे ही उसके माथे पर पड़ी, किसी ने भड़भड़ा के मन के किवाड़ खोल डाले। उदास रातों की उदासी अब उसकी आँखों से झर रही थी। उधर चें अपनी माँ को बता रहा था कि कैसे धोखे से भेडिये ने आला, बाला, में को खा डाला और कैसे उसने छुप के अपनी जान बचाई. दिल के प्यारे यूँ भी कब किसी के साथ लम्बे समय तक रहते हैं, उसने सोचा और आंगन से खींच के खाट बरामदे में डाल दी और बड़बड़ा न शुरू कर दिया।
"मन में तो चौमासा नहीं है यहाँ तो अगहन उतर पूस लगा है और ऐसी ठण्ड में कोई मन उघाड़ता है कहीं अपना। मन यूँ भी मन है कोई मिट्टी का ढेला तो नहीं कि ओस झरे और बिरवा-पात फूट पड़े। मन सूखने के बाद कभी हरा हुआ है भला। मन का सूखना जमीन के सूखने से भी ज़्यादा ख़तरनाक है। मन के सूखने से आस भी सूख जाती है।" रेवा के तो मन और आस कब के ही सूख चुके थे।
रेवा ने टिमटिमाते बल्ब कि रौशनी में गर्दन घुमा के देखा लम्बे बरामदे को अँधेरे, सीलन, नमी ने एक साथ घुल-मिल के डरावना-सा बना दिया था। गर्दन घुमा के देखने पर अँधेरा ही दीखता है उसे उसके आगे कुछ नहीं और अब दूर तक देखने के लिए बचा ही क्या है उसके पास?
अम्मा न जाने कब से आकर उसके पीछे खड़ी थीं।
"ऐसे चौरे में क्यों सुला रखा है इसे, अंदर ले जाओ, बरसाती हवा है छाती में बैठ जायेगी।"
"अंदर बहुत उमस है। तुम क्यों सोते से उठ के आ गयी।"
"हम तो इसकी गद्दी देने आये थे, दिन में ही बना ली थी। और सोचा तुम से चाय की पूछ लें अपने लिए जा रहे थे बनाने।"
"नहीं, रहने दो मन नहीं है।"
" तुम वापस क्यों नहीं चली जातीं रेवा, कब तक भाइयों के ऊपर रहोगी। जाने किस जात-कुजात की लड़की को बेटी बना के उठा लाई हो।
"इस आठ महीने की बच्ची में तुम्हें जात-कुजात दीख रहा है तुम्हें।"
"क्या करोगी यहाँ रह कर? कल को तुम्हारे भाईयों के अपने घर होंगे तब कौन पूछेगा तुमको? जिनगी कोई ऐसी चीज़ तो नहीं जिसे जैसे चाहो वैसे चला लो। ऐसी ज़िदों से कहीं गिरस्थ्थी चली है भला।"
"इसका कोई जवाब नहीं है अभी मेरे पास अम्मा। और क्या मालूम भाई निभा ही लें?"
"निभा भी लें तो भी तो तुम अपने लिए कुछ नहीं करोगी क्या?"
"क्या करूं?"
"कुछ काम ही कर लो। कोई नौकरी? इस लड़की के लिए ही सही थोडा-सा चेत जाओ? बी.ए. तो हो ही तुम।"
"बी.ए करने ही कहाँ दी तुमने अम्मा, पहले साल के बाद ही तुमने शादी कर दी अब इतने साल बाद आधी-अधूरी पढाई की क्या बिसात?"
"अरे इन्टर तो हो ही।"
"खाली इन्टर से क्या होगा?"
"अरे! आंगनबाड़ी में ही भर्ती हो लो, पौने दो सौ मिल रहे हैं।"
"ठीक है भर देंगे फ़ार्म।"
"दरोगा की तीन चिठ्ठी आ चुकी हैं अब तक। कहो तो भैया से ख़बर भिजवा दें कि आके ले जाये तुम्हें।" चली ही जाओ तो ऐसी कोई नौबत ही नहीं आये। "
"नहीं कोई ज़रूरत नहीं है। तुम जाओ सो जाओ अम्मा, बाद में बात करेंगे कभी।"
दरोगा बस नाम ही के दरोगा थे। उनके पिता पुलिस में थे तो उन्हीं ने ठेलठाल के इन्हें हबीबगंज की किसी चौकी में लगवा दिया था। दरोगा सुबह मुँह अँधेरे साइकिल से शहर भोपाल के इस कोने से उस कोने जाते और सांझ डूबे लौटते। रेवा की ज़िन्दगी यूँ ही चल रही थी। साइकिल की आवाज़ से दिन उगता और साइकिल की आवाज से ही सांझ ढल जाती। रेवा के चौदह साल यूँ ही सांझ सवेरे में कट गए. कट तो और भी जाते अगर बाऊ उसे धक्के मार के बाहर न निकाल देते। माती ने चौदह साल टकटकी लगा इस उम्मीद से काट दिए कि उनके बेटे दरोगा के घर कोई आस उम्मीद खिल बढ़ जाए और जब कुछ नहीं हुआ तो आख़िर में घर भर से बैर मोल ले कर उनने रेवा की गोद में जाने कहाँ से लाकर एक बच्ची डाल दी। बाऊ शुरू से ही इस गोद ली हुई बच्ची के खिलाफ़ थे पर माती के दबंग व्यक्तित्व के सामने उनकी एक न चली। माती ही रेवा का कितना साथ दे पाई, तीन महीना बस। माती के जाते ही बाऊ ने रंग दिखाने शुरू कर दिए.
"सुन कहीं मेंढकी के टर्राने से आसमान गिरे है?" देर तक उसका रोना सुन बाऊ बोले।
"मेंढकी अगर न टर्राये बाऊ तो आसमान में सूखा पड़े है और सूखी चीज़ तो कभी भी भरभरा के ढह सकती है, गिर सकती है। जिन इमारतों की नींव में बादल नहीं, झील नहीं, नमी नहीं उनकी छतें एक दिन सूख जानी हैं। रेशा-रेशा पलस्तर गिरे है ज़िन्दगी का फिर, इसीलिए थोड़ी नमी और कोने-कुब्जे की टर्राहट का होना बहुत ज़रूरी है।"
उसका जवाब सुन बाऊ जैसे आपा खो बैठे। एक ही धक्के की चोट से रेवा बच्ची समेत घर के बाहर आ गिरी। दरोगा दूर खड़े चुपचाप सारा तमाशा देखते रहे। रेवा ने दरोगा को देखा वह चौखट से लगा खड़ा था और उसे ऐसे देख रहा था जैसे वह कोई लकड़ी की मूरत हो जिसके आंसू और आवाज़ उसकी आँख और कानों की पहुँच से दूर हो। कपूर की तरह धुआं-धुआं हो गया सब रेवा के लिए.
आज उसे वापस आये पांच महीने हो गए, इस बीच दरोगा की तीन-तीन चिठ्ठियाँ आ चुकी हैं पर रेवा ने न ही उन्हें खोला और न ही औरों को खोलने दिया। अम्मा उसे जितनी ही बार जाने को कहती वह उतनी ही बार मन में दरोगा की एक तस्वीर बनाती और अम्मा से मना कर देती।
अम्मा की आँखों की नमी रेवा के मन में उतर आती, और अब उसका सारा दारोमदार अपने भीतर की इसी नमी को बचाए रखना था। बरामदे की जिस तरफ़ खाट थी उससे लग कर ही खुली मोरी थी। बरसात का पानी उसमें बने सब अवरोधों को पछाड़ता हुआ बहा जा रहा था। रेवा ने बच्ची की करवट बदली, नीचे नयी गद्दी लगाई और चादर ऊपर तक सरका दी। छत पर अब कोइ नहीं था। न कहानी सुनने वाला और न ही कहानी सुनाने वाला सिवाय बरसते पानी के. कौन जाने ऐसी बारिश भोपाल में भी हो रही हो उसने सोचा। दरोगा का सारा जीवन खोखले प्रेम पर था और उसका जिजीविषा का युद्ध। जो प्रेम का स्वांग भरते हैं वह वास्तविकता में जीवन के युद्ध से पलायन कर रहे होते हैं। प्रेम इसीलिए युद्ध से भागे देवताओं का स्वांग भर है और कुछ नहीं।
2
चिठ्ठियाँ जिंदा लाश होती हैं!
धूप का तीखापन, दोपहर की निसंगता और उजाड़-सा अपना अस्तित्व खोता ये छोटा स्टेशन। उसने दायें-बायें सर घुमा के देखा, एक चमकदार चौंध हर ओर पसरा पड़ा था। दूर-दूर तक सिवाय चिमनियों के कुछ और नज़र नहीं आता था। या तो उस चौहद्दी के बाहर हर चीज़ बहुत छोटी है या अब ये चिमनियाँ बहुत ऊंची उठ गयीं हैं। पिछली बार जब आई थी यहाँ तो सात साल पहले आई थी। उस समय ये नया पुल नहीं था इसकी जगह जर्जर, हिलता-काँपता बिलकुल इसका जुड़वां पुल था या ये उसका जुड़वां है। जीजी की चिठ्ठी न आई होती तो वह अबके भी नहीं आती। हर साल आना यूँ ही टाल देती है वो। अब ये शहर सिकुड़ते-सिकुड़ते इतना छोटा हो गया है कि उसकी स्मृति-पटल और मन से कब का गुम हो चुका है, मिट चुका है। मिटना बनने से भी जटिल प्रक्रिया है ठीक वैसे ही जैसे धूसर होना चमकीले से भी ज़्यादा कठिन। मिटने-बनने के बीच एक पड़ाव वह भी होता है जिसे उजाड़ कहा जाता है। जैसे पहले शहर उजाड़ हो जाते हैं और फिर डूब जाते हैं, ठीक वैसे ही आदमी पहले उजाड़ होता है फिर मिट जाता है। फ़र्क बस इतना होता है कि शहर मिटते हैं तो कुछ सदियों का इतिहास गर्क़ होता है और आदमी मिटता है तो सदियों के इतिहास के साथ भविष्य भी गर्क़ हो जाता है। फिर भी मिटने में एक चमकीला सितारा छुपा होता है, जिसे देखने के लिए धैर्य चाहिए. पर धीर धरने वाले बहुत होते ही कहाँ हैं?
जीजी ने एक बार उसे चिठ्ठी लिखी थी, जाने कितने साल पहले। अब तो कुछ याद ही नहीं रहा क्या लिखा था और क्या नहीं? उसका जो सार याद रह गया है तो बस इतना ही कि...
"धैर्य अजन्मे की तरह होता है जो समय से पहले हो जाये तो कमज़ोर और समय बीतने पर तो उसके गले पर नाल लिपटी होती है। उसे मरना तो दोनों ही हाल है। कोई बिरला ही इस अजन्मे को समय पर ला पाटा है।"
जाने कब रिक्शा रुका और जुगनू की तन्द्रा टूटी. गली बस इतनी बदली थी कि ईंट का खड़ंजा हटा कर सीमेंट की सड़क बना दी गयी थी उसकी जगह। बाहर का बरामदा धूल की पतली परत से ठीक वैसे ही ढका था जैसे बरसों पहले गर्मियों में रहता था। कुछ भी तो नहीं बदला था, वही मई की झोंके खाती दोपहर थी, वही पाठक जी का लहक-लहक बिखरता गुलमोहर। वह बहुत देर दरवाज़े पर खड़ी रही, इसे खटखटाये या नहीं। क्यों होता है ऐसा आप अपने ही दरवाज़े पर दस्तक देने से घबरायें। घर बाहर और घर भीतर के माहौल में क्यों ज़मीन-आसमान का अंतर आ जाता है कि आप चाह कर भी मन पर चढ़ी सांकल खोल ही न पाओ, उसने सोचा।
कौन थी वह इस घर की? कोई भी तो नहीं। जाने किस सनक में, माती कहाँ से उठा लाई थीं उसे और जीजी को पालने जिम्मा दे डाला उन्होंने। कोई नहीं जानता, जीजी ख़ुद ही नहीं जान पाई आजतक तो वैसे ऐसे जान पाती। कहने को तो वह उसकी ही माँ थीं पर बाकी लोगों की देखा-देखी वह भी उन्हें जीजी कहती थी। उसके लिए जीजी सब छोड़-छाड़ यहाँ मायके आ गयीं और फिर लौट कर कभी वापस नहीं गयीं भोपाल। उन्हीं के लिये उसका मन बार-बार रूखा हो जाता है। रेशम से नेह में वह क्यूँ जान के बार-बार सूत का धागा पिरो रही है।
जीजी का चेहरा बदल कर बिलकुल नानी जैसा लगने लगा था। वैसा ही माथा, लम्बी ठोड़ी और ढ़लती हिम्मत। इसी हिम्मत के सहारे उन्होंने जुगनू के लिए तेंतीस साल काट लिये थे। न वापस ही गयीं और न ही कभी दरोगा को फटकने दिया।
"तुम्हें इतनी चिठ्ठियाँ लिखीं तुमने एक का भी जवाब नहीं दिया जुगनू।"
"क्या करूँ जीजी मन ही नहीं होता। चिठ्ठी लिखने के मामले में बहुत काहिल हूँ तुम जानती तो हो।"
"अरे! चिठ्ठी है कोई तेरह का पहाड़ा तो नहीं कि याद ही न हो। या ये भी भूल गयीं कि माँ ने कितने दुख पी-पी कर पाला है तुम्हें।"
"दुख सबसे साफ़ पानी है जीजी." उसने हंस कर कहा।
"इतना साफ़ कि पी-पी कर तुम्हारी माँ का कलेजा ही छिल गया। और तुम सात साल में अब झाँकने आई हो।"
"क्या करूँ मेरे आस-पास इतने घनेरे जंगल, अरण्य हैं जीजी कि मौका ही नहीं मिलता कुछ लिखने-करने का!"
रेवा ने उसका हाथ थाम लिया। उसका हाथ ही ठंडा था या ये रात की नमी थी ये वह समझ ही नहीं पाई.
"हैं कैसा अरण?"
"जीजी अरण्य वही होता है, जो जी के भीतर होता है। जहाँ से आप सदा जीवन के आखिरी पत्थर के पलटने तक बाहर निकलने के लिए भागते रहते हैं। बाकी सब ओस से उगने वाली घास के तिनके हैं।"
"तुम शादी को हाँ कहो तो इस घर में भी बन्ना-बन्नी गाये जायें।" रेवा के स्वर में अब रिरियाहट थी। "
"जीजी मुझे भोपाल में एक अच्छी जॉब मिल रही है। सोच रही हूँ चली जाऊं।"
रेवा ने उसे देखा और फिर करवट फेर कर सो गयी। उसने भी तकिये पर सर टिकाया और आँखें बंद कर लीं। पर वह जानती थी इस करवट का साफ़-साफ़ मतलब न है। इतनी कड़ी कि जो मुँह से कही भी न जाये।
पटरियों के बीच कभी-कभी कोई सब्ज़ा, कोई फूल दिख जाता तो जुगनू का मन हरा हो जाता था और फिर वही सूनेपन की लय।
"शादी नहीं करेगी तो क्या करेगी जुगनू? उमर यूँ ही झर जायेगी।" ये नानी के आख़िरी बोल थे उससे उसके बाद उन्हें देख ही कहा पाई वो।
वो चुप रही एक शब्द भी नहीं कहा नानी से पर वह जानती थी कि...
"झड़ना बसंत की चिरनियति है उसे कोई रोक नहीं सकता। लोग अंजुरी भर फूल तोड़ते हैं और किसी भी प्रतिमा के पैरों में चढ़ा देते हैं। जूड़े में फूल लगाते हैं और सूखने पर फ़ेंक देते हैं, बहुत हुआ तो सिंगारदानी पर रख छोड़ते हैं। जीवन भर शादी-शादी की रट लगते हैं और गले में पहने हार दूसरे ही दिन खूंटियों पर सूखने के लिए टांग छोड़ते हैं या किसी नदी के बहते किनारे पर खड़े हो लहरों के साथ बहा देते हैं। उसपे दुमायत ये कि बौराहट में बसंत को पतझड़ से ऊंचा मान लिया है। जबकि पतझड़ तो देह झटकता है, पुराने पात उतार नए पहन लेता है। ये ठीक वैसे ही है जैसे कोई नहाते हुए पत्थर से घिस-घिस के डेड स्किन उतरता हो। तो बसंत-बसंत चिल्लाने की बजाय पतझड़ की तरह बनिये। उठिए देह झटकिये पुराना सारा दुःख अवसाद उतार फेंकिये और नयी चमक, जीवन के हरे रंग को पहन लीजिये।"
जुगनू ने अपने पर्स में से चिठ्ठियों का एक पुलिंदा निकाला और चिंदी-चिंदी कर रेंगती हुई ट्रेन से फेंक दिया। अब ये उसका प्रिय शगल था कि दफ़्तर से छुट्टी लो और भटकने निकल जाओ. वह देख रही थी पुर्ज़ा-पुर्ज़ा चिठ्ठी ऊपर उड़ती और धम्म से नीचे गिर जाती।
चिठ्ठियाँ जिंदा लाश होती हैं ये जब तक आपके पास रहती हैं आपको परेशान करती हैं इसीलिए इन्हें पढ़ते ही फाड़ देना चाहिए और इनसे निजात पा लेनी चाहिये। उसने सोचा।
3
उदासियों के चेहरे कभी बूढ़े नहीं होते!
"लश्कर-बॉम्बे" यादों में झिलमिलाता ये नाम उसे अब भी रातों में जगा जाता था। वही उम्र थी उसकी सत्रह-अठारह साल, इंटर के इम्तिहान दिए थे। कैसी गरम आंधी भरी शाम की रात थी वह उसे आजतक याद है। उसके एक हाथ में सुनार का बटुआ था जिसमें सत्रह सौ रूपये, जीजी की एक चूड़ी और छोटी मामी की दो अंगूठियाँ थीं, और दूसरे हाथ में रतीश का हाथ था। कैसा रूमान था जो उसकी देह में घर कर गया था, उसका एक पाँव गाड़ी के पायदान पर था दूसरा हवा में कि जीजी की चौड़ी कलाई ने लपक के उसकी बाँह पकड़ ली। एक ही झटके में कितने ही रुपहले, चमकदार, चिकने सपने चकनाचूर हो गये। मन की फसल को पाला मार गया। सत्रह-अठारह के सपने कहीं तोड़ने के लिए होते हैं। वह पहली और आखिरी बार था जब जीजी ने उसे मारा था।
वो आज जब ये याद करती है तो हंस-हंस पड़ती है कि कैसे घर से भाग जाना उस समय उसके लिए प्रेम का सबसे बड़ा रोमांच था। हाँ पर ये ही पहली बार था जब उसके मन में जीजी के लिए बैर पड़ा था, समझ के साथ उसने मन की गाँठ तो खोल दी पर आज भी कभी-कभी वह उसे छूने भर से महसूस कर लेती है। उसने घड़ी देखी साढ़े-चार बज गए थे। सामने के पहाड़ धूप में तप-तप कर भूरे-सलेटी, लाल-कत्थई से हो गए थे। उन तक जाने वाली सड़क ऐसे लग रही थी जैसे उस पर लपलपाते शोले बिछे हों। वह देर तक सामने के तपते हुए पहाड़ देखती रही। मध्य-पूर्व के इस छोटे से देस के ये पहाड़ क्या बरसात की कामना करते होंगे? क्या सोचते होंगे ये जो इनकी देह की दरारों में से न आह न धुआँ कुछ भी तो नहीं निकलता? ये आकाश को देख कर क्या बोलते होंगे? वह जब से यहाँ आई है उसने पानी की एक छींट भी बरसती नहीं देखी। इस तपते-जलते मरुस्थल-सा ही मन है उसका, भभका-सा उठता है और ख़ुद ही बैठ जाता है। जाने कौन समय है और कैसा पानी जो इन पहाड़ों के भीतर तो है पर छलकता नहीं। जबकि पानी के व्याकरण में ही मुड़ना लिखा है। इसकी धातु इतनी तरल, इतनी सहज है कि आँख से ले कर कुँए, और कुँए से ले कर गले तक भरी रहती है। पर सहज होना इतना आसन भी नहीं। सब से सहज सब से दुर्लभ है आज के समय। आप पानी को ही देखिये मार ज़माने भर की हाय-तौबा मची है इसके लिए. पर पानी क्या ऐसा ही है जैसा मुझ को दिखाई देता है? कौन जाने आपका पानी मेरे वाले से कम गीला, कुछ ज़्यादा गाढ़ा या कुछ ज़्यादा सीला हो। समय ही अपनी धारणा, अवचेतन में इतना टूटा-टूटा है कि उसका एक टुकड़ा मुझे चमकीला लग सकता है ठीक वही आपको कांच। समय एक ही समय दो स्तर पर यात्रा कर रहा होता है। ठीक एक पल मेरे दिल में डूब के उसी पल किसी और के दिल में उभर सकता है। इसीलिए समय की दीर्घा से सबसे पहले हाथ पकड़ कर समय को ही बाहर खींचा जाता है उसके बाद उसकी बनी परछाईयाँ बाहर फेंकी जाती हैं। ये चेतना का कौन-सा आयाम होता है अभी इसका पता नहीं। यूँ भी चेतना इतनी ही चेष्ठा करती है कि किसी को गर्भजल में सुप्त नहीं होने देती। जल के बाहर तो मात्र अचेतन ही बिखरा हुआ है। इस माने चेतना का जीवन बहुत ही छोटा होता है, जैसे कोई बूँद भर। पर जब बैठे-बैठे जी भर आये और गला ख़ुश्क, ऐन उस वक़्त जिस पानी की तलाश में आप भागते हैं ये वही गले में अटका पानी है या कोई दूसरा या वही नन्हीं बूँद। एक-सी दीखने वाली चीज़ या एक ही चीज़ सबको सामान लगे ये अभी तक रहस्य ही है। मेरे सब रंग कौन जाने आप के लिए भी उतने ही चटकीले हैं भी या नहीं। मेरे लिए जो नीला-बैंगनी है वह आपकी जानिब धूसर या भूरा तो नहीं। ये पहाड़ आकाश को देख कर कोई कामना कर पाते होंगे? "जैसे धान बोया जाता है बरसातों में ठीक वैसे ही तुम बरसातों में मेरी पीठ पर समय बोना" क्या कुछ ऐसा कह पाते होंगे, या कभी कोई भटकता बादल झुक-झुक कर इनके कानों में ऐसा कहता होगा "हर अतल के गहरे में एक तल छुपा होता है, ज़रा ऐड़ी पर उठ कर तो देखो"। ये सब दिमाग की कोई मनगढ़ंत बात हो या सच ही, उसने सोचा।
ठहरे हुए मन की तह पाना यूँ भी कहाँ आसान है। जुगनू के मन में भी समय की एक कील धंस गयी हो मानो। भीतर जो भी पूरा है, सम्पूर्ण है ये कील उसे ही टुकड़ों-टुकड़ों में बाँटे दे रही है। इसके एक किनारे वह है और दूसरे जीजी. सब अधूरा है उसके लिए, कुछ भी पूरा नहीं। पूरा तो कोई जी ही नहीं पाता। सौ टका कुछ भी नहीं होता। निन्यानवे में भी एक मिला के सौ बनता है। बिना मिलावटों के ज़िन्दगी है ही नहीं। हर खरी चीज़ की नींव में कोई और भी मिला होता है, जैसे उसकी नींव में जीजी का कितना ही श्रम, दुःख और प्यार मिला हुआ है जिसे उसने बार-बार जाने-अनजाने रौंदा ही है। जीजी का चेहरा बार-बार उसे याद आता और ओझल हो जाता। ये चेहरा वही है जब उनकी उम्र के पत्ते कुछ हरे थे। लाख चाह के भी जुगनू की आँखें जीजी के आज के चेहरे को ढूंढ ही नहीं पा रही थीं। सालों से उन्हें देखा ही नहीं, उसके अकेले रहने की चाह ने उसे कितने ही तरह के यातना गृहों में धकेल दिया है।
उसने देखा घड़ी साढ़े चार पर कब से रुकी पड़ी थी। समय अपने चक्के पर आधा रुका हुआ था ठीक उस की तरह। उसने सामने रखा मोबाइल उठाया और जीजी का नम्बर मिला दिया।
"तुम उदास हो क्या? जीजी ने उसकी आवाज़ सुनते ही पूछा।"
"नहीं तो।"
"कब आ रही हो तुम जुगनू?"
"देखो जल्दी ही।"
"तुम्हारा जल्दी तो पिछले तीन साल सुन रहे हैं, अबके आओ तो कुछ बात हो।"
"क्या?"
"जुगनू, तिरेसठ हो गई उमर मेरी, तुम ख़ुद ही तेंतीस की हो। तुम्हारे हाथ पीले करूँ तो फ़ारिग होऊं। कब तक माँ को दुनिया की बातें सुनने को छोड़ ख़ुद में मगन रहोगी।"
"मुझे शादी ही नहीं करनी जीजी."
"तो क्या जीवन अंधेरों में काट दोगी?"
" जीजी...मैंने सोचा है बहुत पर हिम्मत नहीं होती। मुझे लगता नहीं की मैं इतने बड़े बंधन में बंध पाने को तैयार हूँ।
"मन तो हर काम से डरता है शुरू में बाद में फिर ख़ुद ही रम जाता है। आँख उठा के देखो हर घर में कुछ न कुछ फिर भी घर चल ही रहे हैं।"
"आँख उठा के तो सबसे पहले तुमको ही देखा था। तुम्हारा अपना घर ही कहाँ चला? तुम्हें जीवन भर खटते देखा, अकेले देखा और शायद ऐसा ही डर तुमसे उतर मेरे भीतर आ गया है।"
"लाली ज़रूरी तो नहीं कि तुम भी माँ की लीक पकड़ चल निकलो।"
"जीजी ज़रूरी तो जीवन में कुछ भी नहीं।"
"ठीक है फिर आगे तुम्हारी इच्छा।" कह कर उन्होंने फ़ोन रख दिया।
इस एक पल के बाद रेवा के लिये सब रुका हुआ है, ठहरा हुआ है। हाथ-पैर चलते हैं पर मन थम गया है। दुनिया को दीखता ही मानो सब सुचारू है पर उन्होंने भीतर सीलन का एक धब्बा पकड़ लिया है। जो दिनों-दिन बढ़ कर फैलता जा रहा है। ऐसी कोई शाख़ ही नहीं जो बारिश के बाद काँपे और एक बूंद भी न छटके. पर उनके आस-पास तो सब सूखा है, फिर ये बारिश-सीलन कैसे पनप रही है? बहुत गौर करने पर उनने जाना कि ये उदासी है जो उनके भीतर बैठ गयी है और अब फैलती जा रही है।
क्या फ़र्क है ख़ुशी और उदासी में उनने ख़ुद से पूछा और फिर ख़ुद को कोई उत्तर नहीं दे पाई.
"उदासियाँ खुशी के बरक्स ज़्यादा बोलती हैं। यूँ भी देखो न हँसी सिर्फ़ उतनी ही फैलती है जितना कि होंठ खिंच पाते हैं और आँखें छलछला जाती हैं, जबकि उदासी में आँसू भी ज़्यादा निकलते हैं और आँख भी देर तक गीली रहती है।"
जुगनू उनके जीवन की ख़ुशी थी और उसका अकेलापन उनकी उदासी का स्थायी साथी।
4
शाहबलूत का पत्ता!
मीलों-मील सूखी घास सड़क के दोनों तरफ़ बड़ी मुस्तैदी से फैली हुई है। इसी के बीच वह दौड़ी चली जा रही है। मृगतृष्णा-सी ये घास एक ही बूँद के पड़ने से हरिया जायेगी। मन के विस्तृत बीहड़ में और है ही क्या सिवाय इस जली-सूखी घास और इस सड़क के. ये सड़क इंतहाई तौर पर सीधी है और इसकी बुनियाद इतनी टेढ़ी है, इसमें इतनी कज़ी है कि ज़रा दूर ही से गोल, सर्पीली, टेढ़ी-मेढ़ी लगती है। इसको बनाने वाले वास्तुकार के हाथों में इतनी-इतनी ऐंठन है कि ज़रा दूर की सीधी-सपाट राह को हथेलियों से रगड़-रगड़ टेढ़ा-मेढा कर देता है, क्योंकि लाखों-लाख आँखें तो खराब नहीं हो सकती कि जिन्हें सीधी-सपाट सड़क भी छल्लेदार लगे, गोल-मोल लगे ... जानते हो इस सड़क का नाम ज़िन्दगी है।
जाने कब से रेवा की आँखें छलछला रही थीं। अम्मा चली गयीं पर जुगनू उन्हें आखिर तक मिलने नहीं आई.
"कोई होता है जो अपने ही ठौर से ऊब जाये, जिसने तुम्हें पाला, तुम्हारे लाने खून-पसीना एक किया अब तुम उसी माँ को भूल जाओ. तुमने उसे बिगाड़ दिया रेवा, इतना लाड़ किस काम का कि औलाद हाथ से निकल जाए. बिन नाल लगी आज़ादी घोड़े और उसके मालिक दोनों को चोट पहुंचती है। ये लड़की तुझे कुढ़ा-कुढ़ा के मार देगी और तुम हाथ पर हाथ रखे रहना।" वह कहती रहतीं रेवा सुनती रहती। बात तो सच ही थी अम्मा की, पहले भी वह ऐसी ही थी, आज भी ऐसी ही है। पहले वह महीनों-महीनों ख़बर नहीं लेती थी और अब सालों-साल।
जाने कैसा तिल है उसके पैरों में जो आजतक उसकी यात्रा रुकी ही नहीं, थमी ही नहीं रही। गाडी सरपट दौड़े जा रही है पर वह जाने कहाँ है? उसे होश ही नहीं कब कौन-सा पत्थर पलटा, कौन-सा दिन बदला, कौन-सा महीना लगा? जाना भी एक अनवरत क्रिया है, सूर्य एक जगह से जाता है तभी कहीं पहुँच पाता है, चंद्रमा जाता है तभी काले रेशम का थान खुल के बिखर पाता है। पर हर किसी को जाना भी नहीं चाहिये, जाने के लिए विशेष सर्ग जन्म लेते हैं। जैसे जाने के लिए महेंद्र ने जन्म लिया था, संघमित्रा ने लिया था और उसने लिया है, उसने सोचा।
" जुगनू
पिछले महीने तुम्हें बार-बार फ़ोन करवाया पर तुमसे बात नहीं हो पाई तुम जाने कहाँ थीं सो अब हारकर ये चिठ्ठी भेज रहे है कि शायद मिल ही जाये तुम्हें। अम्मा ख़त्म हो गयीं पिछले महीने। जाने से पहले तुम्हें देखने की चाह लिए हुए ही चली गयीं। मुझे ही तुमको देखे तीसरा साल चल रहा है। कोशिश करना जल्दी आ सको मिलने, वैसे तो उम्मीद कम है हमें इसकी।
तुम्हारी जीजी"
उसके हाथ में जीजी की चिठ्ठी थी, इसी से उसे नानी के जाने की ख़बर भी मिली। उदासी देर तक उसका थामे बैठी रही। वह जाने कौनसी बार चिठ्ठी पढ़ रही थी। कितनी तल्खी थी इस चिठ्ठी में। भरभरा के जैसे कोई पुल टूट गया हो और इसे जोड़ने की सारी ज़िम्मेदारी अब उसकी थी सिर्फ़ उसकी।
मौसम की नमी इस बार इतनी फैल गयी थी कि फैलते-फैलते उसने खिड़की-दरवाज़ों को अपना स्थायी घर बना लिया था और जिसके चलते घर के सभी खिड़की-दरवाज़े अकड़े पड़े हैं और बंद ही नहीं होते। ऐसी ही एक नहाई हुई सीली-गीली रात में जब छोटे मामा दरवाज़े की सांकल चढ़ाने जा रहे थे ठीक तभी जुगनू का रिक्शा आ कर रुका। उसने एक मिनट उन्हें देखा जैसे भूल ही गयी थी कि उसके और भी रिश्तेदार हैं। उन्होंने उसे देख कर दरवाज़ा खोल दिया।
"जीजी कहाँ हैं?"
"ऊपर हैं।"
"ऐसी बरसात में ऊपर?"
"ऊपर एक कमरा बनवा दिया है हमने।"
कमरा क्या था वो? कभी एक छोटा-सा गुसलखाना हुआ करता था जिसे नया फ़र्श और कलई करवा के जीजी के रहने के लिए बनवा दिया गया था। जीजी को देख उसका मन भर आया, पूरे तीन साल बाद देख रही है वह उन्हें। सेहत तो जैसे रही ही नहीं। ऐसा पैसा किस काम का जो अपनों के काम न आ सके.
"अबके तुम मेरे साथ चलो जीजी" उसने कहा।
"कहाँ?"
"मेरे घर।"
"तुम्हारे घर, कल को तुम्हारी शादी होगी तो इस बुढ़ापे में गत बिगाड़ोगी मेरी।"
"अरे! अब इस उमर में शादी होगी मेरी, आधी तो बीत गयी जीजी."
"हमारी तो चाह रह ही गयी।"
"चाह का रंग झील की तरह होता है, इसमें सब सतरंग शाम को ही दीखते हैं। हर चाह आपके लिए मन में छुपे प्रिज़्म का काम करती है और आपके सुकून को कई-कई रंगों में चटका देती है, बिखेर देती है। इसीलिए जीजी चाह से बचना चाहिए, यातना से बचना चाहिए."
बरसात कब की रुक चुकी थी पर आकाश में बादल अभी भी चंद्रमा के साथ लुका-छुपी खेल रहे थे, कभी उसे ढँक देते तो कभी उघाड़ देते।
"मैंने कागज़ बनवा लिए हैं जीजी."
"कैसे कागज़?"
"तुम्हारे साथ चलने वाले, अबके साथ ले कर जाऊँगी तुम्हें।"
" क्या सोचा तुमने?
"किस बारे में?"
"शादी के?"
"अब उस विषय में बात न किया करो जीजी. ये टॉपिक ही ख़त्म है मेरी तरफ़ से।"
देर तक मौसम में चुप्पी की तरल हवा बहती रही। उनींदी-सी आवाज़ में रेवा ने उससे पूछा।
"तुम अब भी उन गोलियों को खा रही हो?"
"कौन सी?"
वही जो पिछली बार आयीं थी तब खा रही थीं, याद आया। "
"नहीं अब नहीं खा रही उन्हें, वो तो डिप्रेशन की थीं कोई साल भर हुआ बंद किये अब तो मन बहुत बेहतर है मेरा, पर कभी-कभी के लिए है अब वह दवा।"
"अब भी सम्भल जाओ क्यों जीवन भर का अकेलापन मोल लेने का शौक़ पाल रही हो? छत्तीस-छत्तीस में भी लड़कियां ब्यहा करती हैं, माँ बनती हैं। कौन उम्र निकल गयी तुम्हारी शादी की? कैसी अजब ज़िदें पाल रखी हैं तुमने जुगनू।"
" अच्छा! क्या अजब ज़िदें हैं मेरी?
" शादी नहीं करने की, अकेले रहने की, लोग तुम्हीं को न बोलेंगे क्या-क्या?
"सब बेटियां अपनी माँ से ही सीखती हैं चीज़ें।"
"हमने क्या ग़लत सिखाया तुम्हें?"
"क्यों तुम भी न जाने किसका बच्चा उठा लाई और फिर जीवन भर पाला। तुम्हारा तो बसा-बसाया घर था जीजी. माँ होने की ललक ने जीवन भर को अकेला कर दिया तुम्हें, दो-दो सौ रूपये की नौकरी की तुमने। वह मामा अच्छे थे हमारे निभा ले गये सब। क्यों छोड़ नहीं दिया मुझे? क्यों नहीं लौट गयीं तुम वापस?"
"वो स्वाभिमान था मेरा जुगनू और अपनी संतान कहीं छोड़ी जाती है।"
"स्वाभिमान, गुरुर कोई ऐसी चीज़ है जिसे हथेली पर पाला जाये। इसे तो मन की खोह में छुपा कर रखना चाहिए. हथेली पर तो नेह, प्रेम पालना चाहिये।"
" प्यार ही तो था तुम्हारे लिए जिसके कारण सब छोड़ मैंने बस तुम्हें पाला जुगनू।
रेवा के हाथ धीरे-धीरे उसका माथा दबा रहे थे।
" तू एक काम कर जुगनू?
"क्या?"
"तू एक बच्चा गोद ले ले, आस-औलाद रहेगी तो अकेलापन इतना नहीं काटेगा।"
वो बिलकुल भी नहीं चौंकी, जैसे जानती हो आज नहीं तो कल यही प्रस्ताव उसकी राह पर आना था। क्या जीजी उसे अपना-सा बनान चाहती हैं? नहीं उनका ये सुझाव तो बार-बार उसका बंद दरवाज़ा खटखटाने के बाद आखिरी दस्तक-सा आया है। अब इस दस्तक को समझ उसे दरवाज़ा खोलना है या नहीं ये उसका अपना निर्णय।
उसको चुप देख रेवा ने बात आगे बढ़ाई.
"ईसाईयों से लेले मैंने सुना है वह लोग गोद देने का काम करते हैं।"
"नहीं, मिशनरियों पर अब शायद सरकार ने गोद देने से रोक लगा रखी है।"
"तो फिर संतोष की बहु से पूछ, वह डॉक्टर है उसके यहाँ से लिया जा सकता है।"
"अच्छा देखेंगे।" उसने कहा।
बादल छंट गए थे। चारों तरफ़ चंद्रमा की हल्की नीली रौशनी फैली हुई थी। हवा में बरसात की नमी बरकरार थी। जुगनू ने पलट के देखा जीजी कब की बात करते-करते सो गयीं थीं। पर नींद की पगडंडी जुगनू की राह से बहुत दूर थी। आकाश पर उजाला था, पर उसके भीतर अँधेरे की एक पूरी रस्सी लिपटी हुई थी। सबसे सीधा और सपाट अँधेरा सबसे ज़्यादा डरावना, ख़तरनाक होता है, आड़े-टेढ़े, कुंडली मारे अँधेरे में कम से कम सोया तो जा सकता है। उसने सोचा और पलकें झपका लीं।
मेरे भीतर एक अहाता है जिसके अंदर परकोटे ही परकोटे हैं, सर्पीले वृत्त हैं जिनमें फंस कर न ही मुझे अब तक इसका पहला और न ही आखिरी सिरा मिला है। मैंने उम्र के कितने ही साल इसके सिरे को ढूंढने में गुज़ार दिए पर पाँव आज भी एक ही जगह जमे हुए हैं। दिल तक कभी कुछ पहुँच ही नहीं पाया। शहरग से छोटी ज़रा-सी छोटी जो रग है न हको-हुकूक के लिहाज से उसे ही दिल तक जाना था। पर देखिये पहुँचता कोई और ही है। कई बार एक-एक सीढ़ी का अंतर पूरे का पूरा दायरा ही बदल देता है। ये भी ज़रूरी नहीं जो हस्बेमामूल हो वह बहुत आसन हो और हो भी जाये। और इसे आसन बनाने के लिए हम हर दूसरे-तीसरे के आगे हाथ फैला देते हैं कि देखिये इन हथेलियों में कुछ है या नहीं। मेरा मन आजतक ये समझ ही नहीं पाया कि प्रेम क्या है और उसकी अर्हता क्या? पर मुझे लगता है कि प्रेम की सबसे बड़ी अर्हता ये होनी चाहिए की प्रेम स्वयं अनिवार्य नहीं होना चाहिये। जैसे नारंगी, ताम्बई, पीले, हल्के हरे, गहरे हरे पत्तों के साथ एक ही शाख पर रह लेते हैं, ऐसे ही रहिये... कंधे बस आंसुओं की नमी सोखने के लिए बने हैं, न की आंसुओं से गल कर गिरने के लिए. रेशम से जज़्बात, आँखों के उजाले, हंसी के तार और भी न जाने क्या-क्या? इन सब बातों में कई बार बड़ी बोरियत छुपी होती है। हर बंदगी का हक़ अदा करना यूँ भी आसन कहाँ है? सांस लेने दीजिये, सांस लीजिये। जलने वाली हर चीज़ एक रोज़ जल ही जाती है। धूप हो, उजाला हो, या शरीर। प्यार तो खैर बड़ी अनदेखी चीज़ है। जलने लायक हुई तो जल ही जायेगी। फिर कई बार मुझे लगता है ये कैसे जल पायेगा? क्योंकि प्यार में एक सतत गीलापन है, डेम्पनेस है। ये सीलन नमी की नहीं है। ये एक अलग तरह के अंधेरे की है। ठीक जैसे किसी मंदिर के अँधेरे गर्भ-गृह में होती है। आप अँधेरे के उस भीगे-निचुड़े तत्व को महसूस कर पाते हैं पर छू नहीं सकते। इसलिए अब मुझे लगता है कि प्यार मन भीतर खिलने वाला एक इंडोर प्लांट है। ये सब किसी डायरी के पन्ने नहीं हैं। डायरी मुझे लिखनी ही नहीं आती। ये चिठ्ठी भी नहीं है कि चिठ्ठी के मिजाज़ अलग हुआ करते हैं। ये कागज़ के टुकड़े पर लिखा गया कुछ ऊल-जलूल-सा है, ज़िन्दगी के रंग जैसा। हाँलाकि इसे देखने वाली सभी आँखें को रंगों की पहचान ही नहीं होती हैं। तो अपनी मर्ज़ी के लिहाज से, सुविधा के हिसाब से हर आदमी ज़िंदगी का अलग रंग मान लेता है। जैसे मैंने कभी ओक नहीं देखा पर सुना है कि इसके पत्ते गहरे लाल रंग के होते हैं, सुर्ख अंगारों की तरह। तो मैंने ज़िंदगी का रंग शाहबलूत के पत्ते की तरह गहरा लाल मान रखा है। जबकि पता है कि ज़िंदगी में स्याह-सफ़ेद का चक्का ज़्यादा है लाल रंग कम। हम ज़िंदगी भर एक असासा, एक पूँजी बनाने की कोशिश करते हैं। इस असासे को माँ-बाप दोनों मिल कर बनाते हैं। पर कई दफ़ा ये ज़िम्मेदारी किसी एक पर आ जाती है, तब मुझे ऐसा लगता है कि जो पूँजी माँ के हाथ तैयार होती है उसके मिजाज़ में एक नर्मी रहती है। इसके बनने से ज़्यादा सावधानी इसे खर्चने-बरतने में रखनी पड़ती है। ये ठीक वैसे है कि एक चाँद पहाड़ की ओट तले निकले और एक झील की सतह पे। मुश्किलें, परेशानियाँ झील वाले चाँद को ज़्यादा मिलती हैं। ये बार-बार परछाईयों में बनता है, बिगड़ता है पहाड़ के मजबूत चाँद से उलट। पर कहीं किस्से-कहानियों, गीत-ग़ज़लों में झील के चाँद के अलावा कुछ और सुना है? नहीं न! ज़िन्दगी का असासा शाहबलूत की सुर्खी से ले झील की चाँदी के बीच डोलता रहता है।
जैसे कई लोग काष्ठदारु को अशोक का पेड़ मान कर जीवन भर उस पर लाल-सफ़ेद फूल खिलने की आशा पाले फिरते हैं। ठीक वैसे ही उसने सड़क पार दूर किसी अजब से पेड़ को अपने मन की राहत के लिए शाहबलूत का नाम दे दिया था। दिनों-दिन बड़ी उम्मीद से खिड़की खोली जाती कि कोई तो पत्ता लाल दीखेगा। मौसम बदल रहे थे। दूर किसी ध्रुव के अजाने-वीरेने इलाके में किसी झील के ऊपर बर्फ़ लहक-लहक के झूल रही थी और तह-दर-तह जमा हो रही थी। कहीं किसी दूसरे देस में असल शाहबलूत के पत्तों का रंग बदल रहा था, लाल हो रहा था। उधर पहाड़ की बड़ी-बड़ी बाहों के नीचे खड़ा पेड़ आख़िर जाने क्यों एक ही पत्ते को संभाले खड़ा था? उसने सोचा जाने कब ये पत्ता रंग बदलेगा। हवा का एक झोंका जाने कब आया और अपनी चादर लहरा के शाम के सर पर ओढा दी। खिड़की के कोने पर बैठा कबूतर फड़फड़ा के उड़ गया। कैसे जाने शाख से बंधे पत्ते का टांका खट से टूटा और पत्ता आज़ाद। सड़क पर सर्रर्र से एक गाड़ी गुज़र गयी और ज़मीन पर आता पत्ता गाड़ी के साथ उड़ता-उड़ता दूर खो गया।
"लो ये भी तमाम हुआ।" उसने कहा और देर से पकड़ा हुआ खिड़की का पर्दा छोड़ दिया। वह पलटी तो उसने देखा कि पलंग पर जीजी से लिपटी एक छोटी बच्ची गहरी नींद में सो रही है। जुगनू ने महसूस किया कि मन की शाख का सूखा लाल पत्ता एकाएक हरा होने लगा है। वह मुस्कुराई और पर्दा खींच कमरे में अँधेरा कर दिया ताकि सोने वालों की नींद न टूटे!