शाहिद कपूर की दुविधा / जयप्रकाश चौकसे

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शाहिद कपूर की दुविधा
प्रकाशन तिथि : 14 अक्तूबर 2013


शाहिद कपूर ने बयान दिया है कि नामी नायिका नहीं होने के कारण उन्होंने फिल्म छोड़ दी। संभव है कि निर्माता ही उनके साथ काम नहीं करना चाहता, क्योंकि फटे पोस्टर से सफलता नहीं निकली। निर्मम फिल्म उद्योग में यह पहली और अंतिम घटना नहीं है, क्योंकि सारे समीकरण बॉक्स ऑफिस तय करता है। यह कितनी अजीब बात है कि अमेरिका में सिनेमा के प्रारंभिक चरण में मिल और कारखानों के निकट गोडावन में सिनेमा बनाए गए और गोडावन की सुरक्षा के लिए तैनात गार्ड के लिए बने छोटे कक्ष से टिकिट बेचे जाते थे, इसलिए 'बॉक्स ऑफिस' शब्द सौ साल बाद भी प्रचलन में है। गोयाकि चलायमान चित्रों का भविष्य संतरी-कक्ष से तय होता है।

शाहिद कपूर अपनी लगातार असफलताओं का कारण जानने का प्रयास नहीं कर रहे हैं और मिथ्या तथा झीने से आवरण के पीछे छुपने का प्रयास कर रहे हैं। जब गुरुदत्त की 'कागज के फूल' नहीं चली तो उन्होंने उसका भाग दो बनाने की जिद नहीं करके अवाम की पसंद की 'चौदहवीं का चांद' बनाई। राजकपूर ने 'मेरा नाम जोकर' की असफलता के बाद युवा कलाकारों के साथ 'बॉबी' बनाई जो एक तरह से अपने अधेड़ हो जाने की सहमति थी। जीवन के हर क्षेत्र में मनुष्य असफलता का पोस्टमार्टम नहीं करता और अपने स्वयं के रचे माया संसार को यथार्थ मानने की जिद करता है। दक्षिण के सफलतम निर्माता एलवी प्रसाद ने जीतेंद्र को लेकर एक फिल्म बनाई जिसकी असफलता पर उन्हेें यकीन नहीं हुआ और उसी कहानी पर लंबी शूटिंग करके 'जय विजय' पुन: प्रदर्शित की जो पहले से अधिक असफल रही। जीवन के हर क्षेत्र में सैद्धांतिक अडिगता के साथ अन्य मामलों में लचीला होना आवश्यक है।

शाहिद कपूर आत्म-मुग्ध व्यक्ति हैं और यथार्थ स्वीकार नहीं करते। वे अपने पिता पंकज कपूर की तरह प्रतिभाशाली नहीं हैं और उम्र के बदलते पड़ाव पर भी उनके चेहरे पर लड़कपन स्थायी रूप से जुड़ गया है, इसी कारण वे अस्वाभाविक लगते हैं। उनके अपने, दुरूह अवचेतन में बिंबों से संचालित यह व्यक्ति ना तो अभिनय क्षेत्र में सफल हो रहा है और ना ही प्रेम क्षेत्र में।

दरअसल शाहिद कपूर अपनी इस श्रेणी में अकेले नहीं हैं। प्राय: अभिनेता इसके शिकार हुए हैं। प्रतिभाशाली आयुष्मान खुराना भी खुशफहमी के शिकार हो रहे हैं और मात्र अपनी गायन प्रतिभा को ही मांजें तो सफलता मिल सकती है। इसी तरह 'भेजा फ्राय' के सफल विनय पाठक को चंद कॉमिक भूमिकाओं में सफलता के बाद मुगालता हो गया कि वे बतौर नायक फिल्म चला सकते हैं और गलत कहानियों के चयन से उन्होंने इतने हादसे रच दिये कि अब उन्हें कॉमिक सहनायक की भूमिकाएं ही मिल रही हैं जबकि इस क्षेत्र में वे जानी लीवर के थक जाने से बने शून्य को भर सकते थे। इस प्रवृत्ति का शिकार अभिनेता ही नहीं लेखक भी हुए हैं और हो रहे हैं। कोई भी लेखक लिखना नहीं छोड़ता, यह जानते हुए कि वह स्वयं अपना कैरीकेचर बनता जा रहा है। महान लेखक ज्ञानरंजन ने दशकों हो गए, कोई गल्प नहीं रचा। उनकी ओढ़ी हुई खामोशी एक तरह से मौजूदा गैर सृजन संसार का विरोध है। इस लंबे अपने बांझ सृजन काल में उन्होंने अनेक युवा कथाकारों को मार्ग दिखाया, अवसर जुटाए। गोयाकि वे अपनी इस 'पहल' के माध्यम से ही सक्रिय हैं। हम सारा जीवन बाहरी शत्रुओं से जूझने में स्वयं को खर्च कर देते हैं। जबकि हमारा अपना दुश्मन हमारे ही भीतर शक्ति संचित कर रहा होता है। इस 'हमज़ाद' से कब कौन बचा है? शाहिद कपूर अगर ईमानदारी से आत्म अवलोकन करें तो अभी भी उनके लिए अवसर हैं। तिरछे अक्षर