शाहिद नदीम का 'दारा' प्रेमीजी का 'स्वप्नभंग' / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :23 फरवरी 2015
स्तंभकार लेखक गुरुचरण दास के विकास और अर्थनीति के दृष्टिकोण पर सवाल उठाए जा सकते हैं परंतु उनके मानवीय कन्सर्न नि:संदेह उत्तम है। 'आप' की विजय के क्षण में उन्हें शाहिद नदीम के नाटक 'दारा' की याद आई, जिसे नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ने लंदन में खेला था। 'दारा' बताता है कि किस तरह विगत के सत्य वर्तमान को सार्थकता दे सकते हैं। शाहिद नदीम के नाटक 'दारा' की ही तरह हरिकृष्ण 'प्रेमी' का नाटक 'स्वप्नभंग' भी पुरानी घटना की नई प्रासंगिकता को रेखांकित करता है और कमतर शब्दों में कहना हो तो कहेंगे कि पाकिस्तान के लेखक शाहिद नदीम के 'दारा' का नैतिक सार हिंदुस्तानी नाटककार हरिकृष्ण प्रेमी का नाटक का नाम ही है 'स्वप्नभंग' तथा वर्तमान का नाइटमेयर (डरावना स्वप्न) भी इससे जुड़ा है। मायथोलॉजी को इतिहास नहीं बनाया जा सकता परन्तु इतिहास की गरिमा नष्ट की जा सकती है। किसी भी मनुष्य के रोजमर्रा जीवन के साधारण निर्णय से लेकर राजा तक के सभी निर्णय समय की धारा से प्रभावित होते हैं, कहीं कोई निर्णय मात्र उस क्षण का परिणाम नहीं है, जिसमें लिया जा रहा है। जब विगत को नजरअंदाज किया जाता है तो भविष्य धूमिल हो जाता है।
शाहजहां अकबर की परंपरा के शासक थे और यह धारा हिंदुस्तान की सांस्कृतिक सहिष्णुता से ही जन्मी थी। शाहजहां के पुत्र दाराशिकोव भी इसी विचारधारा में पले थे। दारा ने संस्कृत सीखी थी, बनारस से पंडितों को निमंत्रित किया था और वैदिक ग्रंथों का फारसी में अनुवाद हुआ जो कालांतर में फ्रेंच और जर्मन में अनुदित हुआ। शाहजहां की इच्छा थी कि विद्वान और सहिष्णु दाराशिकोव ही उनके बाद शहंशाह बनें परंतु उन्हीं का पुत्र औरंगजेब मजहब के सतही अध्ययन से कट्टरता की ओर झुका। यह कम आश्चर्यजनक नहीं कि धर्म के सतही ज्ञान या संकीर्ण व्याख्या का स्कूल औरंगजेब से शुरू हुआ ही उस पर खत्म हुआ तथा हर महान धर्म की मनमानी व्याख्या के मठ भी मौजूद हैं। उसने अपने भाइयों का कत्ल करके सिंहासन पर अधिकार जमाया तथा इसी घटना को हरिकृष्ण प्रेमी महान हिंदुस्तान का स्वप्नभंग मानते हैं तथा शाहिद नदीम भी इसे निर्णायक घटना मानते हैं। परन्तु ये दोनों ही इस तथ्य को नजरअंदाज करते हैं कि शासक वर्ग के निर्मम हो जाने मात्र से अवाम अपनी दृष्टि और संतुलन नहीं खो सकता, कहीं कहीं उसकी अपनी कमतरी भी उसे आसान और लोकप्रिय बात को सत्य समझने की गलती कराती है, क्योंकि अनेक निरंकुश राजाओं के कालखंड में भी अवाम सहिष्णु और संतुलित बना रहा है। औरंगजेब भी अपनी एक कमतरी का शिकार था कि उसका व्यक्तित्व अपने सहिष्णु शायर मिजाज पिता के उदार व्यक्तित्व की तीखी प्रतिक्रिया मात्र बनकर रह गया। उसने अपने पिता को युद्ध से रक्तरंजित तलवार लेकर मुमताज और शायरी की बांहों में सहजता से जाता देखा था परंतु उसकी परेशानी यह थी कि जिरहबख्तर उतारकर भी उसे लगता था कि वह उसे पहना हुआ ही है। उसे अपने पिता का ताज पर बेतहाशा खर्च करना उतना नहीं अखरा, जितना शाहजहां की नकल में अवाम का भी रोमांटिक हो जाता अखरा था। बहरहाल कोई भी इतिहासकार इस बात से इनकार नहीं करता कि औरंगजेब कुशल प्रशासक था और भ्रष्टाचार से मुक्त प्रशासन उसने दिया। इसी तथ्य में यह बात भी छुपी है कि मात्र मशीनवत विकास तंत्र की रचना से कुछ नहीं होता जब तक उसके समानांतर सांस्कृतिक मूल्यों की भी सुरक्षा और प्रसार नहीं हो। नेहरू इस संतुलित दृष्टिकोण के वाहक होते हुए वे सीधे सम्राट अशोक और अकबर की परंपरा के प्रतीक हो जाते हैं।
'आप' की विजय वैचारिक संकीर्णता पर प्रहार है और पूरे मामले में व्यक्तित्व का द्वंद्व नहीं वरन् विचारधारा के टकराव पर अवाज का सहिष्णुता के पक्ष में दिया मत है। यही गुरचरण दास कहते हैं। 'आप' के विजय दिवस उन्हें 'दारा' नाटक की याद आना सचमुच महत्वपुर्ण है। अनेक बार सामूहिक याद जरा देर से जागती है। स्मरणीय है कि स्वामी विवेकानंद अपने पत्रचार में जो स्वयं उनकी संस्था ने प्रकाशित किया है, एक जगह इस आशय की बात करे हैं कि एक अत्यंत विकसित हिंदुस्तान का वे स्वप्न देखते हैं जो हिंदु और मुसलमान के सहयोग से जन्मेगा।
शाहिद नदीम का नाटक 'दारा' हरिकृष्ण प्रेमी का 'स्वप्न भंग पढ़ना या दूर शहर करने में खेला जाना यकीनन अवाम और शासक वर्ग दोनों को हर तरह की संकीर्णता से बचा सकता है। क्या कोई नाटक या फिल्म निर्णायक प्रेरक हो सकती है? नन्हीं छेनी और मासूम से हथौड़े से ही पत्थर में आकृतियां उभरती हैं, जो कालांतर में 'अजंता' कहलाती हैं। इसी तरह अमेरिकन मॉडल का विकास नहीं वरन् महात्मा गांधी के आदर्श का विकास ही लाभदायक हो सकता है। टेक्नोलॉजी के साथ सांस्कृतिक मूल्यों की समानांतर धारा से ही समग्र विकास संभव है। किसी भी देश का सच्चा विकास देश के साधन परिश्रम से ही संभव है, विदेशी पूंजी के भरोसे बैठना आर्थिक उपनिवेश की राह आसान बनाना है। विकास का केंद्र अवाम होना चाहिए।