शिकंजे का दर्द / सुशीला टाकभोरे / पृष्ठ 1
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आत्म आलोचना: सुनील
"आ"ज हिन्दी साहित्य नई दशा-दिशा, स्त्रीविमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, अल्पसंख्याक विमर्श, युवा विमर्श के अंदोलन को लेकर जोर पकड़ता हुआ दृष्टिगोचर हो रहा है। वह हरपल-हरक्षण नईसोंच -नये विचारों को लेकर समाज विकास और प्रगति के लिए सदैव तत्पर रहता है। आज मानव समाज के उन्नति की आवश्यकतानुुरूप विविध विमर्शो का दौर चल पड़ा है। प्रांतीय, राष्ट्रीय, अतर्राष्ट्रीय स्तरों पर संगोष्ठी, सभा, सम्मेलन, चर्चासत्रों के माध्यम से विमर्शो में अभिव्यक्त होनेवाले मानवीय-अमानवीय परतों को सूक्ष्म अध्ययन का विषय वस्तु बनाकर विकास के सही-दिशा निर्देश लेखक और पाठकतक पहुँचाने का सक्रीय कार्य किया जा रहा हैं। सहृदय, युग सजग पाठक प्रशंसायुक्त वाणी से उसे साराबोर करता हैं।
हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य का बीजारोपन प्रेमचंद साहित्य से माना जा सकता हैं। इसके बाद वह कई खो-सा गया है। जो 1980 के उपरान्त उभरते हुए दिखायी देता हैं। यह पौधा 1995 के बाद लगातार फलता-फूलता नजर आने लगा हैं। कहानी, कविता, उपन्यास, आत्मकथा, संगोष्ठी सम्मेलन विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएँ, शोध पत्रिकाएँ शोध ग्रंथों के माध्यम से आज वह मोहनदास नैमीषराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि, हीराडोम, प्र.ई.सोनकांबळे, डॉ. कुसुम मेघवाल, डॉ.सोहनपाल सुमनाक्षर, डॉ.नारायण सुर्वे, डॉ.श्योराजसिंह बेचैन, लक्ष्मणशास्त्री जोशी, शरणकुमार लिंबाले, लक्ष्मण गायकवाड, सूरजपाल चौहान, डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे, दया पवार, मणि मधुकर, डॉ. सी.बी. भारती, डॉ. दयानंद बटोही, सुशीला टाकभोरे, कवंल भारती, डॉ. प्रेमशंकर, जय प्रकाश कर्दप, कौशल्या बैसंत्री, डॉ. सुखवीर सिंह, डॉ. चंद्रकान्त बराठे, डॉ. सुमनपाल, कुसुम वियोगी आदि के विशाल और शक्तिशाली रूप में उभरकर आ रहा हैं। दलित आत्मकथाओं के बारे में वाल्मीकिजी कहते हैं, ’’किसी भी दलित व्दारा लिखी आत्मकथा सिर्फ उसकी जीवनगाथा नही होती, बल्कि उसके समाज की जीवन गाथा भी होती हैं। लेखक की आत्म-अभिव्यक्ति होती हैं। उसके जीवन के दुःख, दर्द, अपमान उपेक्षा, आत्मकथा उसकी जाति एवं समाज के दुःख-दर्द और अपमान उपेक्षा इत्यादि को भी स्वर देता है।’’1 ’दलित’की यदि सच्ची, जीति-जागति तस्वीर देखनी हो तो वह दलित साहित्य में लिखी गयी आत्मकथाओं में दिखायी देगी। मनुवादी समाज के शिकार दलित साहित्यकारों ने उपेक्षा, छूआछूत, पीड़ा, विवशता, अन्याय, भूख, लाचारी, अभाव, दरिद्रता को जीया और भोगा । उसी की अभिव्यक्ति जब उन्होने आत्मकथाओं में की प्रत्येक सहायक पाठक जिसने इसे पढ़ा अपनी ऑंख से बहते हुए ऑंसुओं को रोक नही पाया। अपनी मुट्ठी को भीचते हुए व्यवस्था के विरोध में आक्रोश और विद्रोह ने मनुवादी मस्तिष्क को झंड़ोड़कर उसे अपने पैरोंतले रोंदते हुए अपना असंतोष प्रकट किया-
"’’मनु धर्म के दिमाग को खा गया है दीमक।
फिर भी सबको भा गया है दीमक।
हाथ, पेट, पैर का करता वह संचालन,
ऊपर बैठा मुस्कुराता, मुफ्त हो परिचालन।’’"
हिन्दी की पहली आत्मकथा 1995 में प्रकाशित मोहनदास नैमीशराय कृत ’अपने-अपने पिंजरे’ को माना जाता है। ’अपने अपने पिंजरे’ सन 1995 में प्रकाशित हुई। तब से लेकर आज तक हिंदी में आत्मकथाएँ लिखी जा रही है। भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था तले हजारों वर्षों से उपेक्षित जीवन जी रहे समाज का चित्रण आत्मकथाओं का मुख्य विषय हैं। मनुवादी व्यवस्था ने जिनके जीवन को अज्ञान, अंधकार विषमता तथा गुलामी में ढकेल दिया था और उनका जीवन नरकमय बना दिया ऐसे समाज में शिक्षा की प्रकाश रोशनी का आगमन हुआ और उस रोशनी को अपनाकर अपने दाहक अनुभवों की अभिव्यक्ति आत्मकथाओं में आने लगी’’2 मोहनदास के बाद ओमप्रकाश वाल्मीकि का ’जूठन’, सूरजपाल चौहान का तिरस्कृत, कौसल्या बैसंत्री का ’दोहरा अभिशाप’, डॉ.एन.ए. निमगडेजी का ’धूल का पंछी भादों’, डॉ.एम.एल. शहारे का ’यादों के झरोखें’, डॉ. जाटव का ’मेरा सफर मेरी मंजील’, श्यामलाल जैदिया का ’एक भंगी उपकुलपति की आत्मकथा’ तथा माता प्रसाद का ’झोपडी से राजभवन’ आदि प्रसिध्द आत्मकथाओं में सुशीला टाकभौरे का ’शिकंजे का दर्द’ अपना महत्वपूर्ण एवं अलग स्थान रखता हैं। यदि हिन्दी दलित आत्मकथाओं में महिला व्दारा लिखी गयी पहली आत्मकथा कौसल्या बैसंत्री की ’दोहरा अभिशाप’ है तो सुशीला टाकभौरे का ’शिकंजे का दर्द’ दलित महिला आत्मकथाकारों का आगाज है।
’शिकंजे का दर्द’ दलित नारी के शोषण के विरूध्द के संघर्ष की गाथा हैं। जंगल में शिकारी व्दारा कसे गये शिकंजे में, जब कोई जानवर फंस जाता है। मुक्ति के लिए उसके भीतर से दर्दनाक चीख बाहर निकलती है। वह जितना अपने आपको मुक्त करने के लिए छटपटाता है, दर्द उतनाही बढ़ते जाता है। दर्दनाक चीख, सिसकियॉं और कराह में तथा सिसकियॉं एवं कराह मुक वेदना में कब परिवर्तीत होती है पता ही नही चलता। वह मजबुर, लाचार, विवश होकर दर्द, पीड़ा, दुःख, को लगातार सहता पड़ा रहता है, जंगल के किसी एक कोने में तड़फ-तड़फकर मरने के लिए। दलितों में भी दलित समझे जानेवाली नारी मनुवादी समाज, दलित समाज, मनुवादी मनोवृत्तिवाले पुरूषीय समाज के शिकंजे में वह कई वर्षों से फॅंसी भीतर से मुक्ति के लिए छटपटाती अपने नारी जीवन को कोसने के लिए विवश दिखायी देती हैं। जन्म से लेकर मृत्युतक आत्मपीडन, पीड़ा, संत्रास, घूटन, अन्याय, अत्याचार, दुःख, दर्द, उपेक्षा को सहते-सहते मनुवादी समाज और मनुवृत्तिवाले पुरूषों के विरूध्द आज की दलित नारी में आक्रोश और विद्रोह प्रकट हो रहा हैं। वह समझ चुकी है कि यदि इस शिकंजे से मुक्ति पाना हो तो शिक्षा ग्रहन करनी ही होगी।
सुशीला टाकभोरे का जन्म मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के बानापुर में हुआ था। रेल्वेस्टेशन और बस स्टॅन्ड के पास दलितों की बस्ति थी। टाकभोरे जी पिछड़ों में भी पिछड़ी समझी जाती थी । ऊँच-नीच, छुआछूत की भावना सर्वत्र विद्यमान थी। तब गॉंवों में छुआछूत, जातिभेद बहुत जादा हुआ करता था। दलित भंगी गॉंव से बाहर कच्चे खपरेलों के घरों में रहा करते थे। स्वाभाविक ही था कि सुशीला जी का परिवार शोषण चक्र का शिकार हुआ था। समाज के शिकंजे का यह पहला दर्द था। जिसमें दलित समाज छटपटा रहा था।
स्त्रीयों को पढ़ाने लिखाने का रीतिरिवाज उस समय नही था। पढ़ने लिखने का रिवाज केवल लड़को को वह भी दलितेत्तर जातियों को ही था। दलितों में लड़का हो या लड़की पढ़ाने की रूचि नही थी। लड़कियों को तो केवल पालपोसकर उनका विवाह करने तथा ससुराल में पति की सेवा और जाति का काम करना ही कर्तव्य समझा जाता था। सुशीलजी के माता-पिता तथा नानी ने अच्छि तरह समझ लिया था कि जातिभेद, छुआछूत मनुवादी शोषन मुक्ति पाना है तो सबकुछ भूलकर अपमान, उपेक्षा, प्रताड़ना, उलाहना, सहते हुए शिक्षा ग्रहण करनी ही होगी। सुशीलाजी शिकंजे के इस दर्द को व्यक्त करते हुए कहती है, ’’सच यह था- कब आया यौवन, जान न पाया मन! शिकंजे में जकड़ा जीवन कभी मुक्त भाव का अनुभव ही नहीं कर पाया। जिन्दगी एक निश्चित की गई लीक पर चलती रही। वह उमंग कभी मिली ही नहीं जो योवन का अहसास कराती। उम्र के साथ कटु अनुभूतियों के दंश महसूस होते रहे। पीड़ा से छटपटाता मन मुक्ति का ध्येय लेकर आगे बढ़ता रहा। तब मुक्ति का मार्ग मैंने शिक्षा प्राप्ति को ही माना था।’’3
मनुवादी हिन्दुधर्म से सुशीलाजी ने अपने जीवन में बहुत दुःख सहा, मनु धर्मने दलित (भंगी) समाज को कभी अपना नही समझा। दलित समाज समझ नही पाया की वे हिन्दू है या उनका कोई धर्म भी है। ऐसे ही दर्द को प्रकट करते हुए वे कहती है, ’’हमारे लोगों का अपना कोई धर्म नहीं था। हिदू, मुस्लिम, सिख सभी धर्म के देवी-देवता, पीर-फकीर, गुरू और महापुरूषों को मानते थे। असल में यह मात्र अनुकरण था। हिन्दू कभी किसी दूसरे धर्म की बातों को नहीं मानते। हम मानते थे मतलब हम हिन्दू नहीं थे। हमें अपना धर्म पता ही नही था।’’4 दलित, मनुवादियों के नज़रों में इन्सान कभी था ही नही । उसने उसके साथ जानवर से भी गये गुजरे-सा व्यवहार किया था। आत्मकथाकार की नानी को गॉंव का ब्राह्मन पंडित दीन-हीन जीवन जीने के लिए कहता और उसे आदर्श बताता। शिकंजे के दर्द छटपटाहट से उत्पन्न आक्रोश को प्रकट करते हुए वे कहती है, ’’हिन्दू धर्म में नदी, पहाड़, पेड़, पौधे, जानवर सभी को महत्व और सम्मान दिया जाता है लेकिन अछूत मनुष्यों को कोई स्थान नहीं, कोई सम्मान नहीं। हिन्दू धर्म के आडम्बर में मिट्टी से बने पुतलों को भी भगवान की तरह पूजा जाता है । मगर इन्सानों को इन्सान नहीं मानते । यह हिन्दू धर्म की विडम्बना है, हिन्दू संस्कृति का कलंक है। लोग इसे ही धर्म कहते है।’’ 5 वर्षों से मनुवादी लोगोंव्दारा दलितों पर किये जानेवाले अन्याय-अत्याचार, सम्पूर्ण शोषण, दूजाभाव, सौतेला व्यवहार के कारण उसके भीतर की क्रोधाग्नि आज महत्वाला बन गई है। वह स्वातंत्र्य, समता, बन्धुत्व आदि को मांगने में विश्वास नही रखता अपितु छिनकर लेने को ही उचित ठहराता है।
आज से पैंसठसाल पहले भारत अंग्रेजो की पराधीनता की जंजीरों में जकड़ा गुलामी से भरा जीवन व्यतित करता था। भारत स्वाधीन हुआ और वह गुलामी की जंजीरों से आझाद हुआ । भारत ने प्रत्येक क्षेत्र में प्रगति की । संविधान में धर्म निरपेक्षता स्वीकारा गया। समता, बन्धुत्व की बात कही गयी। कई मायनों में यह सफल भी हुआ। पर दलित समाज पहले भी गुलाम था। और आज भी उस मानसिकता से मुक्त नही हो पाया है। हमारा देश चाहे कितना भी प्रगति का दम्मभरे पीड़ित, दलित, पिछडी़ जनजाति की और दृष्टिपात करने से ज्ञात होगा कि भले ही वह शरीर से सभ्य बन गया है। पर मन से वही मनुवादी प्रवृत्तिवाले लोगों का शिकार दिखायी देगा। आत्मकथा में रॅंगिंग का प्रतिरोध करनेवाले होनहार नवयुवक को प्राध्यापक से लेकर प्राचार्य तक सभी उसे मजदूर बनने के लिए विवश कर देते है। भंगी समाज विभिन्न मनुवादी रूढ़ि, परंपरा, अंधविश्वासों का आज भी मानसिक गुलाम दिखायी देता है। आत्मकथाकार मनुवादी समाज और मनुवादी गुलाम, भंगी समाज के प्रति शिकंजे के दर्द का आक्रोश प्रकट करते हुए कहती है, ’’देश को आझाद हुए बीस वर्ष हो चुके थे। फिर भी हम मानसिक रूपसे हम गुलाम थे। समाज में प्रगति-परिवर्तन की लहर चलने के बाद भी, वैज्ञानिक प्रगति होने के बाद भी, विश्व के प्रगतिशील देशों से संबंध जुड़ने के बाद भी हम अंधविश्वास में भटक रहे थे। हमें प्रगतिशील बनाने के लिए न तो सवर्णो को जरूरत थी, नही देश के शिक्षित समझदार कर्णधारों को और न ही देश की सत्ता के मालिक नेताओं को । वे हमें गुमराह करके ही हम पर शासन करना चाहते थे।’’6
नारी वषों से दोहरी जिंदगी जीने के लिए विवश दिखायी देती है। समाज और परिवार दोनों के शोषण के पाटों में वह सदा से ही पिसती चली आ रही है। दलित स्त्री तो इससे भयावह स्थिति से गुजरते हुए दिखायी देती है। सुशीलाजी का विवाह छत्तीस साल के टाकभौरे से हुआ था। अपने से उम्र में कई साल बड़े होने के बावजुद उन्होंने उनसे आधुनिक विचारों के होने के कारण विवाह किया था। किन्तु जल्द ही उनका भ्रम टूटे हुए काल की तरह चकनाचूर हो गया था। वह वही सदियों से चली आ रही पुरूषीय मानसिकता स्वामित्व, गुलामी, ताड़ना, मारना-पिटना, पैरों की जुती समजना, नौकरसा बरताव करना का शिकार हो गयी थी। वे आत्मकथा में एक स्थान पर इस दर्द को व्यक्त करते हुए कहती है, ’’ स्कूल से या बाहर से आने के बाद कभी-कभी टाकभौरे जी मेरे सामने पैर लम्बे कर देते । मेरा ध्यान न रहने पर हाथों से इशारा करके जूते उतारने के लिए कहते । मैं चुपचाप उनके पैरों के पास बैठकर जूते के फीते खोलती, जूते उतारती, मोजे उतारती । यह बात मुझे अजीब लगती थी।’’7
सुशीलाजी अधिक दिनों तक यह गुलामी कहॉं सहनेवाली थी। वह बचपन से ही शोषण से मुक्ति के लिए निरंतर संघर्ष कर रही थी। जब कॉलेज में अध्ययन कर रही थी तब कुछ सड़क छाप लड़को ने उन्हे परेशान करने का प्रयास किया पर वे नीड़र हो वहीं खड़े होकर लड़कों को देख ने लगी परिणाम स्वरूप लड़के वहॉं से भाग खड़े हो गये थे । पतिव्दारा पुनःपुनः किये जानेवाले अत्याचार से वह तंग आ चुकी थी। एक बार जब खर्चो के सन्दर्भ में उनके पति ने चप्पल निकाल कर उन्हे मारने की कोशिश की तब भीतर का आक्रोश, विद्रोह, प्रतिरोध, क्रांति के रूप में भड़क उठा, उन्होंने उसी चप्पल से अपने पति को शांत किया था। आज भारत के कई घरों में स्त्री पति व्दारा पीड़ित दिखायी देती है । डॉ. सरजू प्रसाद मिश्र इस सन्दर्भ में कहते है, ’’ज्यादातर कामकाजी स्त्रियों का स्वयं अपनी कमाई पर अधिकार नहीं है, उसे खर्च करने का निर्णय उनके हाथ में नहीं है । अधिकतर उनकी कमायी पति, पिता या परिवार के पुरूष सदस्य हथिया लेते हैं और बाहर नौकरी करना उनके लिए मजबूरी बन जाती है । इस प्रकार से घर और बाहर के दोहरे काम का बोझ उठाते हुए वे दोहरे शोषण की शिकार होती हैं ’’8
मानवता तब बदनाम होती है, जब वह एक मानव होकर दूसरे मानव को साहयता की स्थिति में उपेक्षित रखता है और तिरस्कार करते हुए घृणा करता है। केवल जातिवादी मानसिकता के कारण मृत इन्सान को कन्धा क्या उसे देखना तक मुनासिफ नही समझा जाता है। सुशीलाजी जहॉं किराय से रहती थी। इस मुहल्ले में जब उनकी सास का देहान्त होता है, तब उनकी सहायता के लिए वहॉं कोई भी नही आता। मानवता को कलंक लगानेवाला मानव का ऐसा घिनोना रूप मनुष्य के हृदय को बहुत भीतर तक ठेस पहुॅंचाता है। वे शिकंजे के इस दर्द को व्यक्त करते हुए कहती है-’’ जहॉं हम एक साल से रह रहे थे, उस मोहल्ले के लोग मुझसे एक शब्द नही बोले थे। इतनी बड़ी दुःखद -घटना होने के बाद भी संवेदना-सहानुभूति का भाव नही बता सके। किसी ने अपने बच्चों को भी वहॉं झांकने नही दिया। ऐसा असामाजिक व्यवहार ?’’9 जहॉं इन्सान से अधिक कुत्तों को महत्व दिया जाता है, वहॉं मानवता, नैतिकता, बन्धुत्व, समता, संवेदनाएॅं सबकुछ लज्जीत हो जाती है।
सुशीला जी को जीवनभर मनुवादी व्यवस्था, मनुवृत्तिवाले पुरूष के उपेक्षा, प्रताड़ना, उलाहना, मारपीट, गालीगलौज, अस्तित्वहीनता का शिकार होकर शिकंजे के दर्द को सहते रहना पड़ा और लगातार उससे मुक्ति के लिए वे संघर्ष करते रही। उन्हे तब अधिक दुःख हुआ। जब उनके ही दलित जाति के लोग उनसे उपेक्षा, घीन, तिरस्कार का भाव रखते हैं। जहॉं कचरा उठानेवाला कूंभार जाति का सफाई कर्मचारी उनका कचरा उठाते समय भुनभूनता है, वहीं पड़ोसी ब्राह्मण के घर के सामने विनम्रता प्रकट करता हुआ दिखायी देता है। इसी टीस, दर्द की अभिव्यक्ति यहॉं होते हुए हम पाते ’’दुश्मनी की लड़ाई दुश्मनों के साथ ठीक है। मगर जब अपना ही कोई व्यक्ति दुश्मनों के जैसा व्यवहार करने लगे तब गुस्सा भी आता है, अफसोस भी होता है कि वह प्रगति के विरूध्द अधोगति के जाल में फॅंसा है।’’10
अंततः हम कह सकते है कि दलितों में दलित समझी जानेवाली नारी उपेक्षा, प्रताड़ना, घीन, भूख, पिटाई, गालिगलौज, पीड़ा, दुःख, संत्रास, मनुवादी समाज मनुवादी पुरूष, के अन्याय के शिकंजे के दर्द को सहते हुए नारी में मुक्ति के लिए भीतर का आक्रोश प्रतिशोध, विद्रोह, क्रांति के रूप में प्रकट होते हुए दिखायी देता है। वह समझ गयी कि मनुवादी गुलामी से निकलकर स्वयं और समाज का यदि सही मायने में विकास करना है, तो समाज में परिवर्तन की लहर लानी होगी। यह परिवर्तन तब ही आयेगा जब शिक्षा, नीड़रता, सफलता का तेजधारवाल हत्यार हाथ में लहराता हुआ दिखायी देगा।
समाज में यदि सच में ही समानता लानी है, तो मनुष्य को तन और मन से सभ्य होना पड़ेगा । केवल तन की सभ्यता नैतिकता, मानवता का अवमूल्यन मात्र है। इसीलिए दुष्यंतकुमार की एक पंक्ति, मैं यहॉं उद्धृत करना चाहूँगा-
"वे मुतमईन है कि पत्थर पीघल नही सकता।
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए।11"
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