शिकस्त / कामतानाथ
गंगा की कटरी में लगे अमरूद के एक विशाल बाग में एक वृक्ष के नीचे बैठे हैं तीन ‘के’, यानी मैं कामतानाथ, मेरा मित्र कार्तिक और हम दोनों का ही मित्र, कालीचरन। बीच में सूखी लकड़ियों को, जिन्हें कालीचरन बाग से बीन का लाया है, जला कर उनकी आग में भुन रही है मांगुर मछलियां, जिन्हें हमने गंगा की छपक नली (अंग्रेजी अनुवाद-गैंजेज स्पिल) से कटिया लगा कर पकड़ा है। हमारे हाथों में कच्ची शराब के गिलास हैं और सामने जमीन पर पपीते के पत्तों पर भुनी हुई मछली, जिस पर नमक-काली मिर्च छिड़क कर नींबू निचोड़ा गया है। मगर यह तो कहानी का, यदि सच्ची घटनाओं को कहानी की संज्ञा दी जा सकती है तो, एक प्रकार से अंत है। तब आरम्भ क्या है?
आरंभ के लिए हमें आज से कुछ समय पीछे जाना होगा। हुआ यह कि आपातकाल के बाद जनता सरकार के दौरान जब एक ओर इस देश के भूतपूर्व (अथवा अभूतपूर्व!) प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने-ईश्वर (यदि होता है तो) उन्हें और लंबी आयु दे-इस देश की सरकार का कार्यभार संभाला और उसी के साथ इस देश को शराबमुक्त करने का फैसला लिया, तो दूसरी ओर कार्तिक ने कसम खाई कि किसी भी कीमत पर शराब नहीं छोड़ेगा। अतः बकौल मिर्जा गालिब कि खाने का प्रबंध तो अल्लाह करता है-क्योंकि कुरान पाक में लिखा है कि जितने मुंह उसने बनाए हैं, उनके भरने का इंतजाम भी वह करेगा-लेकिन शराब का प्रबंध बंदे को खुद करना पड़ेगा, कार्तिक ने भी शराबबंदी लागू होने से पहले ही जितनी शराब का प्रबंध वह कर सकता था, करने का निर्णय ले लिया।
अब देखिए, मुझे नहीं मालूम कि मिर्जा गालिब का यह किस्सा आपको मालूम है या नहीं। बहरहाल, यह मानते हुए कि संभव है, आपकी वाकफियत गालिब के जीवन की इस घटना से हो, लेकिन आपके अलावा और पाठक भी इस कहानी के हो सकते हैं, अतः उनकी जानकारी के लिए उस घटना का वर्णन मैं यहां कर देना अपना फर्ज समझता हूं। हुआ यह कि मिर्जा शराब के ठेकों से उधार शराब पिया करते थे। उधार शराब की बात से आप चौंकिए मत। वह जमाना ही कुछ और था। आज तो कवियों और शायरों को पनवाड़ी पान का एक बीड़ा भी उधार नहीं देगा, लेकिन उन दिनों ऐसी बात नहीं थी। उन दिनों समाज में शायरों की इज्जत थी। उन्हें उधार सामान देकर लोग स्वयं को गौरवांवित समझते थे। अतः सामाजिक रुतबे की इस आड़ में मिर्जा ने जम कर उधार की शराब पी। मगर एक बात तो है ही। जमाना कैसा भी हो, हर बात की हद होती है। उधार की भी। बल्कि उधार की हद और हदों से कुछ जल्दी ही पहुंच जाती है। सो एक ठेके पर मिर्जा का कुछ झगड़ा हो गया और उस ठेकेवाले ने मिर्जा को उधार देना ही बंद नहीं किया, बल्कि मिर्जा पर नालिश भी कर दी। फलस्वरूप मिर्जा को काजी के, हो सकता है शहर कोतवाल या फिर जो भी उन दिनों होता हो उसके, सामने पेश होना पड़ा। लिखा-पीढ़ी तो कुछ थी नहीं, अतः मिर्जा उधार की रकम से साफ इंकार कर सकते थे। लेकिन जैसा कि मैंने कहा, वह जमाना ही और था और मिर्जा ठहरे तरहदार आदमी, सो उन्होंने ठेकेवाले ने जो भी रकम बताई, बिना हील-इज्जत स्वीकार कर ली। लेकिन जब काजी ने मिर्जा से रकम चुकता करने की बात कही, तो मिर्जा ने अपनी मजबूरी जाहिर की।
जाहिर है, अगर मिर्जा के पास रकम होती, तो वे उधर पीते ही क्यों। अब, कानून कानून होता है और आजकल तो कभी-कभार रुपये-पैसों की चमक से चौंधियां कर दाएं-बाएं आंख की एक कोर खोल भी लेता है, उन दिनों वह पूरी तौर से अंधा हुआ करता था। राजा-रंक तक में कोई अंतर नहीं था उसकी दृष्टि में, फिर एक शायर की क्या मजाल! अतः काजी ने निर्णय लेने में रंचमात्र भी देर नहीं की और कर्ज की रकम अदा न करने के जुर्म में जुर्माना और जुर्माना न दे सकने की स्थिति में सजा बामशक्कत का फैसला सुना दिया। ऐसी हालत में एक ही बात हो सकती थी। वह यह कि मिर्जा जेल जाएं और वहां जाकर चक्की पीसें। सो काजी के इस सवाल के जवाब में कि मिर्जा जुर्माना भरेंगे या जेल जाएंगे, मिर्जा ने एक शेर पढ़ा, जो कुछ इस प्रकार था-
कर्ज की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लायेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।
इस पर शहर कोतवाल के आदमी आगे बढ़े और मिर्जा के हाथ पकड़ कर उन्हें हथकड़ी लगाने ही वाले थे कि काजी ने डपट कर उन्हें रोक दिया और जुर्माने की पूरी रकम अपनी जेब से भर दी, जो निश्चय ही उधार की रकम से ज्यादा थी। अतः जुर्माने की रकम से उधार की रकम काट कर ठेकेवाले को दे दी गई और बाकी रकम शाही खजाने में जमा कर दी गई और मिर्जा जेल जाते-जाते बच गए।
लेकिन यह तो एक ठेके की बात थी। मिर्जा तो कई ठेकों पर उधार की शराब पी रहे थे। अब जो उन ठेकेवालों को इस घटना का पता चला, तो वे भी अपनी लगभग डूबी हुई रकम को उबारने के इरादे से काजी के यहां मुकदमा दायर करने की बात सोचने लगे। हालांकि उन दिनों देश की आबादी आज की आबादी की चौथाई क्या दसवां हिस्सा भी नहीं रही होगी, लेकिन बात उन दिनों भी इसी रफ्तार से फैलती थी, जिस रफ्तार से आज फैलती है-जिससे यह साबित होता है कि बात फैलने का आबादी से कोई सीधा या टेढ़ा अनुपात नहीं है-सो बात फैली और फैलते-फैलते बादशाह सलामत यानी बहादुरशाह जफर तक पहुंची। हालांकि शायरी में जफर के उस्ताद मिर्जा जौक थे, लेकिन बादशाह सलामत गालिब की इज्जत जौक से किसी मायने में कम नहीं करते थे। अतः उन्होंने गालिब की मदद करनी चाही। लेकिन वह जानते थे कि गालिब आत्मसम्मानी व्यक्ति हैं, वह आज के पिछड़े हुए देशों की तरह किसी से भी सीधे मदद स्वीकार नहीं करेंगे। इसलिए मदद का कोई दूसरा रास्ता निकालना होगा, जो उन्होंने निकाला और मिर्जा को दरबार में ससम्मान बुलवा कर उनकी शायरी पर बतौर इनाम एक हजार अशर्फियां अता फरमाईं। अब अगर गालिब की जगह कोई दूसरा समझदार व्यक्ति होता, तो इतनी बड़ी रकम से अपने घर को सजाने-संवारने का कुछ इंतजाम करता, बीवी के लिए जेवर गढ़ाता या फिर देशाटन को निकल जाता और नहीं तो इतना तो करता ही कि जिस घर में सुबह की रोटी पकने के बाद शाम के लाले हों, कम-से-कम डेढ़-दो महीने का राशन-पानी लाकर तो रख ही देता। लेकिन गालिब साहब ने किया यह कि वहां से सीधे उन ठेकों पर पहुंचे, जिनका उधार बाकी था और सबका उधार अदा कर दिया। उधार चुकता करने के बाद भी कम-से-कम आधी रकम बच पाई। अब देखिए, मिर्जा करते क्या हैं! आखिरी ठेके पर उधार की रकम अदा करने के बाद अशर्फियों की थैली वहीं उसकी गद्दी पर उलट देते हैं। ठेके का मालिक चौंक पड़ता है।
‘‘गिनो, कितनी अशर्फियां हैं।’’
मालिक घबरा कर अशर्फियां गिनता है और बताता है कितनी हैं। मिर्जा वहीं किसी कुरसी या बेंच पर बैठ जाते हैं और कहते हैं कि इन अशर्फियों में जितनी भी शराब आए, सब ठेले पर लदवा कर मेरे मकान पहुंचवा दो। ठेके का मालिक अब भी घबराया हुआ है। वह मिर्जा को गौर से देखेता है कि क्या ये आज दोपहर से ही इतनी लगा आए हैं। लेकिन मिर्जा बराबर गंभीर बने बैठे हैं।
‘‘सुना नहीं तुमने?’’ वह कहते हैं।
मालिक घबरा कर सारा इंतजाम करता है। एक नहीं पूरे तीन ठेले शराब के मर्तबानों से भर जाते हैं। आगे-आगे मिर्जा और पीछे-पीछे ठेले। ‘‘गड्ढा बचा कर’’, ‘‘खांचा है, संभाल कर।’’ ‘‘धीरे से, हां,’’ मिर्जा कहते जाते हैं और आगे बढ़ते जाते हैं। घर करीब आने पर मिर्जा लपक कर घर के अंदर जाते हैं और बेगम को आवाज देते हैं, ‘‘बेगम, जल्दी दीवानखाना साफ करो, सामान रखवाना है।’’
बेगम चौंक पड़ती हैं! ‘‘सामान! कैसा सामान?’’ वह पूछती हैं। तब तक ठेले मकान के सामने आ जाते हैं।
‘‘यह क्या है?’’ बेगम पूछती हैं।
‘‘शराब, और क्या!’’ मिर्जा बहुत ही लापरवाही से कहते हैं।
‘‘या अल्लाह! इतनी शराब का क्या होगा? कहां से उठा लाए।’’ बेगम पूछती हैं।
‘‘उठा लाए? खरीद कर लाया हूं। पूरी रकम अदा की है।’’
‘‘इतनी रकम आई कहां से?’’ बेगम समझ नहीं पातीं।
‘‘कहां से आई? बादशाह सलामत ने इनाम बख्शा है।’’
‘‘तो मुई शराब ही लानी थी इस इनाम की रकम की। घर में एक दाना अनाज नहीं है। घी-तेल कब का खत्म हो चुका है। उसका इंतजाम कौन करेगा?’’ बेगम अब कुछ बिगड़ती हैं। मगर गालिब वैसे ही गंभीर बने हुए हैं। बहुत सी संजीदगी से जवाब देते हैं-‘‘उसका इंतजाम अल्लाह करेगा। कुरान शरीफ में पढ़ा नहीं तुमने कि जितने मुंह उसने बनाए हैं, उनके खाने का इंतजाम भी वह करेगा। अलबत्ता शराब का जिक्र उसमें नहीं है। इसलिए जाहिर है उसका इंतजाम बंदे को खुद करना पड़ेगा। सो मैं कर लाया।’’ इतना कह कर मिर्जा मजदूरों की तरफ मुड़ते हैं-‘‘हां भाई, ले आओ अंदर, टूटने न पाए, एक तरफ से लगाओ। देखो, इस कोने से शुरू करो।’’
थोड़ी देर में बादशाह सलामत को इसकी खबर पहुंची, तो खासा मूड खराब हुआ उनका। लेकिन वह आखिर बादशाह थे-रिआया परवर! अगर मूड खराब करके बैठ जाते तो मुल्क का इंतजाम कैसे चलता! इसलिए मूड पर काबू पाकर उन्होंने इस बार गालिब के घर पर चार-छह बोरे गेहूं, दाल, चावल और चार-छह टिन घी और तेल के यह कहकर भिजवा दिए की यह भी इनाम का एक हिस्सा है।
शराब दीवानखाने में लग ही रही थी कि बादशाह सलामत द्वारा भिजवाया गया राशन भी पहुंच गया। तब तक बेगम खासी नाराज होकर अंदर कमरे में बैठी कुढ़ रही थीं और ऐसे लावबाली आदमी से निकाह होने पर अपनी किस्मत को कोस रही थीं। गालिब ने राशन से भरे ठेले देखे और बादशाह सलामत द्वारा भिजवाया रुक्का पढ़ा, तो फौरन बेगम को आवाज दी। लेकिन बेगम ने उनकी आवाज अनसुनी कर दी। आखिर गालिब अंदर जनानखाने में गए और किसी तरह बेगम को बुला कर लाए और राशन से लदे ठेलों की ओर इशारा करके बोले, ‘‘देखा, मैं न कहता था कि खाने का इंतजाम अल्लाह करता है, सो कर दिया उसने इंतजाम। अब रखाओ इसे जहां रखवाना हो।’’ उम्मीद है, मुख्य कहानी में आए इस विषयांतर से आप बोर नहीं हुए होंगे। इतना सब मुझे इसलिए लिखना पढ़ा कि कार्तिक भी बकौल गालिब इस बात में विश्वास करता था कि खाने का प्रबंध ऊपर वाला करता है, जबकि पीने की व्यवस्था मनुष्य को स्वयं करनी पड़ती है। अतः उसने कानपुर ड्राई घोषित होने के पहले से ही अपनी भविष्य निधि यानी प्रॉविडेंट फंड से, कोऑपरेटिव सोसाइटी से और जितने प्रकार के और अडवांस उसे अपने ऑफिस से मिल सकते थे-मेरी तरह वह भी एक बैंक के काम करता है, जहां फेस्टिवल अडवांस, पंखा अडवांस, साइकिल अडवांस, स्कूटर अडवांस, फ्रिज अडवांस से लेकर कार अडवांस तक मिलता है-लेकर शराब का स्टॉक अपने घर में जमा कर लिया। चूंकि वह अविवाहित है, इसलिए गालिब की तरह बेगम से झगड़े का भी कोई भय उसे नहीं था।
उसके पास दो कमरों का एक मकान है। पीछे वाला कमरा साफ करवा के उसने उसमें बोतलें जमा कर लीं। टांड़ पर, अलमारी में, जमीन पर, मेज पर, यानी जो भी जगह कमरे में थी, उस जगह व्हिस्की, रम, जिन आदि की बोतलें सुसज्जित हो गईं। इस प्रकार मोरारजी भाई की चुनौती का सामना करने की पूरी तैयारी उसने कर ली और नशाबंदी के पहले ही दिन दो-तीन दोस्तों को घर पर बुलाकर अपने धर्मयुद्ध की घोषणा कर दी। गिलासों में व्हिस्की उंडेल कर, उसमें सोडा और बरफ मिलाई गई। तब कार्तिक ने अपना गिलास हवा में ऊपर उठा कर ‘‘टु हेल विद मोरारजी’’ का नारा बुलंद किया और गिलास होठों से लगा लिया।
इस प्रकार वह बिला नागा रोज मौज से मोरारजी भाई के नाम अपना विचित्र टोस्ट प्रस्तावित करके व्हिस्की, रम या जिन के घूंट अपने गले के नीचे उतारने लगा। प्रायः मैं भी उसके साथ होता, क्योंकि झूठ क्यों बोलूं, इस धर्मयुद्ध में मैं भी पूरी तरह उसके साथ था और स्टॉक जमा करने में मेरा भी अपनी क्षमतानुसार योगदान था। कभी-कभी कुछ अन्य मित्र भी आ आते। तब खासी महफिल जमती।
पीने वाला व्यक्ति प्रायः स्वभाव से उदार होता है। लेकिन कार्तिक कुछ ज्यादा ही उदार है। इसीलिए धीरे-धीरे शाम के समय उसके घर आने वाले दोस्तों की संख्या कुछ ज्यादा ही बढ़ती गई। दो-एक बार तो ऐसा भी हुआ कि कुछ दोस्त-यार किसी खास अवसर, जैसे घर में मेहमान आने या फिर घर में किसी शादी-ब्याह, मुंडन-छेदन आदि का बहाना बना कर उससे दो-एक बोतलें झटक भी ले गए।
यह अय्याशी एक-न-एक दिन खत्म होनी ही थी और हुई भी। तब तक कार्तिक ने मजबूर होकर एक दूसरा रास्ता निकाल लिया था। अब मोरारजी भाई की अकल को रोया जाए या रामनरेश यादव के, जो उन दिनों प्रदेश के मुख्यमंत्री थे, दिमाग की दाद दी जाए कि यह नशाबंदी पूरे प्रदेश में न लागू करके कुछ चुने हुए क्षेत्रों में ही लागू की गई थी। यानी कानपुर और लखनऊ तो ड्राई थे, लेकिन फतेहपुर, बिंदकी और बाराबंकी में खुले आम शराब बिक रही थी। अतः कुछ लोगों ने इसमें भी बिजनेस ऐंगिल ढूंढ़ लिया था और चोरी-छिपे फतेहपुर या बिंदकी से शराब लाकर कानपुर में उसे महंगे दामों में बेच रहे थे। कार्तिक के घर के सामने रघुबीर पानवाला भी, जहां से कार्तिक पान-सिगरेट आदि लिया करता था, यह धंधा कर रहा था। कार्तिक को यह पता चला, तो उसने बतौर एहतियात अपना स्टॉक खत्म होने से पहले ही रघुबीर से शराब लेनी शुरू कर दी। असलियत में उसने अपनी तमाम उदारता के बावजूद-और फिर उदार-से-उदार आदमी भी ऐसे लाखैरे दोस्तों से, जो रोज ही फोकट की शराब पीने आ जाते हों, एक दिन आजिज आ ही जाएगा-अपना स्टॉक छिपा लिया था। अब दोस्त भी लाख बेशर्म हों, कुछ-न-कुछ लाज तो निभानी ही पड़ेगी। सो अब दोस्तों के उदार होने की बारी थी। अतः बारी-बारी से दोस्तों ने पैसे देने शुरू किए और रघुबीर की दुकान से थैले में लपेट कर बोतल आने लगी।
तभी एक दिन रात के एक-डेढ़ बजे रघुबीर के घर पुलिस का छापा पड़ा-दुकान के पीछे ही घर था-और रघुबीर महाशय हथकड़ी पहन कर जेल पहुंच गए। मजबूरन कार्तिक को दोबारा अपने घटे हुए स्टॉक का सहारा लेना पड़ा। लेकिन इतनी चालाकी उसने जरूर बरती कि अब वह पूरी बोतल कभी भी बाहर कमरे में नहीं रखता। खाली बोतलों की कमी तो थी नहीं उसके यहां। अतः वह नई बोतल खोल कर उससे पीने भर की किसी खाली बोतल में भर लेता तथा उसे लेकर बाहर कमरे में बैठ जाता और किसी दोस्त के आने पर, ‘‘यार, बस इतनी ही है’’, कह कर माफी मांग लेता या फिर उसी में से एक-आध पेग उसे भी पिला देता। तभी कुदरत के इस नियम के अंतर्गत कि जो चीज इस्तेमाल की जाएगी, घटेगी ही, एक दिन वह भी आया कि कार्तिक का स्टॉक वाकई और बिल्कुल खत्म हो गया।
लेकिन कार्तिक ने तो कसम खाई थी कि वह किसी भी कीमत पर पीना बंद नहीं करेगा। बंद कर देता, तो उसे मोरारजी भाई से हार माननी पड़ती और शराब पीने वाला आदमी पेशाब पीने वाले आदमी से हार मान जाए, यह उसे मंजूर नहीं था। अतः वह बराबर नयी-नयी तिकड़मों की खोज में रहता और जल्द ही उसने शहर में जगह-जगह टिंचर-जिंजर से लेकर अवैध देसी अथवा विलायती शराब बिकने के कितने ही अड्डे खोज लिए। एक और खोज भी की हमने। वह थी डाबर की ‘‘मृत संजीवनी सुरा’’, जिसमें खासी मात्रा में अल्कोहल होता है और जो पीने वालों के लिए मोरारजी भाई के विरुद्ध इस धर्मयुद्ध में एक कारगर हथियार की तरह काम आ रही थी। कार्तिक भी इस बात पर उतर आया था कि कसम बरकरार रहे, चाहे जो पीना पड़े। आखिर यह देश महान ऋषियों-मुनियों का देश है, जो किसी भी बात पर जिद पकड़ लेते थे तो एक टांग पर वर्षों खड़े रहते थे। सांप बिच्छू उनके शरीर में अपने बिल बना लेते थे। मगर वह जिद नहीं छोड़ते थे। जबकि यहां तो सिर्फ पीने की बात थी। मजबूरी में ही सही, कार्तिक इस हद पर उतर आया था कि जिस पेय को भी शराब या दारू की संज्ञा दी जा सकती हो, या फिर जिसके पीने से नशा हो, उसे वह अपने धर्मयुद्ध में इस्तेमाल करने से हिचकेगा नहीं। क्या इतिहास में ऐसे प्रमाण नहीं हैं कि अस्त्र टूट जाने पर योद्धाओं ने रथ के पहियों तक से युद्ध किया है? महाभारत में अभिमन्यु ने ही रथ के पहिये को अपना अस्त्र बनाया था।
जैसा कि मैं पहले भी कह चुका हूं, कार्तिक के इस धर्मयुद्ध में मैं भी किसी सीमा तक उसके साथ शामिल था। अतः यह सारी बातें मेरे ऊपर भी कमोबेश उसी तरह लागू थीं, जिस तरह कार्तिक पर। अतः हम फेरबदल कर कभी टिंचर-जिंजर, तो कभी देसी शराब या मृत संजीवनी सुरा का सेवन करने लगे। एक महोदय तो, जिनके पास डॉक्टरी का कोई डिप्लोमा या सर्टीफिकेट था, उसे बाकायदा फ्रेम में मढ़ा कर अपने कमरे में लगा कर टिंचर-जिंजर या शायद होम्योपैथिक का कोई आउंस बेचने लगे थे। कमरे की अलमारी में दो और चार आउंस की शीशियां पहले से ही भरी रखी रहतीं, जिन पर कागज की खुराक वाली चिप्पी भी लगी रहती। यह बात और थी कि उनके मरीज बिना मर्ज का कोई जिक्र किए उनसे दवा खरीदते और सारी खुराक वहीं डॉक्टर साहब के दवाखाने में एक बार में ही खाली करके शीशी वहीं छोड़कर बाहर सड़क पर खड़े चाट के ठेले पर चाट खाने लगते। आपकी अनुमति से थोड़ा विषयांतर मैं फिर कर रहा हूं। घटना मृत संजीवनी सुरा से संबंधित है। हमारे एक दोस्त हैं विनय कुमार त्रिपाठी। हमारे इस धर्मयुद्ध में उनका भी कुछ सहयोग था। पक्के कामरेड तो वे नहीं थे, हां, फेलो ट्रैबलर की संज्ञा उन्हें जरूर दी जा सकती थी। उनके साथ समस्या केवल इतनी थी कि उनकी पत्नी शराब से बेइन्तहा चिढ़ती थी। अतः वह शराब पीने के बाद कम-से-कम आधा दर्जन इलाइची चबा कर ही घर जाते थे। प्रायः भोजन भी बाहर कर लेते और घर जाते ही पेट खराब होने का बहाना बना कर बिस्तर पर पड़ जाते। लेकिन मृत संजीवनी सुरा तो टॉनिक होता है। उसके लेबुल पर पेट के अनेक विकारों का-कुछ की जानकारी तो मुझे पहली बार उसका लेबुल पढ़ कर ही हुई-जिक्र है, जो उसके सेवन से ठीक हो जाते हैं। अतः त्रिपाठी जी कभी-कभी, बल्कि प्रायः घर पर ही, उसका सेवन करने लगे। अपनी पत्नी से उन्होंने कह दिया था कि किसी वैद्य ने उन्हें यह दवा बताई है। पत्नी बेचारी ने न तो शराब की बोतल कभी जिंदगी में देखी थी और न ही कभी सूंघी थी। उसे क्या मालूम कि वे क्या पीते हैं। और फिर सुरा की बोतल पर बड़े-बड़े अक्षरों में डाबर औषधालय छपा रहता है। अब डाबर का नाम तो इस देश में श्रीराम लागू के दूरदर्शन पर विज्ञापन आने के पहले से ही घर-घर में जाना जाता है। डाबर का च्यवनप्राश तो मिसेज त्रिपाठी स्वयं खा चुकी थीं। अतः त्रिपाठी जी शाम को घर जाकर आराम से नहा-धोकर मृत संजीवनी सुरा की बोतल लेकर बैठ जाते । साथ में कुछ दालमोठ, सलाद, आदि भी रख लेते और बेफिक्र होकर पीते। पत्नी को कुछ संदेह हुआ, तो उसने त्रिपाठी जी की अनुपस्थिति में बोतल पर लगे लेबुल को दोबारा ध्यान से पढ़ा। मगर उसमें पेट की अनेक बीमारियों के लिए रामबाण जैसा कुछ लिखा था। फिर भी उसकी शंका गई नहीं और अंततः वह एक दिन त्रिपाठी जी से पूछ ही बैठी कि यह कौन-सी दवा है, जो दो-चार चम्मच के बजाय आधी-आधी बोतल एक बार में पी जाती है और जिसके पीने के लिए सलाद और दालमोठ भी साथ में खाना जरूरी है। त्रिपाठी जी सहसा चौंक पड़े, लेकिन उन्होंने तुरंत बुद्धि से काम लिया ओर उसे समझाया कि बरसों का मर्ज है, इसीलिए दवा की खुराक भी ज्यादा है। वैसे दिन में चार-बार आधा-आधा कप पीना है, लेकिन बोतल लिए-लिए ऑफिस तो वह जा नहीं सकते, इसीलिए वैद्य जी की सलाह पर सारी खुराक रात में एक बार में ही ले लेते हैं। रही सलाद की बात सो वैद्य जी ने कहा है कि कच्चे फल और सब्जियां जितनी खा सको, खाओ और दालमोठ तो सिर्फ जायका ठीक करने के लिए लेते हैं, क्योंकि दवा खासी कड़वी है। अब इस देश की स्त्रियों को सिवा ‘‘धन्य हैं’’ के अलावा क्या कहा जाए कि त्रिपाठी जी की पत्नी इस बात से पूरी तरह संतुष्ट ही नहीं हुईं, बल्कि अब त्रिपाठी जी के बिना कहे ही स्वयं ही सलाद आदि काट कर शाम से ही रख देतीं।
तो इस तरह अदल-बदल कर हम कभी टिंचर-जिंजर, कभी होम्योपैथिक का आउंस, तो कभी मृत संजीवनी सुरा, या फिर देसी शराब, माल्टा या संतरा-एक बार गुलाब की भी एक बोतल हमें मिली-पीते रहे। लेकिन देसी शराब बाद में हमें छोड़नी पड़ी। हुआ यह कि एक बार एक बोतल से मिट्ठी के तेल की महक आ रही थी। खैर, उसे तो हम किसी तरह पी गए, क्योंकि धर्मयुद्ध जारी रखने की बात थी, लेकिन जब दोबारा एक बोतल में बाकायदा एक झींगुर और फिर एक दूसरी बोतल में एक काकरोच मरा मिला, तो हमने निर्णय लिया कि देसी शराब हम नहीं पिएंगे। टिंचर-जिंजर सिर पकड़ लेती थी, अतः उसे भी कभी-कभार के लिए ही रखा। मुख्यतः मृत संजीवनी सुरा पर ही निर्भर करना पड़ रहा था। तभी कार्तिक के ऑफिस के एक चपरासी ने एक दिन उसे सूचना दी कि गंगा पार कच्ची शराब मिलती है, जो पीने में कुछ हीक जरूर मारती है, मगर होती बढ़िया है। हमने सोचा चलो, इसे भी आजमाया जाए और एक शाम मोटर साइकिल लेकर हम गंगा पार पहुंच गए। कार्तिक का चपरासी रामदुलारा हमें पूर्व निश्चित स्थान पर मिल गया। उसके कहने के मुताबिक मोटर साइकिल वहीं छोड़ कर हम उसके साथ चल दिए। सड़क पर थोड़ी दूर चलने के बाद वह हमें दाहिने हाथ एक ढाल पर उतार ले गया। ढाल से ही कुछ-कुछ बंगला फिल्मों जैसा दृश्य हमें दिखाई दिया। सामने एक जलाशय, जो वास्तव में जलाश्य न होकर गंगा में आई बाढ़ के पानी के नीचे स्थान पर भर जाने से अस्थायी रूप से बन गया था; उसके दूसरी ओर वाले तट पर एक खाली नाव, खजूर के कुछ पेड़, दूर जलमग्न-सी लगने वाली कुछ झोपड़ियां और आकाश में डूबते हुए सूर्य का लाल-लाल गोला। इससे पहले कि हम समझ पाते कि दुलारा हमें कहां ले जा रहा है, उसने किसी ‘‘कालिया’’ को आवाज दी। दूसरे ही क्षण सिर से कमर तक नंगा एक व्यक्ति कहीं से आकर नाव पर सवार हुआ और नाव खेते हुए उसे इस पार ले आया।
‘‘आइए बाबूजी!’’ दुलारा ने हमसे कहा और संभल कर नाव पर सवार हो गया।
हम भी उसके पीछे-पीछे नाव पर चढ़ गए। कालिया ने हमें उस पार ले जाकर उतार दिया। हमसे एक चवन्नी उसे दिलवा कर दुलारा हमें लगभग कीचड़ में चलाता हुआ जिस स्थान पर लाया वह अमरूद की एक बगिया थी। एक स्थान पर छप्पर जैसा कुछ पड़ा था, जिसके नीचे तख्त पर अट्ठाइस-तीस वर्ष का दुबला-सा एक युवक बैठा बीड़ी पी रहा था। सामने अमरूद के एक वृक्ष के नीचे आठ-दस वर्ष के दो लड़के जमीन पर बैठे शराब बेच रहे थे। कुछ ग्राहक वहां पहले से थे। दुलारा हमें सीधा वहीं ले गया और लड़कों से शराब देने को कहा। रुपये अडवांस ले लेने के बाद उनमें से एक लड़के ने रबड़ के एक बड़े-से ब्लाडर की छुच्छी खोल कर तीन गिलासों में शराब भर दी।
‘‘ठीक से भर बेटा, ठीक से।’’ दुलारा ने कहा, तो उसने उसमें दो-चार बूंदें और टपका दीं।
गिलास लगभग ऊपर तक भरे थे। ‘‘इसमें पानी कैसे मिलाएंगे?’’ कार्तिक ने पूछा, तो दुलारा हंसा-‘‘इसे ऐसे ही खींचा जाता है बाबूजी!’’, उसने कहा और गिलास होंठ से लगाकर एक सांस में खाली कर दिया।
हमने देखा और लोग भी ऐसा ही कर रहे थे। एक सांस में खींच कर गिलास खाली करते और हाथ से मुंह पोंछते हुए चले जाते।
हम गिलास मुंह तक लाए तो एक विचित्र-सा भभका नथुनों में भर गया। ‘‘ऐसे तो न पी जाएगी’’, मैंने और कार्तिक ने लगभग एक साथ कहा।
दुलारा फिर हंसा, ‘‘अच्छा आइए, इधर बैठ जाइए।’’ उसने कहा और हमें छप्पर के नीचे बैठे उस आदमी के पास ले आया। तख्त पर हमें बिठाते हुए वह उससे बोला, ‘‘बाबू लोगों से खीचीं ही नहीं जा रही।’’ और फिर हंसने लगा।
हमने एक घूंट किसी तरह गले के नीचे उतारा।
‘‘ऐसे तो न चलेगी। कुछ खाने को न मिलेगा यहां?’’ कार्तिक ने कहा।
‘‘खाने को यहां क्या मिलेगा?’’ दुलारा ने कहा, फिर जेब में हाथ डालते हुए बोला, ‘‘लीजिए, मूंगफली पड़ी हैं कुछ। इसके साथ पीजिए।’’
हमने सिगरेट सुलगाई और धीरे-धीरे पीने लगे।
‘‘जल्दी कीजिए, गिलास ज्यादा नहीं हैं।’’ उस व्यक्ति ने हमें टोका।
दुलारा ने उसे समझाया, ‘‘हमारे दफ्तर के अफसर लोग हैं। पहली बार पी रहे हैं। तुम फिकर न करो, गिलास कम न पड़ेंगे।’’
इस बीच ग्राहक आते जा रहे थे। हमें लगा, वाकई गिलासों की दिक्कत पड़ रही है। अतः हमने किसी तरह बची हुई शराब गले के नीचे उतारी और उठकर खड़े हो गए।
‘‘चलो, चला जाए।’’ मैंने कार्तिक से कहा।
‘‘अरे एक गिलास में क्या होगा’’, दुलारा बोला, ‘‘एक-एक गिलास तो और लीजिए। यह कालीचरन का अड्डा है।’’ उसने उस व्यक्ति की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘सबसे बढ़िया शराब मिलती है यहां, सारे गंगा पार में। और सब तो साले नौसादर मिलाते हैं।’’
अब नौसादर की मनुष्य के रक्त में मिलने से क्या प्रतिक्रिया होती है, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन मुझे डर लगा कि कहीं यह भी नौसादर न मिलाता हो, अतः मैंने कहा, ‘‘मैं अब नहीं लूंगा।’’
मगर कार्तिक संतुष्ट नहीं था। ‘‘लोगे क्यों नहीं?’’ उसने कहा और दुलारा से तीन गिलास और लाने को बोल दिया। ‘‘बल्कि एक गिलास और लाओ इनके लिए भी।’’ उसने कालीचरन के लिए कहा।
मगर कालीचरन ने मना कर दिया। ‘‘नहीं-नहीं, आप लोग लीजिए।’’ उसने कहा।
‘‘अरे लो न भई, हमारी तरफ से है यह।’’ मैंने भी कहा। मन में सोचा, अगर यह लेगा, तभी मैं भी लूंगा।
कालीचरन मान नहीं रहा था। मगर बाद में दुलारा उसके लिए भी ले आया, तो उसने गिलास हाथ में ले लिया और एक ही सांस में उसे खाली कर दिया। दुलारा ने भी ऐसा ही किया। परंतु हम लोग आराम से पीते रहे। कालीचरन ने इस बार देर लगने पर कोई आपत्ति नहीं की। हमने उसे सिगरेट भी पिलाई एक।
दूसरे गिलास के बाद तो हम खासे मूड में आ गए। कार्तिक के कहने पर हम लोगों ने आधा-आधा गिलास और ली।
चलते समय कार्तिक ने एक रुपया अलग से उन बच्चों को दिया।
‘‘बहुत बढ़िया हैं साहब लोग’’, हम चलने लगे, तो दुलारा ने कालीचरन से कहा, ‘‘पहचान लो। आगे से आएं, तो कोई तकलीफ न हो इन्हें।’’
कालीचरन उठकर खड़ा हो गया। कार्तिक ने बाकायदा उससे हाथ मिलाया और हम उसी रास्ते से लौट आए, जिस रास्ते से गए थे।
इसके बाद तो अमरूद की वह बगिया एक तरह से हमारा स्थायी अड्डा ही बन गया। अकसर ही शाम को हम उधर निकल जाते। साथ में चना, चूड़ा, दालमोठ या मूंगफली जैसी कोई चीज लेते जाते और विशुद्ध मध्यवर्गीय अंदाज में पाल्थी मार कर तख्त पर बैठकर कालीचरन से बतियाते हुए उस बेहद हीक मारने वाली शराब की चुस्कियां लेते रहते। हीक के बावजूद थी वह जोरदार। टिंचर-जिंजर या सुरा की तुलना में तो निश्चित ही बेहतर थी। और सस्ती भी।
कार्तिक में एक गुण है। वह जिस किसी के भी संपर्क में आता है, जल्दी ही उससे ऐसी घनिष्ठता बना लेता है, जैसे सात पुश्तों से दोनों के दादा-परदादा एक ही थाली में खाते आए हों। यही कालीचरन के साथ भी हुआ। यहां तक कि कालीचरन अब हमें देखते ही तख्त झाड़ने-पोंछने तो लगता ही-इस बीच उसने, शायद हमारे लिए ही, एक फटी-पुरानी दरी की भी व्यवस्था कर ली थी-बल्कि प्रायः ही हमसे पैसे लेने में भी संकोच करने लगा। लेकिन कार्तिक उसे इस कहावत का हवाला देकर कि घोड़ा घास से यारी करेगा, तो खाएगा क्या, बराबर पैसा देता रहा। छुट्टियों में तो कभी-कभी हम दिन में ही वहां निकल जाते और बाकायदा पिकनिक जैसी मनाते। अमरूद की उसी बगिया में मिट्टी की हांडी में मीट बनता, सूखी लकड़ियों को जलाकर उन पर रोटियां सेंकी जातीं, या फिर मछलियां भुनतीं और केले या पपीते के पत्तों पर परोस कर भोजन किया जाता। एक बार शिकार का भी प्रोग्राम बना। कार्तिक अपने बैंक के सिक्योरिटी ऑफिसर को, जिसके पास एयरगन थी और जो इस नौकरी में आने से पहले आर्मी में कैप्टन होने और पाकिस्तान से भारत की दूसरी लड़ाई में भाग लेने का दावा करता था, बुला लाया। पाकिस्तान से लड़ाई के दौरान उसने क्या जौहर दिखाए थे, यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन उस दिन उसने जरूर कोई तीन घंटे बरबाद करने के बाद चार फाख्ता मारे, जिन्हें छील-छाल कर वहीं बगिया में मिट्टी की हांडी में पकाया गया और कच्ची शराब के साथ पेट में उतार दिया गया।
तभी एक दिन कालीचरन के बहुत कहने पर, या शायद कार्तिक की इच्छा से कालीचरन के घर पर प्रोग्राम बना। बगिया से थोड़ी दूर पर ही गंगा की रेती के निकट कुछ ऊंचाई पर उसका झोपड़ीनुमा मकान था। सामने कुछ खाली जमीन थी, जिसमें पपीते के दो-एक पेड़ लगे थे और बेशरम की झाड़ियां उगी हुई थीं। वहीं चारपाई डालकर कालीचरन ने हमें बिठाया। एल्यूमीनियम की तश्तरी में मीट परोसा। हां, शराब जरूर शीशे के गिलासों में पिलाई और शराब के पैसे भी, बावजूद हमारे जोर देने के, नहीं लिए।
उस दिन कालीचरन के बारे में हमें विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई। यह भी हमें पहली बार पता चला कि अमरूद की बगिया में जो बच्चे सुबह सात-आठ से रात के दस बजे तक रबर के ब्लाडर से शराब बेचते थे वे कालीचरन के ही बच्चे थे। अभी तक इसकी जानकारी हमें न होने का मात्र एक ही कारण, जो मैं समझ सकता हूं, शायद यह था कि हम अपने मन में यह मान बैठे थे कि कालीचरन उन्हें कुछ रुपये देकर यह धंधा करवा रहा है। कालीचरन की पत्नी को भी उस दिन हमने पहली बार देखा। वैसे वह हमारे सामने आ नहीं रही थी। कालीचरन या फिर उसके बच्चे ही बार-बार झोंपड़ी में जाकर जो कुछ लाना होता, ला रहे थे। लेकिन कार्तिक ने उसकी पत्नी को एक तरह से जबरदस्ती या फिर नशे के झोंक में यह कहने के लिए बुलवाया कि मीट बहुत अच्छा बना है। बात तो वैसे जबान से कही और कान से सुनी जाती है, लेकिन शायद यह प्रक्रिया तब तक पूरी नहीं होती, जब तक कहने-सुनने वाले एक-दूसरे का मुंह न देख लें। अतः कार्तिक ने जिद करके कालीचरन की पत्नी को बुलवाया ही नहीं, उसका घूंघट भी उतरवा दिया, जिसे उसने काफी संकोच के बाद ही हटाया।
घूंघट दो काम करता है। जहां वह एक हसीन सूरत को किसी की बुरी नजर से बचाता है, वहीं कुरूपता को दूसरों की नजर से छिपाता भी है। कालीचरन की पत्नी के साथ दूसरी बात लागू होती थी। वह खासी कुरूप औरत थी। मैंने और शायद कार्तिक ने भी पहली बार इतनी कुरूप महिला देखी थी। रंग तो उसका काला था ही, चेहरे की बनावट भी कुछ अजीब थी। ऐसा लगता था, जैसे हड्डियों के ढांचे पर खाल चढ़ा दी गई हो। लेकिन इस देश में तो, जहां निन्यान्वे प्रतिशत विवाह परिवारों के बीच तय होकर होते हैं, औरत महज घर बसाने के लिए होती है। और इस औरत के होते कालीचरन का घर भी बस गया था।
वैसे इस घर बसने के पीछे भी एक कभा थी। कालीचरन की पत्नी उत्तर भारत की न होकर दक्षिण भारत के किसी गांव की थी और उन भाग्यहीन संतानों में से थी, जिनके माता-पिता संतान के जन्म के दो-एक वर्ष बाद ही स्वर्ग सिधार जाते हैं और संतान को पालने-पोसने का भार किसी निकट संबंधी पर छोड़ जाते हैं। कालीचरन की पत्नी के केस में यह भार उसके मामा-मामी पर पड़ा था। उन्होंने उसे पाला भी। लेकिन जिदंगी भर तो कोई लड़की, इस देश में सगे-संबंधियों की बात छोड़ दीजिए, अपने मां-बाप के घर में भी नहीं पल सकती। एक उम्र के बाद उसे पालने की जिम्मेदारी कुछ धन-संपत्ति के साथ किसी दूसरे को सौंप दी जाती है। कुछ लड़कियां जरूर ऐसी होती हैं, जो स्वयं ही, कभी-कभी बल्कि प्रायः ही मां-बाप की मर्जी के खिलाफ किसी को समर्पित हो जाती हैं, लेकिन इस समर्पण के लिए यदि जिसके प्रति समर्पित हुआ जाता है निरा मूर्ख ही न हो तो, लड़की में कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता होती है, चाहे वे मानसिक हों या शारीरिक। और कालीचरन की पत्नी में ऐसे कोई गुण नहीं थे। अतः समर्पण की यह रस्म निभाने के लिए उसके मामा-मामी ने एक युक्ति निकाली। वह यह कि कार्तिक पूर्णिमा जैसे किसी शुभ अवसर पर वह उसे लेकर कानपुर गंगा स्नान करने आए और वहीं गंगा किनारे नहा-धोकर, उसे नहला कर, जो भी संकल्प मन में लिया हो, उसके साथ, उसे बिना कुछ कहे-सुने वहीं भीड़ में अकेला छोड़कर वापस अपने गांव चले गए।
दिन-भर उन्हें भीड़ में खोजने और लीटर-डेढ़ लीटर आंसू बहाने के बाद कालीचरन उसे मिल गया था और चूंकि कालीचरन भी दुनिया में अकेला था, यहां तक कि अपने मां-बाप का नाम भी उसे नहीं पता था और जब से होश संभाला था, तब से अपने-आपको गंगा पर बने रेल के पुल के नीचे यात्रियों द्वारा जल में फेंके गए पैसों की तलाश में पानी में गोते लगाते पाया था, अतः दोनों एक-दूसरे के साथ रहने लगे थे। वैसे इस तरह की घटनाओं से, चाहे वे किसी भी वर्ग में घटें, इस देश में काफी बवंडर होने की संभावना रहती है। लेकिन चूंकि कालीचरन की पत्नी-अब देखिए मैं बार-बार उसे पत्नी कह रहा हूं, हालांकि बाकायदा विवाह न होने की स्थिति में उसे कानूनी तौर पर पत्नी शायद नहीं कहा जा सकता, लेकिन अब जब उससे कालीचरन के दो संतानें भी हो चुकी थीं, तो और कहा भी क्या जाए! बहरहाल, चूंकि कालीचरन की पत्नी हद दर्जे तक कुरूप थी, अतः किसी भी तरह का कोई बवंडर नहीं हुआ और कालीचरन, जिसके रहने-खाने का अभी तक कोई ठिकाना नहीं था, एक झोपड़ी बना कर बाकायदा उसके साथ रहने लगा। अब चूंकि कालीचरन अकेला नहीं रह गया था, यानी एक ही जगह दो पेट भरने की व्यवस्था उसे करनी थी, इसलिए उसने इस बीच कई धंधे किए। गंगाघाट स्टेशन पर रुकने वाली रेलगाड़ियों और रेलवे क्रासिंग बंद होने पर दोनों ओर रुक जाने वाली यात्री बसों पर ककड़ी, जामुन, तरबूज, अमरूद या फिर केवल पानी बेचने से लेकर रिक्शा चलाने या फिर मछली पकड़ने-बेचने और मेले-ठेले के दिनों में किराए की नाव पर यात्रियों को इस पार से उस पार ले जाने और रिक्शे के मालिक से एक बार झगड़ा-टंटा हो जाने के कारण पुलिस की जद में आने के पश्चात पुलिस की मुखबरी करने तक अनेक धंधे वह अपना चुका था। और अब यह कच्ची शराब का धंधा चल रहा था।
हमारा ख्याल था कि इस धंधे में उसे खासी आमदनी थी, लेकिन उस दिन हमें पता चला कि इस धंधे से बस उसकी रोटी ही किसी तरह चल रही थी। आमदनी यदि किसी की हो रही थी, तो वह थी पुलिसवालों की, क्योंकि पूरे पांच सौ रुपये हफ्ता उसे उस क्षेत्र के थानेदार को पहुंचाना पड़ता था। उस पर भी कभी-कभार एक्साइज वाले छापा मार देते थे और पकड़े जाने पर उन्हें भी कुछ पूजना पड़ता था। यही कारण था कि वह स्वयं शराब न बेच कर अपने बच्चों से बिकवाता था, क्योंकि बच्चों के पकड़े जाने पर एक्साइज के सिपाही उनके पास जो रकम होती, उसे छीन-छान ब्लाडर में बची शराब वहीं जमीन में फेंक, चार-छह झापड़ रसीद कर, उन्हें दोबारा वहां न दिखाई देने की ताकीद कर चले जाते। उस दिन कालीचरन के घर पर उससे यह सारी कथा सुनने के बाद कार्तिक के मन के किसी कोने में छिपा हुआ समाज-सुधारक जाग उठा। इसके पीछे मूल कारण यह तो था ही कि समाज-सुधार के कुछ जरासीम उसके रक्त में शुरू से ही थे, दूसरा कारण यह भी था कि पुलिस की जरा भी ज्यादती देख या सुन कर उसका खून उबाल खाने लगता था। और चूंकि शराब खून के इस उबाल में कैटालेटिक एजेंट का काम करती है, इसलिए उसके खून ने शरीर में शराब की एक निश्चित मात्रा जाने के बाद, कुछ ज्यादा ही उबाल खाया और उसने कालीचनर से कहा कि वह दरोगा को रुपये देना बंद कर दे, जो होगा वह देख लेगा। या तो कालीचरन ने इतनी शराब नहीं पी थी, या फिर उसकी व्यवहारिक बुद्धि कार्तिक की बुद्धि की अपेक्षा कुछ अधिक थी, अतः उसने कार्तिक की इस बात पर हंसने के अतिरिक्त कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की।
कार्तिक को भी जल्द ही अपनी बात के अव्यवहारिक होने का एहसास हो गया, अतः उसने कालीचरन को दूसरी राय दी कि वह यह धंधा छोड़कर कोई दूसरा सम्मानजनक धंधा शुरू करे। कालीचरन इस बात के लिए राजी था। लेकिन समस्या धंधा चुनने और उस पर आने वाली लागत के लिए धन जुटाने की थी। अंततः कई दिनों तक दिमाग खपच्ची करने के बाद हम सबने मिलकर तय किया कि कालीचरन गंगाघाट स्टेशन और रेलवे पुल के बीच जाने वाली सड़क पर पान की दुकान खोले और यदि संभव हो, तो वहीं दुकान की बगल में भट्ठी जमा कर चाय का धंधा भी शुरू करे। चूंकि वहां से खासा ट्रैफिक गुजरता था, अतः हमें उम्मीद थी कि तीस-चालीस रुपये रोज की आमदनी तो धीरे-धीरे होने ही लगेगी। इसके लिए कम-से-कम तीन हजार रुपयों की आवश्यकता थी, जिसके लिए कार्तिक ने घोषणा की कि वह इतनी रकम कालीचरन को अपने बैंक से कर्ज दिलवा देगा। अब समस्या थी जगह की। खुश किस्मती रही कि उसका हल भी निकल आया। स्टेशन की तरफ वाली सड़क के किनारे की जमीन रेलवे की थी और संयोग से गंगाघाट स्टेशन का स्टेशन मास्टर कार्तिक का बचपन का एक दोस्त निकल आया। उसने कार्तिक से वहां दुकान लगाने के प्रति अपनी आंखें बंद करने का वायदा कर लिया। इसका एक कारण यह भी था कि उसकी वहां पोस्टिंग के पहले से ही रेलवे की जमीन पर कुछ लोगों ने अनधिकृत ढंग से कब्जा जमा रखा था।
इस प्रकार सारी योजना तय हो जाने के बाद कार्तिक कालीचरन को अपने बैंक ले गया और आवश्यक लिखा-पढ़ी के बाद उसे तीन हजार रुपये कर्ज दिला दिया। जमानत मैंने दी। दुकान बनने का ऑर्डर हमने पहले से ही दे रखा था। अगले ही दिन दुकान ठेले पर लदवा कर हम उसे यथास्थान ले आए। दुकान से संबंधित अन्य सामान भी, जिसमें ग्राहकों के पान खाने के बाद उसके होंठों पर रचने की प्रक्रिया को देख सकने की सुविधा के लिए एक बड़ा-सा शीशा भी था, ले आए और कालीचरन ने किसी पंडित से काशी में छपे हुए किसी पत्रे की सहायता से शुभ मुहूर्त निकलवा कर एक दिन अपने घर में सत्यनारायण की कथा करवाई तथा उसी दिन शाम उसी पंडित से दुकान का उद्घाटन करा दिया। दुकान के पहले ग्राहक हम और हमारे स्टेशन मास्टर मित्र बने। एक बीड़ा पंडित जी ने भी खाया, लेकिन उसके पैसे उन्होंने नहीं दिए।
दो-चार दिन में ही दुकान खासी चल निकली और जल्द ही कालीचरन ने चाय के लिए भट्ठी भी बिठा ली। कुछ नमकीन और बिस्कुट भी वह रखने लगा। अब भी हम अक्सर शाम को उधर ही निकल जाते। कालीचरन अभी भी हमारे लिए कहीं-न-कहीं से कच्ची शराब का प्रबंध कर देता, क्योंकि उसके अलावा भी वहां उसके कई अड्डे थे। हां, अब हम, लोगों की आंख बचा कर, उसकी दुकान पर ही पी लेते, या फिर कभी-कभी स्टेशन मास्टर की तरफ निकल जाते और उसके कमरे को पवित्र करते।
कार्तिक का सुधारवाद कालीचरन की दुकान खुलने तक ही सीमित नहीं रहा। वह और आगे बढ़ा और अब उसने कालीचरन को अपने बच्चों को स्कूल में भरती कराने की राय दी। इस सुझाव से कालीचरन को तो कुछ कम, लेकिन उसकी पत्नी को कुछ अधिक प्रसन्नता हुई। अंततः एक दिन कार्तिक स्वयं उसके बच्चों को ले जाकर एक स्कूल में भरती करा आया। कालीचरन की दुकान की आमदनी से ही उनकी फीस भरी गई, पुस्तकें आदि आईं और स्कूल की ड्रेस भी बनी। दोनों बच्चे समय से स्कूल जाने लगे।
तभी एक दिन शाम को उधर गए तो कालीचरन ने हमें बताया कि थाने के दरोगा ने उसे बुलाया था तथा हफ्ते की मांग की थी। कालीचरन ने उससे कहा कि उसने धंधा ही बंद कर दिया है तो उसने उसे एक मोटी-सी गाली दी, जिसे इस कागज पर नहीं लिखा जा सकता और बोला, ‘‘तो अब शरीफ आदमी बन गए? यह दुकान खोलने के लिए पैसे कहां से आए? किसके यहां सेंध मारी है?’’
कालीचरन ने बैंक से कर्ज लेने की बात कही तो उसने पहले से ज्यादा डबल गाली दी और उस पर आरोप लगाया कि वह अब दुकान की आड़ में धंधा कर रहा है। ‘‘मुझे सब मालूम है बेटा’’, उसने कहा, ‘‘जैसे थे वैसे रहो, नहीं तो अच्छी तरह से दुरुस्त कर दूंगा।’’ (दुरुस्त तो मुझे मजूबरी में लिखना पड़ रहा है, कहा तो उसने कुछ और ही था)। कार्तिक ने यह सुना, तो उसके खून ने फिर उबाल मारा और वह तुरंत दरोगा से बात करने जाने के लिए तैयार हो गया, लेकिन मैंने और मुझसे कुछ ज्यादा स्टेशन मास्टर ने उसे ऐसा करने से मना किया। गनीमत थी कि वह मान गया। हां, यह हम लोगों ने जरूर किया कि उस दिन से कालीचरन की दुकान पर पीना बंद कर दिया। अब हम फिर सुरा पर उतर आए, या फिर कभी-कभार कहीं से व्हिस्की या रम की कोई बोतल मिल जाती, तो बाकायदा नहा-धोकर उसे इस तरह ग्रहण करते, जैसे हजारों मील दूर से किसी तीर्थस्थल का प्रसाद किसी ने हमें लाकर दिया हो। कालीचरन की तरफ जाना भी हमारा कुछ कम हो गया।
तभी एक दिन मैं ऑफिस में बैठा काम कर रहा था कि चपरासी ने आ कर मुझसे कहा कि कोई औरत घूंघट काढ़े बाहर खड़ी मुझे पूछ रही है मैंने बाहर आकर देखा तो कालीचरन की बीवी थी। मुझे देखते ही वह रोने लगी। किसी तरह हिचकियों के बीच उसने मुझे बताया कि दोपहर पुलिसवालों ने आकर कालीचरन की दुकान का सारा सामान इधर-उधर फेंक दिया और उसे पकड़ कर अपने साथ ले गए। मैंने तुरन्त कार्तिक को फोन किया तो उसने मुझसे कहा ‘‘उससे कहो कि वह घर जाए मैं आ रहा हूं।’’ मैंने ऐसा ही किया।
थोड़ी ही देर में कार्तिक अपनी मोटरसाइकिल पर आ गया। तब तक मेरा ऑफिस भी बंद हो चुका था, अतः हम दोनों गंगा पार के लिए रवाना हो गए।
कालीचरन की दुकान पर पहुंचे तो देखा, उसकी दुकान का सारा सामान सड़क पर इधर-उधर बिखरा पड़ा था। उसकी पत्नी और दोनों बच्चे वहीं खड़े रो रहे थे। हमने आस-पास के लोगों से जानना चाहा कि आखिर बात क्या हुई, लेकिन कोई भी हमें निश्चित जानकारी नहीं दे सका। अतः यह अनुमान लगा कर कि पुलिस वाले कालीचरन को थाने ही ले गए होंगे, हम थाने की ओर चल दिए।
दारोगा थाने के अहाते में मेज-कुरसी डाले बैठा था। कार्तिक अपनी मोटरसाइकिल सीधे उसकी मेज तक ले आया और गद्दी पर बैठे-बैठे ही उससे बोला, ‘‘कालीचरन को आप लोग पकड़ कर लाए हैं?’’
दारोगा ने कुरसी पर बैठे-बैठे ही हमें घूर कर देखा। बोला, ‘‘मोटरसाइकिल किसकी इजाजत से अंदर लाए हो?’’
कार्तिक कुछ जवाब देता, इससे पहले ही मैंने उससे कहा, ‘‘चलो इसे बाहर ही खड़ी कर देते हैं।’’
कार्तिक को अच्छा नहीं लगा। लेकिन मेरे कहने से वह मान गया। मोटरसाइकिल सड़क पर लाकर हमने उसे एक किनारे खड़ी करके लॉक कर दिया और पुनः थाने के अंदर आ गए। तब तक दो-एक कान्स्टेबुल भी वहां आ गए थे।
‘‘कबूला कुछ साले ने?’’ हम वहां पहुंचे तो दारोगा उन कान्स्टेबुलों से पूछ रहा था।
‘‘अभी नहीं।’’ उनमें से एक ने कहा।
‘‘तोड़ दो साले की टांगें।’’ दारोगा ने कहा, ‘‘जब तक कबूले नहीं हाथ न रुके तुम्हारा।’’ इतना कहकर उसने दृष्टि हमारी ओर घुमायी और बिना कुछ बोले हमें घूमता रहा।
‘‘हमें पता चला है, आपके सिपाही कालीचरन को पकड़ कर लाए हैं।’’ कार्तिक ने कहा।
‘‘कौन कालीचरन?’’
‘‘जिसकी पुल के पास पान की दुकान है।’’
‘‘आप कौन हैं?’’
‘‘हम उसके दोस्त हैं।’’ कार्तिक ने कहा।
तब तक कान्स्टेबुल वहां से जा चुके थे, मगर उनकी जगह दूसरे दो आ गए थे।
‘‘इनको भी ले जाकर बंद कर दो हवालात में।’’ दारोगा ने कार्तिक की ओर इशारा करते हुए कान्स्टेबुलों से कहा।
कान्स्टेबुल हमारी ओर बढ़े जरूर, लेकिन शायद एक बार दारोगा से उसके आदेश की पुनः पुष्टि के लिए रुक गए।
‘‘देखिए, हम लोग बैंक में अफसर हैं।’’ कार्तिक ने कहा। वैसे वह अफसर न होकर मात्र असिस्टेंट हैं, लेकिन असिस्टेंट क्लर्क से ऊपर होता है, अतः इस बात में झूठ अधिक नहीं था और इतना झूठ तो इस देश में चलता ही है।
‘‘तो?’’ दारोगा के माथे के बल बदस्तूर बने रहे।
‘‘हम कालीचरन को जानते हैं, उसकी पत्नी हमारे पास आई थी। उसी ने हमें बताया कि पुलिस उसे पकड़ कर ले गई है। अगर आपने उसे बंद किया है तो हमें बताइए, नहीं तो हम उसे दूसरी जगह तलाश करें।’’ कार्तिक ने कहा।
‘‘बंद किया है।’’ दारोगा ने कुछ अंदाज से कहा कि अगला सवाल करने पर वह कार्तिक को बिना तले या भूने कच्चा ही चबा जाएगा।
‘‘देखिए ऐसा है,’’ आखिर मैंने हस्तक्षेप किया, ‘‘आप बिगड़ें नहीं। हम कालीचरन को जानते हैं। हमने उसे पान की दुकान खोलने के लिए बैंक से कर्ज दिया है (कर्ज हमने दिया नहीं, दिलवाया था, लेकिन बात को इस ढंग से कह कर मैंने उस पर कुछ रोब मारना चाहा) अगर उसने कोई ऐसा जुर्म किया है, तो आप हमें बताएं, हम उसकी जमानत का प्रबंध करेंगे।
‘‘अच्छा तो आपने ही उसे दुकान कराई है!’’ दारोगा ने कुछ इस तरह कहा, जैसे हमने दुकान न करवा कर बलात्कार करवाया हो।
‘‘कराई नहीं, केवल उसके लिए कर्ज दिलाया है।’’ मैंने कहा।
‘‘आपका भी हिस्सा होगा उसमें?’’ दारोगा ने इस बार ऐसे अंदाज में कहा, जैसे उसने सारा राज समझ लिया हो।
‘‘ऐसा ही समझ लीजिए।’’ उत्तर कार्तिक ने दिया।
‘‘तो बजाय उसकी जमानत के अपनी जमानत का इंतजाम कीजिए।’’
‘‘मैं आपकी बात समझा नहीं।’’
‘‘ऐसे नहीं समझोगे, रात-भर हवालात में रहोगे, तो समझ में आ जाएगा।’’
मुझे लगा कि बात फिर बिगड़ रही है। ‘‘देखिए, आप बिगड़िए नहीं,’’ मैंने कहा, ‘‘केवल हमें यह बता दीजिए कि उसका जुर्म क्या है! और अगर थाने से उसकी जमानत हो सकती हो, तो उसका प्रबंध हम करें।’’
इस बार दारोगा उठकर खड़ा हो गया-‘‘मेरी खोपड़ी मत खाओ। अगर अपनी खैरियत चाहते हो, तो यहां से चलते-फिरते नजर आओ।’’
‘‘क्या हम कालीचरन से एक मिनट बात कर सकते हैं?’’ मैंने पूछा।
‘‘नहीं!’’ उसने कड़क कर कहा और अंदर कमरे में चला गया।
मुझे लगा, उससे अधिक बात करना दीवार पर सिर पटकने से शायद ही कुछ बेहतर हो, अतः मैंने कार्तिक की बांह पकड़ी और लगभग घसीटता हुआ उसे बाहर ले आया। उससे चाबी लेकर मैंने मोटरसाइकिल स्टार्ट की और उसे पीछे बिठा कर थोड़ी दूर पर होटल के सामने मोटरसाइकिल पार्क करके हम उसमें चाय पीने के लिए घुस गए।
जैसा कि हर हिंदुस्तानी की आदत होती है, देर तक हम अपने नपुंसक गुस्से को गालियों में ढालते रहे। बातों-ही-बातों में मैंने उस नामाकूल दारोगा को लाइन हाजिर करवा दिया। लेकिन कार्तिक इससे संतुष्ट नहीं था, अतः उसने उसे सस्पेंड करवा डाला। अंततः इस तरह की हवाई कलाबाजियों से जब हमारा गुस्सा कुछ शांत हुआ, तो हमने नए सिरे से सोचना शुरू किया कि हमें क्या करना चाहिए।
पुलिस से निपटने के इस देश में दो ही रास्ते हैं। एक जो किंचित सरल रास्ता है, लेकिन हमारे शब्दकोश में जिसकी एंट्री नहीं है, वह है पैसा। यानी पैसा पिलाओ और काम निकालो। लेकिन जैसा कि मैंने कहा, यह रास्ता हमारे शब्दकोश में था ही नहीं। दूसरा रास्ता है नेता। यानी किसी नेता को पकड़ो और उसके माध्यम से काम कराओ और नेता अगर सत्तादल का हुआ, तब तो काम हुआ ही समझो। लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य ही था कि हम किसी ऐसे नेता को भी नहीं जानते थे। तभी हमें अचानक अफजाल साहब का ख्याल हो आया, जो नामी वकील होने के साथ-साथ माने हुए वामपंथी नेता भी थे और एक जमाने में बैंक यूनियन के अध्यक्ष भी रह चुके थे। अपने भाषणों में कितनी ही बार उन्होंने सरकार के खिलाफ आग उगली थी और पुलिस की तो बखिया ही उधेड़ कर रख दी थी। एक बार स्वयं एम. एल. ए. का चुनाव लड़ चुके थे और अनेक बार दूसरों को लड़ा चुके थे। कार्तिक, उसने उस दौरान, जब वह बैंक यूनियन के अध्यक्ष थे, उनसे कई बार मिल भी चुका था। नाम से नहीं तो कम से कम शक्ल से वह उसे जानते भी थे। हमने तय किया कि उन्हीं से राय ली जाए।
होटलवाले का बिल चुकता करके हम वापस कालीचरन की दुकान आ गए। अब तक उसकी पत्नी रो-रो कर थक चुकी थी और निढाल-सी वहीं सड़क के किनारे बैठी थी। दोनों बच्चे भी रोना भूल कर कंचा खेलने में मशगूल थे। दुकान का सामान, जो सड़क पर बिखरा पड़ा था, उसे समेट कर किसी ने वैसे ही बेतरतीबी से दुकान में ढेर कर दिया था। हमें आता देख कर कालीचरन की पत्नी उठकर खड़ी हो गई और बहुत मायूसी से उसने हमारी ओर देखा। हमारे पास उससे कहने लायक कुछ नहीं था। अतः हमने उसे दुकान में ताला लगा कर घर जाने को कहा और उसे यह आश्वासन देकर कि कल तक कालीचरन छूट जाएगा, शहर चले आए।
कोई आठ बजे हम अफजाल साहब के बंगले पहुंचे, लेकिन उनसे मिल कर हमें अधिक आशा नहीं बंधी। उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारे पास क्या सबूत है कि पुलिसवाले हफ्ता लेते हैं?’’
‘‘सबूत तो कोई नहीं, लेकिन है यह सच।’’ हमने कहा।
‘‘कानूनू की निगाह में बिना सबूत के कुछ भी सच नहीं होता।’’ उन्होंने कहा, ‘‘और फिर हफ्ते की बात तो बाद में आती है, पहली बात तो यह है कि शराब बेचना अपने आप में गैरकानूनी ही नहीं, जुर्म भी है। कॉगनीजिबुल अफेंस।’’
‘‘जुर्म तो है, लेकिन कराते तो सब पुलिसवाले ही हैं। नहीं तो जब उसने यह धंधा बंद कर दिया और अब शांति से पान की दुकान चला रहा है तो उससे छेड़छाड़ करने की क्या जरूरत? अभी फिर वह धंधा शुरू कर दे और उन्हें हफ्ता पहुंचाने लगे, तो कुछ न हो।’’
‘‘मैंने कहा न भाई, सबूत चाहिए सबूत।’’
‘‘इंक्वायरी करा ली जाए।’’
‘‘कौन करेगा इंक्वायरी?’’
‘‘पुलिस अधीक्षक स्वयं कर लें।’’
‘‘तुम क्या समझते हो, हफ्ते की रकम में उनका हिस्सा नहीं होता होगा?’’
‘‘सी. आई. डी. या फिर सी. बी. आई.’’
‘‘किस दुनिया में रहते हो? बड़े-बड़े कांड हो जाते हैं, कुछ होता है? यह सब महकमे उनके खिलाफ काम करते हैं, जिन्हें सरकार फंसाना चाहती है। सरकार की मदद के लिए हैं ये, जनता की मदद के लिए नहीं। समझे!’’
हमने उनसे कहा कि वह किसी पुलिस अधिकारी को फोन ही कर दें, तो हम जाकर उससे मिल लें। कम-से-कम उसकी जमानत तो हो जाएगी। मगर अफजाल साहब ने हमें एक नयी बात बताई। नयी इसलिए, क्योंकि पहले से हमें जानकारी नहीं थी। वह यह कि गंगा पार का इलाका कानपुर जिले में न पड़ कर उन्नाव जिले में आता था। अतः कानपुर जिले का कोई भी अधिकारी इसमें सहायक नहीं हो सकता था। अब हमारे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं था कि हम अपने गम और गुस्से को शराब के गिलासों में डुबो कर, कल जो होगा देखा जाएगा, कहकर आराम से सो जाएं। अतः अफजाल साहब के बंगले से निकल कर हमने यही किया।
अपने-अपने ऑफिस से अवकाश लेकर हम दूसरे दिन जब गंगा पार पुलिस थाने पहुंचे, तो वे लोग कालीचरन को कचहरी ले जा चुके थे। हम वहां से कार्तिक की मोटरसाइकिल पर सीधे कचहरी भागे। जब तक हम पता करें कि उसे किस कोर्ट में पेश किया गया है, उसे जेल के लिए रिमांड हो चुकी थी। काफी भाग-दौड़ करके हमने किसी तरह उसकी जमानत कराई और जेल जाकर उसे रिहा कराया। शाम कोई सात बजे के आस-पास, जब हम उसके साथ उसके घर पहुंचे, तो उसकी पत्नी अपने बच्चों के साथ घर के बाहर ही उदास बैठी थी। कालीचरन को देखते ही वह प्रफुल्लित हो उठी और उसके सारे शरीर पर हाथ फिराने लगी। तभी उसने कालीचरन की कमीज उठा कर देखा। उसकी पीठ पर डंडों के निशान थे, जिससे हमें पता चला कि पुलिस वालों ने उसे खासी मार लगाई थी। कालीचरन की पत्नी उसके घावों को देर तक सहलाती और पुलिसवालों को लानत-मलामत भेजती रही कि जिसने भी उसे मारा हो, उसके सारे शरीर में कोढ़ फूटे, सारे अंग गल-गल कर गिरे आदि। तभी कालीचरन ने उसका हाथ झटक दिया-‘‘अरे छोड़ भी न अब। बाबू लोगों के लिए कुछ खाना-वाना बना। सुबह से भूखे हैं।’’
हमने मना करना चाहा, लेकिन कालीचरन ने हमें जिद करके रोक लिया। पत्नी को चूल्हा जलाने का आदेश देकर वह उससे कुछ पैसे और एक थैला लेकर चला गया। थोड़ी ही देर में वह एक बड़ी-सी मछली और एक छोटे जेरीकेन में कच्ची शराब लेकर लौट आया। हम बाहर सहन में ही खाट पर बैठ कर शराब पीने लगे।
कचहरी में हमें पता चला था कि पुलिस ने कालीचरन के ऊपर यह इल्जाम लगाया था कि वह पान की दुकान पर गांजा और चरस बेचता है। जाहिर है कि बात रुपये में सोलह आने, या आने तो अब होते नहीं, सौ पैसे गलत थी। लेकिन पुलिसवालों ने बाकायदा कपड़े की एक सीलबंद पोटली में गांजा और चरस कोर्ट में जमा किया था, जो उनके अनुसार पुलिस के गवाहों के सामने उसकी दुकान से बरामद हुआ था।
शराब पीते-पीते कार्तिक फिर गुस्से में आ गया और संबंधित दारोगा को लाइन हाजिर और सस्पेंड कराने लगा। लेकिन यह हवाई कलाबाजियां ही थीं, जिनसे दिमाग का बुखार भले कम हो जाए, वस्तुस्थिति में कोई अंतर पड़ने वाला नहीं था। अतः दूसरे दिन हमने ठंडे दिमाग से समस्या पर नए सिरे से गौर किया और यह तय किया कि हम जाकर जिले के पुलिस अधीक्षक से मिलें और उसे सारी स्थिति से अवगत कराएं। इस देश में क्या एक आदमी को इतना अधिकार भी नहीं है कि ईमानदारी से अपनी रोजी कमा सके? मान लिया कि वह गलत आदमी है। लेकिन गलत आदमी सुधर भी तो सकता है। देश की कानून-व्यवस्था का भी तो आखिर वही उद्देश्य है कि गलत काम की सजा वह जरूर दे, लेकिन अंततः एक गलत आदमी को सुधरने का मौका भी दे। जब डाकुओं तक के पुनर्वास की योजनाएं चलाई जाती हैं तो कालीचरन तो अधिक-से-अधिक एक मामूली मुजरिम ही कहा जाएगा। उसका जुर्म यही तो था कि उसने कुछ दिनों अवैध ढंग से शराब बेची। वह भी पुलिस की जानकारी में। उन्हें बराबर पांच सौ रुपये हफ्ता देकर। अब अगर वह यह धंधा बंद करके एक शरीफ आदमी की तरह रहना चाहता है, तो उसे क्यों परेशान किया जा रहा है?
पुलिस अधीक्षक से मिलने में हमें कोई कठिनाई नहीं हुई। हमने उसे बताया कि हमने कालीचरन को दुकान खोलने के लिए बैंक से कर्ज दिलाया है। हम उसे अच्छी तरह जानते हैं। हमें पूरा विश्वास है कि पुलिस ने उसे बिना कुसूर फंसाया है। हमने दारोगा की शिकायत भी की कि उसने कालीचरन को हवालात में बुरी तरह से पीटा और हमसे अशिष्ट व्यहार किया तथा हमें उससे मिलने तक नहीं दिया। शराब और पुलिस को हफ्ता देने वाली बात हम जान-बूझ कर बचा गए।
पुलिस अधीक्षक ने हमारी बात धैर्यपूर्वक सुनी। बोला, ‘‘ठीक है, मैं देख लूंगा। आप उससे कहिए, दुकान खोले। अगर, जैसा आप कहते हैं, वह कोई गलत काम नहीं करता, तो पुलिस उसे तंग नहीं करेगी।’’
हम वापस चले आए। उसी दिन शाम से उसकी दुकान दोबारा खुल गई। लेकिन एक महीने के अंदर ही पुलिस कालीचरन को दोबारा पकड़ ले गई। इस बार उस पर मालगाड़ी के डिब्बों से कपड़े की गांठें चुराने का इल्जाम लगा। उसे पुलिस हिरासत में बुरी तरह पीटा भी गया। जमानत भी बड़ी मुश्किल से हुई। कोई एक महीना उसे जेल में रहना पड़ा। एक बार फिर हम पुलिस अधीक्षक से मिले। लेकिन इस बार उसने ठीक से बात तक नहीं की। उल्टे बेढंगे किस्म के सवाल हमसे करने लगा कि हम उसे कैसे जानते हैं, दुकान के लिए उसे कर्ज दिलाने में हमारा क्या स्वार्थ है, आदि-आदि। अंत में उसने हमसे कहा, ‘‘देखिए, वह पुराना मुजरिम है। पुलिस के रिकॉर्ड में उसकी पूरी केस हिस्ट्री है। इसलिए अगर आप अपना भला चाहते हैं तो इस पचड़े में न पड़ें।’’
व्यवस्था के खिलाफ अपना सारा रोष मुंह में जमी लार के साथ अपने पेट में उतार कर हम वहां से अपना-सा मुंह लेकर लौट आए।
हाईकोर्ट से जमानत होने के बाद कालीचरन जब जेल से छूट कर आया, तो इतना बदल गया था कि उसे पहचानना मुश्किल था। दुबला तो वह हो ही गया था, एक पांव से लंगड़ाने भी लगा था। इस बीच किसी ने उसकी दुकान का ताला तोड़ कर सारा सामान भी साफ कर दिया था। केवल लकड़ी का ढांचा रह गया था। उसके बच्चों के नाम भी स्कूल से कट गए थे और अगर हमने उसकी पत्नी की इस बीच दो-एक बार पैसों से मदद न की होती, तो उनके भूखों मरने की नौबत भी आ चुकी होती।
कालीचरन के जेल से छूटने पर हम उसे जेल के गेट पर ही मिले। लेकिन हाथ जोड़कर हमसे नमस्ते करने के अलावा न तो उसने हमसे कोई बात की न ही हमारी हिम्मत उससे कुछ कहने की हुई। वहां से हम तीनों चुपचाप उसके घर चले आए। उसकी पत्नी भी इस बार उसे देखकर प्रसन्न होने के बजाय फूट-फूटकर रोने लगी। शायद प्रसन्नता के ही आंसू रहे हों। हमें वहां अधिक देर रुकना उचित नहीं लगा। अतः हम वहां से चुपचाप लौट आए।
हमने तय किया कि हम उसे अपने परिवार के साथ रहने और मानसिक रूप से सहज होने के लिए कुछ समय दें। अतः कोई एक हफ्ते तक हम उससे मिलने नहीं गए। तभी एक दिन हम उससे मिलने गए, तो वह घर पर नहीं था।
‘‘कहां गए?’’ कार्तिक ने उसकी पत्नी से पूछा, तो उसने उत्तर दिया, ‘‘बागिया में होंगे।’’
‘‘कौन बगिया?’’ कार्तिक ने प्रश्न किया।
‘‘गंगाकटरी वाली। जानत तो हो आप लोग।’’ उसने कहा।
हम अमरूद के उसी बाग की ओर चल दिए जहां कालीचरन से हमारी पहली मुलाकात हुई थी। दूर से ही हमने देखा, एक दुबला-पतला व्यक्ति छप्पर के नीचे पड़े तख्त पर बैठा बीड़ी पी रहा है। निकट जाने पर हमने पाया, वह कालीचरन ही था। थोड़ी ही दूर पर उसके दोनों बच्चे एक पेड़ के नीचे ब्लाडर से शराब निकाल कर ग्राहकों को दे रहे थे। हमें देखते ही कालीचरन उठकर खड़ा हो गया और लड़कों के पास से हमारे लिए गिलासों में शराब ले आया। गिलास लाकर उसने तख्त पर रख दिए। हमने एक बार गिलासों की ओर और फिर कालीचरन की ओर देखा। लेकिन हमारी निगाह उसकी ओर मुड़ते ही वह दूसरी ओर देखने लगा और दूसरे ही क्षण उठकर चला गया। थोड़ी ही देर में वह कुछ दालमोठ बगैरह लेकर लौटा। इस बीच हम गिलास होंठों से लगा चुके थे। हमारे कहने पर कालीचरन भी अपने लिए एक गिलास ले आया।
कार्तिक ने उस दिन बहुत पी। लेकिन मैंने देखा कि वह अपने स्वभाव के प्रतिकूल बहुत ही खामोश था। तभी अचानक वह फूट-फूट कर रोने लगा। उसे रोता देख कालीचरन भी रोने लगा। देर तक दोनों एक-दूसरे से गले मिलकर रोते रहे। तभी कार्तिक अपने आंसू पोंछते हुए बोला, ‘‘मैं हार गया कालीचरन।’’ और देर तक इस वाक्य को दोहराता रहा। थोड़ा संयत होने पर वह बोला, ‘‘यह मेरी जिंदगी की पहली हार है।’’ और दूसरे ही क्षण वह फिर रोने लगा।
उस दिन उसकी मोटरसाइकिल हमें वहीं छोड़नी पड़ी। बड़ी मुश्किल से रिक्शे पर लादकर मैंने उसे उसके घर पहुंचाया।
कुछ ही दिनों में स्थितियां फिर सामान्य हो गईं। कालीचरन के दोनों केस भी, जैसा कि उसने हमें बताया, खत्म हो गए। दुकान औने-पौने किसी के हाथ बेच दी गई। बैंक का कर्ज अभी बाकी है, जो कार्तिक खुद भरने को कहता है।
अब हम फिर पुराने दिनों की तरह अकसर ही शाम को उधर निकल जाते हैं। पिकनिकों का सिलसिला भी शुरू हो गया है। लेकिन कार्तिक के अंदर अब भी कुछ है, जो उसे बराबर मथता रहता है। दो-एक गिलास पीकर ही वह बहकने लगता है और दारोगा को गोली मारने की बात करने लगता है।
आज भी मैं जानता हूं, जहां दो-ढाई गिलास इसके गले से नीचे उतरेंगे, यह पुलिस को गालियां देने लगेगा। दारोगा को गोली मार देने की बात करेगा। और दारोगा ही क्यों, पूरी कोतवाली को बम से उड़ा देने की बात करेगा। और तब थोड़ी और पीने पर रोने लगेगा। फूट-फूट कर रोएगा और यहीं जमीन पर लुढ़क जाएगा