शिकायतों से उत्पन्न दुःख : कारण और निदान / कमलेश कमल
सामान्य जीवन में मिलने वाले दुखों का एक महत्त्वपूर्ण प्रकार है-'शिकायतों, आलोचनाओं से मिलने वाले दुःख'। सामान्यतः लोगों को कोई न कोई शिकायत रहती है, जो उनके दुःख का कारण बनती है। चाहे समय से हो, भाग्य से हो, सरकार से हो, समाज से हो, दूसरों से हो या अपनों से हो ...शिकायतें बहुत दुःख देती हैं।
शिकायतों, आलोचनाओं से दुःख क्यों होता है? मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो किसी भी शिकायत की सबसे प्रमुख वजह है निर्भरता। निर्भरता उम्मीद की साथिन भी होती है और संतति भी। उम्मीद है कि खाना अच्छा मिलेगा, नहीं मिला तो शिकायत है। अगर बच्चे से उम्मीद है 90 प्रतिशत की और 80 प्रतिशत अंक आ गए, तो शिकायत है। लेकिन अगर उम्मीद ही होती 70 प्रतिशत की और 80 प्रतिशत आ जाते, तो कोई शिकायत नहीं जन्मती, अपितु ख़ुशी होती।
उम्मीद ज़्यादा, तो शिकायत ज़्यादा। उम्मीद कम, तो शिकायत कम। उम्मीद है कि मित्र गाढ़े वक्त में कुछ मदद करेगा, क्योंकि कभी उसकी मदद की थी-अब उसने मना कर दिया तो शिकायत है। अगर पहले से ही उम्मीद न होती कि मित्र कोई मदद करेगा, तो शिकायत नहीं होती।
आश्चर्य नहीं कि पति-पत्नी एक दूसरे पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं, इसलिए आपस में शिकायतें भी बहुत रहती हैं। उदाहरण के लिए पति द्वारा अच्छे भोजन, अच्छी चाय आदि की तारीफ़ न मिलना या फिर पत्नी द्वारा साड़ी आदि तोहफ़ा मिलने पर उसमें कमी निकालना। ऐसा होने पर शिकायतें जन्म लेती हैं जिनसे दोनों को दुःख होता है।
अमूमन लोग यह भूल जाते हैं कि प्रशंसा पाने का भाव, कॉम्प्लीमेंट्स पाने का भाव मनुष्य की प्रमुख नैसर्गिक इच्छाओं में से एक है। बात एकदम साफ है-"अगर प्यार चाहिए तो प्रशंसा कीजिए, शिकायत नहीं।"
जब भक्त भगवान् पर निर्भर रहते हैं और वे मुराद पूरी नहीं करते, तो फिर भगवान् से भी शिकायत रहती है। भगवान् से शिकायत रखने वाले लोग नास्तिक नहीं होते, बस भगवान् से कुछ ज़्यादा ही आस रखने वाले होते हैं।
जो किसी और पर नहीं वरन् स्वयं पर निर्भर करते हैं, जो आत्मनिर्भर होते हैं, वे लोग भी मनमाफ़िक परिणाम न मिलने पर यह कहते पाए जाते हैं-"दूसरों से नहीं, ख़ुद से ही शिकायत है।" वैसे ख़ुद से होने वाली शिकायत की भावना क्षोभ जैसी ही होती है।
अब प्रश्न उठता है कि शिकायतों से मिलने वाले दुःखों से कैसे उबरें? तो, सबसे पहले तो यह मान लें कि हर व्यक्ति अपने लिए सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। सामान्यतः, आप या आपका काम किसी के लिए भी स्वयं से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता। जहाँ उपेक्षा हुई है, वहाँ उसका स्वयं का फ़ायदा या सहूलियत या कम से कम विचार ही आपके काम से अधिक महत्त्वपूर्ण हुआ होगा-परीक्षण करके देख लें।
अधैर्य से भी शिकायत जन्म लेती है, जिससे दुःख होता है। अगर ट्रेन गंतव्य तक पहुँचने में बहुत अधिक समय ले रही है तो आप हर दो मिनट पर सीट से गेट तक की चहलकदमी करने वाले प्राणी हैं या क़िताब खोल कर पढ़ना शुरू करने वाले जो बीच-बीच में घड़ी भी देख लेते हैं। अगर आप पहले प्रकार के हैं, तो आप में अधैर्य है। अधैर्य शिकायत का उर्वरक है।
अधीर आत्मा उखड़ी हुई बातें करती हैं। अति अपेक्षा या जल्दबाज़ी के कारण ही ये उखड़ी हुई खुरदरी बातें शिकायतों के रूप में सामने आती हैं। आपको लगता है कि कामवाली को बर्तन 20 मिनट में धो लेना चाहिए, पर उसे 50 मिनट लगते हैं। अब उस पर आपकी निर्भरता है, तो उससे उम्मीद भी है। अगर आपमें अधैर्य है तो आपकी शिकायतें मुखर होंगी, उलाहना खुल कर होगी, व्यंग्य होगा। अगर आपका चित्त प्रशांत है, तो शिकायतें नहीं होंगी। आपको उसकी सीमा समझ में आ जाएगी। या तो उसका धीमा काम आपको स्वीकार्य होगा, या फिर दूसरे कामवाली की तलाश होगी।
उपर्युक्त उदाहरण को कृपया समग्रता में देखें, विस्तृत आयाम में देखें-आप एक अध्यापक हैं और कुछ बच्चों को साधारण से दो सवाल हल करने में 20 मिनट से भी अधिक समय लग रहा है। आप अधीर होते हैं कि नहीं, उलाहना देते हैं कि नहीं?
शिकायतों की एक बड़ी वजह असुरक्षित बचपन या व्यक्ति पर बचपन की कड़वी छाप हो सकती है। आप शिकायतकर्ता पर यह सोचकर तरस खा सकते हैं कि शायद इसने बचपन में बहुत ताने सहे हैं या दुःख झेला है।
असुरक्षा कि भावना कभी हावी होकर शिकायत करवा दे, तो इसके लिए आप दुःखी न हों, पर शिकायतकर्ता से सहानुभूति रक्खें! और अगर चीजें आपके अनुसार न हों, तो संतुलन बनाना सीखें, एडजस्ट करना सीखें। यह देखा जाता है कि जिनमें गहराई नहीं होती, वे जैसे ही चीजें मनोनुकूल नहीं हुई, बिफ़र पड़ते हैं।
मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि असंतुष्ट आत्मा कि शिकायतें कभी-कभी सिर्फ़ सुन लेने भर से भी दूर हो सकती हैं। उनके मन के गुबार को शिकायत की तरह न लेकर, बस उन्हें सुन लें। यकीन जानें, यह भी उनकी बहुत बड़ी मदद हो सकती है। हाँ, अगर वह आपके लिए महत्त्वपूर्ण नहीं, या आपके पास वक्त ही नहीं, तब ऐसी आत्माओं से पर्याप्त दूरी बनाकर रक्खें!
कभी-कभी शिकायतें जन्म लेने का एक कारण होता है-मुखौटे का अनायास हट जाना। सहजता एक दुर्लभ गुण है और लोग जो दिखते हैं, उससे अलग होते हैं। ऐसे में मुखौटा (mask) उतर जाने से बड़ा क्षोभ या गुस्सा होता है, जो सामने वाले पर उतर जाता है। ऐसी स्थिति में क्या करें? सामने वाले की कोई ग़लती हो गई हो, तो उसे लाज रखने का मौका दें। अपने को ढँकने के लिए भी कभी-कभी व्यक्ति शिकायती हो जाता है। इसे ताड़ कर आप संयमित रह सकते हैं।
विचारों में सहनशीलता बुद्धिजीवियों का आभूषण होता है। जिनके विचार पके नहीं होते, या जिनमें पर्याप्त वैचारिक गहराई नहीं होती, वे विरोधी या विपरीत विचार को सहन कर ही नहीं सकते। ऐसे में वे शिकायती तेवर अपनाते हैं। यह समझ कर कि इसका कारण वैचारिक सहनशीलता (tolerence of ideas) की कमी है, जिसका ज़िम्मेदार शिकायती व्यक्ति स्वयं है, आप नहीं-इससे मिलने वाले दुःख से बचा जा सकता है।
आप सब समझा देंगे, explain कर देंगे-यह एक बहुत बड़ा भ्रम है। इस भ्रम से अंततोगत्वा दुःख होता है, क्योंकि जिनकी प्रवृत्ति ही शिकायती है, उनकी शिकायतें कभी ख़त्म नहीं होतीं... आप कितना भी explain कर दें।
आप काम में व्यस्त हैं, जिस कारण कुछ दिनों तक फोन कॉल रिसीव नहीं कर सकते या फेसबुक, व्हाट्सएप के संदेशों का ज़वाब नहीं दे सकते। अब जो शिकायती आत्मा हैं, या जिनकी आप पर निर्भरता है, वे शिकायतें करेंगे ही। इसे दिल पर न लें, वरन् अपना काम करें! अगर प्रेम होगा तो शिकायतें अपने आप पिघल जाएँगी और अगर प्रवृत्ति होगी तो आपके समझाने से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।
शिकायती लोग कम लोचदार (flexible) होते हैं। उन्हें मार्ग परिवर्तन करना कम आता है, इसलिए उन्हें शिकायत रहती है। माना जाता है कि शिकायती व्यक्ति अपना दुःख दूसरे में देकर, उन्हें उलाहना देकर हल्का होने की व्यर्थ कवायद करता है।
ध्यान देने वाली बात यह है कि जब चीजें अनुकूल नहीं हो रही हों, तब थोड़ा उदास हो जाना किञ्चित् स्वाभाविक है। पर थोड़ा उदास हो जाने और चिर-शिकायती होने में बहुत अंतर है। क्या आपके संपर्क में ऐसे लोग हैं जिन्हें हमेशा किसी न किसी से कोई न कोई शिकायत रहती ही है। कुछ नहीं तो शिकायत के लिए, मौसम है ही, व्यवस्था है ही, बॉस है ही। ब्लेज पास्कल ने उचित ही कहा है कि मनुष्य की अधिकांश समस्याओं की जड़ यह है कि वह किसी शांत कमरे में चुपचाप नहीं बैठ सकता। कुछ काम नहीं होने पर शिकायत करना एक बड़ा काम होता है।
जब बॉस आपकी बेवज़ह आलोचना कर दे या आपको झिड़क दे, तो एक बार यह अवश्य ही सोच लें कि हो सकता है कि उसने आप पर वास्तविक व्यंग्यबाण नहीं छोड़ा हो, बस आप उसकी ख़राब मनोदशा (bad mood) के शिकार हुए हैं। किसी के ख़राब मूड को व्यक्तिगत लेना कोई फ़ायदे का सौदा नहीं है। अधिकांश व्यक्तिगत टिप्पणी अपने तात्कालिक ईगो को संतुष्ट करने के निमित्त होता है और जिस पर किया जाता है उसकी कमी या अच्छाई से इसका कोई बहुत सम्बंध नहीं होता।
इसके अलावा अगर चाहते हैं कि शिकायतें और उनसे मिलने वाले दुःख न मिलें, तो टेलीविजन कम से कम देखें, समाचारपत्र भी कम ही पढ़ें। तथ्य यह है कि इनमें नकारात्मकता ज़्यादा रहती है और देखा जाता है कि ज़्यादा देर तक बुद्धू बक्से के सामने बैठे रहने वाले अमूमन ज़्यादा शिकायती होते हैं।
शारीरिक श्रम ज़्यादा करने वाले या व्यायाम करने वाले लोग कम शिकायती होते हैं। यही कारण है कि मनश्चिकित्सक चिड़चिड़े और रोंदलू बच्चों को खेल और अन्य शारीरिक गतिविधियों में ज़्यादा लगाने की सलाह देते हैं। आक्रामकता ऊर्जा का अनुचित उद्गार है और इस तरह उनकी अतिरिक्त ऊर्जा का सम्यक् उपयोग हो जाता है।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि सामान्य, औसत, अच्छा या बुरा समय नहीं होता, बस सोच होती है, प्रतिक्रिया होती है। शिकायतों और दु: खों की पूरी कहानी इसके आसपास घूमती है।