शिकारी / भगवती चरण पाणीग्रही / दिनेश कुमार माली

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ओडिया भाषा के मूर्धन्य साहित्यिकार कालिंदी चरण पाणिग्रही(1908-1943) के अनुज तथा ओडिशा के प्रथम महिला मुख्यमंत्री तथा लेखिका नंदिनी सत्पथी के चाचा श्री भगवती चरण पाणिग्रही ओडिया मार्क्सवादी साहित्य के प्रवर्तक के रूप में जाने जाते हैं।आपका जन्म विश्वनाथपुर,पुरी में हुआ। ओडिशा में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन में उनकी प्रमुख भूमिका रही है। 1935 में 'आधुनिक साहित्य संसद' की स्थापना तथा 'आधुनिक' मासिक पत्रिका प्रकाशन की श्रेय उन्हें ही जाता है। आधुनिक काल के प्रगतिवादी साहित्य के इस शक्तिशाली कर्णधार की कहानियों ने सामाजिक अन्याय और अत्याचार के विरोध में उपजे घनीभूत विद्रोह को सहज भाव से प्रस्तुत किया। प्रस्तुत कहानी 'शिकारी` उनकी एक जानी मानी कहानी है, जिस पर मृणाल सेन ने अपनी पुरस्कृत हिंदी फिल्म 'मृगया' बनायीं थी। यह कहानी न केवल ओडिया बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य का एक अनमोल रत्न है।


किसी इलाके में घिनुआ नामक एक विख्यात शिकारी हुआ करता था। उसका प्रमुख अस्त्र अपने हाथ से तैयार किया गया धनुष था। धनुष से तीर छोड़ते समय वह जमीन पर चित लेट जाता था। बाँये पाँव की सहायता से धनुष को दबाते हुए तीर को कान तक खींचकर छोड़ता था। एक मील दूर से तीर मारकर अपने लक्ष्य का भेदन कर लेता था। इस धनुष की सहायता से उसने अनगिनत हिरण, साँभर, वराह, भालू इत्यादि का शिकार किया था। इसके अतिरिक्त कई चीते और बाघों को भी मारा था। किंतु रॉयल बंगाल टाइगर केवल दो मार पाया था। जिसके लिए उसे डिप्टी कमिश्नर के हाथों से इनाम भी मिला था। वह दिन कुछ और था जिस दिन वह एक अद्भुत शिकार लेकर कमिश्नर के बंगले पर हाजिर हुआ था। उसके कंधे पर धनुष लटका हुआ था। हाथ में दो-तीन तीर पकड़े हुए थे। दूसरे कंधे पर भुजाली लटकी हुई थी। घिनुआ को इस वेश में देखकर अर्दली ने पूछा,

"आज कौन-सा शिकार लाए हो? "

घिनुआ के साथ उसकी अच्छी जान पहचान थी। घिनुआ को मिली हुई बख्शीश का कुछ अंश वह खुद खा जाता था। अर्दली का जबाव देने की जगह घिनुआ ने अपनी मैली बत्तीसी दिखाई। उसकी बत्तीसी देखकर यह पता नहीं चल रहा था कि वह हँस रहा था या क्रोध में था। दरअसल किसी ने भी घिनुआ को हँसते हुए कभी नहीं देखा था। कभी-कभी वह इस तरह अपनी बत्तीसी दिखा देता था। इस तरह उसकी बत्तीसी दिखाना न तो उसके हंसने और न ही रोने के अंदर आता था। बस केवल वह बत्तीसी दिखाता था।

अर्दली ने पूछा, "क्या रे, क्या शिकार लाए हो? "

घिनुआ अपने गमछे में बंधी हुई वस्तु को दिखाते हुए कहने लगा, "आज बहुत मस्त जानवर का शिकार करके आया हूँ।"

अर्दली कहने लगा, "बाघ? "

घिनुआ ने सिर हिलाकर इंकार किया।

"तब क्या चीता, भालू, जंगली-सूअर .?"

घिनुआ केवल सिर हिलाता रहा।

"और क्या चीज है, रे? "

शोर शराबा सुनकर साहब अपने बंगले के अंदर से बाहर निकल आए। साहब को जुहार करने के बाद फिर से खिसियाकर वह अपनी बत्तीसी दिखाने लगा। साहब ने शिकार का चेहरा देखना चाहा, तो घिनुआ ने गमछे के अंदर से एक कटा हुआ नरमुंड बाहर निकाल कर साहब के पाँव के पास रख दिया। चौंककर साहब दो कदम पीछे हट गए। घिनुआ ने हाथ फैलाकर अपनी बख्शीश माँगी।

"साहब, बख्शीश।"

कुछ क्षण तक साहब निस्तब्ध रह गए। अपने आपको सँभालने के बाद घिनुआ को बख्शीश का इंतजार करने के लिए कहकर बंगले के अंदर चले गए। अंदर जाकर फोन से सशस्त्र पुलिस फौज बुलाई। इसके अलावा घिनुआ को काबू में करने का इनके पास कोई रास्ता नहीं था। उसके शरीर में राक्षस की तरह ताकत थी। उसके हाथ में तीर धनुष और भुजाली थी।

जब हाथ में हथकड़ी और पैर में जंजीर पहनकर घिनुआ को हाजत में रहना पड़ा,तब वह कुछ भी समझ नहीं पाया। उसको इस तरह बांधकर रखने का मतलब क्या है? मौका मिलने पर वह किसी दूसरे से इसके बारे में पूछता था। कोई कहता था, तुझे फाँसी की सजा होगी। कोई कहता था, तुझे कालापानी की सजा होगी। क्यों? उसने ऐसा क्या अपराध कर लिया था? वह बिल्कुल समझ नहीं पाता था उन लोगों की बातें। विश्वास करें तो कैसे करें?

आखिर में एक दिन डिप्टी कमिश्नर जेल की विजिट पर आए। घिनुआ उनको पूछने लगा। जवाब में साहब ने कहा, "इससे पहले तुम बाघ, भालू का शिकार करते थे। इसलिए तुम्हें तुरंत बख्शीश मिल जाती थी। इस बार तुमने आदमी का शिकार किया है। तुम्हें क्या बख्शीश देनी चाहिए, चार-पाँच साहब बैठकर निर्णय लेंगे।" साहिब की यह बात

घिनुआ के मन को भा गई। जिस दिन कोर्ट में उसकी पेशी हुई, घिनुआ मन ही मन सोच रहा था जरुर कोई न कोई उसे विशेष बख्शीश मिलेगी। उत्साहित होकर जज के सामने वह अपने शिकार का पूरा विवरण देने लगा। उसने गोविंद सरदार का शिकार किया, उसके लिए उसे बहुत कष्ट उठाने पड़े। बहुत से आदमी उसको मारने की ताक में थे मगर कोई उसे मार नहीं सका था। गोविंद सरदार हमेशा गाड़ी में आना- जाना करता था। दूसरों को लूट-लूटकर उसने इतनी धन संपत्ति अर्जित की थी। बड़ा ही शैतान आदमी था वह ! पता नहीं, कितने मासूम लोगों को मौत के घाट उतारा था उसने ! कितने परिवार परिवारों को बर्बाद किया था ! कितनी सारी औरतों की आबरू लूटी थी! उनकी जमीन जायदाद भी उसने अपने नाम कर ली थी। उस दिन शाम को वह घिनुआ की औरत के साथ दुराचार करने आया था। इतना दुस्साहस ! धिनुआ को देखते ही वह गाड़ी से भाग रहा था। मगर वह कैसे उसके हाथ से निकल जाएगा? तीर मारकर घिनुआ ने गाड़ी को रोक दिया था और उसके बाद भुजाली से उसका सिर काटकर सीधा दौड़ते-दौड़ते तीस मील का रास्ता रातोंरात तय करते डिप्टी कमिश्नर के बंगले में पहुँचा।

गोविंद सरदार सामान्य आदमी नहीं था। हमेशा उसके हाथ में बंदूक रहती थी। बाघ, भालू की अपेक्षा लोग उससे ज्यादा डरते थे बाघ, भालू की अपेक्षा वह लोगों का ज्यादा नुकसान करता था। उसे मारने के लिए घिनुआ ने साहस और बुद्धि कम खर्च नहीं की थी।

कुछ साल पहले विद्रोही झपट सिंह का सर कलम करने पर डोरा को साहब से पाँच सौ रुपए की बख्शीश मिली थी। झपट सिंह तो बहुत अच्छा आदमी था। न तो उसने किसी औरत की इज्जत ली थी और न ही उसने किसी की जमीन जायदाद हड़प ली थी। सिर्फ सरकारी खजाने को लूटा था और कई सिपाहियों को जान से मार दिया था। मगर गोविंद सरदार बहुत ही खूंखार आदमी था। उसे मारने की वजह से धिनुआ को ज्यादा बख्शीश मिलनी चाहिए।

घिनुआ की कहानी सुनकर सब खिल-खिलाकर हँस पड़े। जज महोदय भी हँसते हुए कहने लगे, "तुझे उचित बख्शीश मिलेगी।" सरकारी वकील कहने लगे, "तुझे तो खास यहाँ बख्शीश देने के लिए ही लाया गया है।"

इन बातों में छिपे हुए हास्य व्यंग को ना समझकर घिनुआ उन बातों को सच समझने लगा। कारण हास्य व्यंग क्या होता है? उसे मालून महीं था। उसका स्वभाव सरल था। अंत में जज ने सुनवाई का फैसला सुनाया,"प्राणदंड"

घिनुआ को इस शब्द का अर्थ मालूम नहीं था। उसे फिर से हाजत में ले जाया गया और समझाया गया, उसका उसके बख्शीश पाने के दिन नजदीक आ रहे हैं।

घिनुआ उस समय तक नहीं समझ पाया था, वह एक अपराधी है और उसे प्राणदंड की सजा सुनाई गई है। उसे कहाँ पता था कि गोविंद सरदार को मारना और झपट सिंह को मारना एक बात नहीं थी। वह समझ नहीं पा रहा था, कानून की दृष्टि में एक गुनाह है तो दूसरा गौरव की बात है। कानून के इस सूक्ष्म जाल को समझने के लिए उसका उसमे दिमाग नहीं था। वह जो ठहरा आदिवासी संथाल। वह मन ही मन सोच रहा था, झपट सिंह को मारने पर डोरा को पाँच सौ रुपए मिले थे। इस बार उसे अगर कम दिया गया तो वह उस बख्शीश को स्वीकार नहीं करेगा। साहिब को रूपए लौटाकर कहेगा, "कुछ भी नहीं दे, वह चलेगा। मगर देना ही हो तो डोरा से ज्यादा मुझे मिलना चाहिए।"

जेल की काल कोठरी में बंदी घिनुआ मन ही मन तरह-तरह की बातें सोच रहा था। आस-पास किसी को पाना भी मुश्किल था कि वह अपने मन की बातें करता। ऐसे भी बातें करने की उसकी इच्छा नहीं थी। बख्शीश लेकर घर लौटने के लिए उसका मन छटपटा रहा था।

अंत में उसको फाँसी पर लटकाने का दिन आ गया। उससे उसकी अंतिम इच्छा के बारे में पूछा गया। उसने कहा, "मेरी बख्शीश...."

"अच्छा, आज तुझे तेरी बख्शीश मिलेगी।" कहकर वे लोग उसे अपने साथ ले गए। काले कपड़े से उसका सिर ढाँक लिया गया। घिनुआ मन ही मन सोचने लगा, आँखें बाँधकर उसके हाथ में सोने -चाँदी का उपहार थमा दिया जाएगा।

सरकार के घर में कितने कायदे कानून होते हैं। क्या ऐसे ही बख्शीश मिल जाती है? वह घर लौटकर सबको दिखलाएगा। उसकी पत्नी यह सब देखकर बहुत खुश होगी। अच्छा घरद्वार बनाकर खेती बाड़ी कर वह अपनी शेष जिंदगी सुख से बिताएगा। और लुटेरा गोविंद सरदार भी तो नहीं है।

अचानक उसे अपने गले में कुछ दबाव-सा लगने लगा।