शिकार / प्रेमचंद सहजवाला

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वे दिन अति सुंदर थे। कुछ ना होने की भी एक रूमानियत। महज बी.ए. पास क्लर्की और एक किराए का बहुत सस्ता सा मकान, पत्नी आकांक्षा और छोटी सी बिटिया प्रत्यक्षा।

उस फटीचर से किराए के मकान में दो ही तो कमरे थे। एक में थोड़ी कामचलाऊ सी गोल टॉप वाली मेज व तीन चार कुर्सियाँ तथा दूसरे में बेडरूम। जिस तरफ मेज कुर्सियाँ थीं उस तरफ से थोड़ी दूर इस दीवार के साथ एक सेकंड हैंड सोफा ला कर धर दिया था जिस पर आकांक्षा ने बैठना ही मना कर दिया था ताकि जब कोई आए तब उस का इस्तेमाल हो और बाकी समय बेडरूम में या तो पलंग पर बैठो या नीचे ही एक दरी सी बिछी है उस पर बैठ कर पढ़ो या खर्राटे मारो बस। प्रत्यक्षा बिटिया अभी दूसरी कक्षा में ही थी और उसी दरी पर बैठ पापा के साथ होमवर्क करती। फिर एक चौदह इंच वाला छोटा सा कलर टी.वी. आया तो बैठक वाले कमरे में कुर्सियों को थोड़ा इधर-उधर एडजस्ट कर के कोने में टी.वी. लगा दिया गया। कुर्सियों को दीवार से टिका कर सामने टी.वी. देखो और साथ ही रखी गोल टॉप वाली मेज पर रख कर चाय पियो या बिस्किट खाओ, बस। इतनी सीमित सी सुविधाएँ थी इन तीनों को, यानी हितेन, आकांक्षा और उनकी प्यारी सी बिटिया प्रत्यक्षा को।

पर हितेन फिर भी कितना खुश रहता था। दफ्तर में क्लर्की करता था और फाइलें देख देख कर उन्हें ऊपर भेज भेज कर या वापस मँगवा मँगवा कर काफी समय निकल जाता तो वह कुर्सी पर बैठ कोई अच्छी सी साहित्यिक चीज निकाल लेता जैसे कोई कहानी की पत्रिका या कोई कहानी संग्रह या उपन्यास वगैरह। बस, यही था हितेन की खुशी का कारण। इतनी खस्ताहाली के बावजूद उसकी जो दौलत थी वे चंद पुस्तकें थीं जिन्हें अपनी जरूरतें इच्छाएँ काट काट कर भी खरीदता था। पत्नी ने बैठक में ही एक छोटी सी सेकंड हैंड अल्मारी खरीद दी थी जिस के शीशों से दिखती पुस्तकें मानो उस के पति की खुशी का पारावार थीं। हितेन ऑफिस में चाय ही नहीं पीता था, बस सुबह जो चाय पी कर निकला तो फिर शाम को आ कर आकांक्षा के हाथ की बनी एक चाय पीता, दो या डेढ़ भी नहीं। कभी हवा से बातें करते करते ही दो बस स्टॉप पैदल चल सकर घर की तरफ की बस पकड़ता और पूरा एक रुपया बच जाता। आते समय भी जाते समय भी। उन दिनों पुस्तकें कम से कम आज की तुलना में सस्ती होती थीं। दो सौ पृष्ठ का एक उपन्यास भी पचासेक रुपये में ही मिल जाता था। ऐसे पैसे बचा बचा कर हितेन ने आकांक्षा द्वारा पति के लिए खरीदी गई वह अलमारी भर ली थी। हितेन सब कुछ पढ़ चुका था। प्रेमचंद के सभी उपन्यास चाट डाले थे और कहानियाँ भी। फिर रेणु हो या यशपाल, जैनेंद्र हो या इलाचंद्र, हितेन सब कुछ पढ़ता था। 'बूँद और समुद्र' उस का मनपसंद उपन्यास था, अमृतलाल नागर का। हितेन लिखता कुछ नहीं था, फिर भी प्रचुर मात्रा में साहित्यिक समझ उसमें थी। बस किताबें ही उसकी धड़कन थीं और किताबें ही उसका समय काटने का साधन। प्रत्यक्षा को भी वह होमवर्क कराता तो बहुत सी बातें पढ़ाई के बाहर की बताता, अपने समाज की, देश की और उसे बताता रहता कि जो व्यक्ति जीवन में अच्छी अच्छी किताबें नहीं पढ़ता उसका जीना ही व्यर्थ है।

मित्र मंडली भी नगण्य थी। इस पड़ोस में तो बहुत कम लोगों से हितेन का मिलना जुलना था। बस औपचारिकता भर थी और कुछ नहीं। अक्सर वह पुस्तकालय भी चला जाता, जब जब समय होता। यानी छुट्टी होते ही केंद्रीय पुस्तकालय में जा कर समय बिताता। कुछ मित्र उसने वहाँ भी बना रखे थे। एक चौकीदार लड़का था जो युवा था और सुबह आठ बजे ड्यूटी खत्म होने के बावजूद यूँ ही मटरगश्ती करता और कैंटीन में आ कर भी कभी चाय पीता था तो सब से दोस्ताना तरीके से बात करने की कोशिश करता। उसे सब चौकीदार ही समझते पर हितेन उस से ऐसे बात करता जैसे उसमें और चौकीदार में कोई फर्क ही ना हो।

हितेन ने उस से नाम पूछा, उस ने उत्तर दिया - 'बाबूजी मेरा नाम समय सिंह है, पढ़ता भी हूँ। ग्यारहवीं में आ गया हूँ। पर पढ़ने में सचमुच बहुत भारी पड़ता है बाबूजी। कभी स्कूल जाता हूँ कभी नहीं जाता। सोचता हूँ कोई अच्छा सा धंधा कर लूँ।'

हितेन ने हँस कर कहा - 'धंधा तेरे बस का नहीं। पढ़ता ही रह।'

- 'अच्छा जी, पढ़ता रहूँगा,' समय ने ऐसे कहा जैसे सुस्ता सा गया हो और कि इस जवाब के अलावा उसके पास कोई जवाब ही ना हो फिलहाल।

पर एक दिन हितेन को आश्चर्य हुआ कि समय तो उसी की कॉलोनी के नजदीक बने कच्चे क्वार्टरों में रहता है।

उस दिन मार्केट में आकांक्षा प्रत्यक्षा को लिए घूम रहा था कि समय भी वहीं नजर आ गया। समय भी पत्नी और बेटे को साथ लिए आया था और बाजार से यूँ ही कुछ खरीद रहा था कि दोनों मिल गए। फिर तो हितेन के पास समय घर में भी आने लगा। समय में एक सादगी सी थी और एक निश्छलता। हितेन समय को पसंद करता था। कभी आकांक्षा उसे पैसे दे देती कि ये ये चीजें खरीद लाओ, समय ले आता। उसमें ईमानदारी भी थी और सब कुछ था। केवल गरीबी थी उसके घर में भी। पर वह समय को खींच रहा था, नाम ही जब समय था उसका तो!

पर जिंदगी ऐसे एक ही ढर्रे पर आखिर कब तक चलती! आकांक्षा तंग आ गई हितेन की किताबों से, क्यों कि वह तो उन किताबों को ही अपनी दौलत समझता था। आकांक्षा सोचती थी किताबें पढ़े तो पढ़े, अच्छी बात है। दूसरी औरतों के पति तो कोई कोई जुआ भी खेलता होगा, या दारू वारू पी कर खुद भी बर्बाद होता होगा और घर परिवार को भी बर्बादी के दर्शन करा देता होगा। मेरा पति कम से कम विद्वान तो है, पर ये किताबें पढ़ने का सिलसिला आखिर कब तक चलेगा? क्या अपनी जिंदगी में कोई तरक्की नहीं करेगा हितेन? क्या जिंदगी भर एल.डी.सी. ही बना रहेगा वह?

और एक दिन झगड़ने लगी आकांक्षा हितेन से - 'कुछ करो जिंदगी का हितेन। हम इतनी सादा जिंदगी कब तक जिएँगे? प्रत्यक्षा को भी हम कुछ नहीं दे सकते, सिवाय दो समय के खाने के, ना कहीं आ सकते हैं ना जा सकते हैं। ना कोई हमारे पास आता है ना हम किसी के पास जा सकते हैं!'

और एक दिन ऐसा आया कि आकांक्षा की चीखाचाखी कुछ कर गुजरी। हितेन की जिंदगी में क्रांति आ गई। आकांक्षा ने डिस्पेंसरी जाते जाते अच्छी पहचान निकाली और एक दिन हितेन से बोली - 'एक फ्रेंड बनी है मेरी। बहुत पैसे वाली है।'

हितेन बोला - 'वह हमारे घर का पूरा खर्चा निकाल लेगी क्या?'

- 'मजाक मत करो तुम मेरे साथ। सुनो मेरी बात ध्यान से। वह कहती है कि उसके पति विदेश में एक कॉलेज के प्रिंसिपल हैं। उनके कॉलेज के साथ ही जो कॉलेज है उसे ग्रैजुएट चाहिए, बिजनेस का कोर्स पढ़ने के लिए। उसकी इतनी चलती है वहाँ कि आप को दो साल का बिजनेस कोर्स भी पढ़ने के लिए प्रवेश मिल जाएगा और वहाँ रहने करने का वजीफा भी दिला देगा वह। थोड़ी सी तकलीफ होगी, जो बचा खुचा इधर उधर पड़ा है उस से मैं गुजारा कर लूँगी। मैं खुद उस फ्रेंड की मदद से कोई नौकरी कर लूँगी। घर बैठे ट्यूशनें भी कर लूँगी। बस तुम हो आओ दो साल विदेश, और पढ़ के आ जाओ मैं तो कहती हूँ। मेरी बात मानो तुम।'

और हितेन ने अपने ऑफिस से भी पूछताछ की। ऑफिस ने बताया कि 'पहले तो ऑफिस से 'नो ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट' ले कर पासपोर्ट बनवाओ, फिर जब जाना हो तब पहले महीने भर की छुट्टी ले कर और विदेश जाने की अनुमति ले कर विदेश जाओ। फिर वहाँ से छुट्टी बढ़ाते जाओ और बाद में कुछ समय बिना वेतन के भी कटेगा। आठ महीने बाद पहले वर्ष की पढ़ाई पूरी करते ही वापस आ कर जॉयन करो और फिर दो तीन महीने ड्यूटी बजा कर फिर ऐसे ही महीने भर को वापस जाओ और आठ नौ महीने बाद लौट आओ!'

हितेन के लिए यह मेहनत भी प्यारी सी थी, आकांक्षा कहती है तो सच होगा। हो आता हूँ विदेश। थोड़ा स्टैंडर्ड बढ़ाता हूँ। आ कर हो सकता है किसी निजी कंपनी में काफी बेहतर नौकरी मिले।

हितेन एक दिन केंद्रीय पुस्तकालय की ही कैंटीन में समय को बुला कर बोला - 'भाई अब आप भी करो तरक्की। ग्यारहवीं हो गई अब बारहवीं करो। कहीं नौकरी लग जाएगी तुम्हारी, कम से कम चौकीदार से एल.डी.सी. तो बन जाओगे! पढ़ने से कतराओ मत। बारहवीं खींच लो किसी प्रकार।'

समय बोला - 'जैसे आप कहो बाबूजी। चौकीदारी का भी क्या भरोसा, कब ठोकर मार दें कब सड़कों पर आ जाऊँ क्या पता।'

और समय ने बारहवीं में पढ़ना शुरू कर दिया।

हितेन विदेश चला गया। आकांक्षा तो रोने लग गई थी। बोली - 'कभी तो हमारा भी बखत बदलेगा ना! कुछ कष्ट जरूर होता है, पर मेहनत ही काम आती है हितेन, मैं बताती हूँ।'

हवाई अड्डा ही आकांक्षा ने तो पहली बार देखा था। हवाई जहाज सिर्फ सिनेमा में देखा था। अब इतना बड़ा दानवाकार हवाई जहाज देख उसके मन में धुक धुक सी हो रही थी। जाने कहाँ ले जाए यह दानव मेरे इतने अच्छे पति को, जिसने किताबों के सिवाय जिंदगी में कुछ जाना ही नहीं।

घर लौटी तो प्रत्यक्षा को गले लगा कर खूब रोई आकांक्षा। उसकी वह डिस्पेंसरी वाली फ्रेंड सचमुच बहुत सहृदय निकली। उस से बोली - 'मेरी बेटी यहाँ भी एक प्राइवेट कॉलेज चलाती है। उसी कॉलेज के ऑफिस में काम ले लो तुम। तनख्वाह थोड़ी सी होगी पर दोनों माँ बेटी का राशन पानी खिंच जाएगा। टाइम बदलते देर नहीं लगेगी आकांक्षा। हितेन वहाँ से बिजनेस ग्रैजुएट बन कर आ गया तो अच्छी नौकरी मिलते देर नहीं लगेगी। समय बदल रहा है अब तो, कई विदेशी कंपनियाँ यहाँ पैर फैला रही हैं। देश में भूमंडलीकरण का जाल फैल रहा है। कंपनियाँ ही कंपनियाँ हैं। कहीं भी नौकरी लग गई तो पौ बारह समझो।'

और ऐसा ही हुआ। समय सिंह इधर आता रहता था। समय सिंह ने आकांक्षा को खुशी खुशी बताया कि उसने बारहवीं में पढ़ना तो मेहनत से शुरू कर दिया है, पर पढ़ना सचमुच बड़ा भारी सा काम है। कैसे भी कर के बारहवीं कर लूँगा। आकांक्षा ने उस से कहा - 'मैं जिस कॉलेज के ऑफिस में काम करती हूँ, वहाँ आ जाया कर कभी। समय हुआ तो मैं कुछ पढ़ाई करा दूँगी।' समय कुछ जरूरी शॉपिंग वौपिंग कर के आकांक्षा के ऑफिस वाले कमरे में आकांक्षा के पास छोड़ आता। आकांक्षा वहीं उसे बिठा कर उसकी कॉपी चेक करती और झाड़ पिलाती उसे। समय कहता - 'पढ़ने लिखने का बस अपना नहीं है भाभी जी, पर पढ़ रहा हूँ बस...'

आकांक्षा हाथ में एक काल्पनिक सी छड़ी दिखा कर समय से कहती - 'अहसान कर रहे हो मुझ पर, हँ? स्कूल कभी जाते हो कभी गायब रहते हो। वहाँ तो मास्टर ऐसे निकम्मेपन पर यूँ... छड़ी जमा देता होगा तेरी पीठ पर।'

समय हँस पड़ता।

समय किसी प्रकार बीत रहा था।

आकांक्षा कभी कभी हितेन की किताबों वाली अल्मारी साफ करती और एक छोटे से डंडे पर कपड़ा बाँध कर धूल झाड़ती तो उसे हँसी आती। उसकी किताबें अब उसने पढ़नी शुरू कर दी, हालाँकि इतना मन उसका भी नहीं लगता था। पर फिर भी, कहानियाँ पढ़ लेती थी। उपन्यास भी एकाध पढ़ डाला, जैसे प्रेमचंद का निर्मला। छोटा सा था, फिर एक उपन्यास पढ़ा था 'अधिकार का प्रश्न', भगवती प्रसाद वाजपेयी का। पढ़ती रहती थी कुछ ना कुछ, और उसे लगता कि अब तो हितेन को पढ़ने का समय ही नहीं मिलता होगा ऐसी किताबें पढ़ने का। अपने साथ कुछ किताबें तो ले ही गया था वह। पर इतनी दूर और किताबें भेजना बहुत महँगा सौदा! हितेन गुस्से में लिखता - 'कहाँ मिलता है पढ़ने का समय यहाँ। यहाँ तो पढ़ाई इतनी भारी है कि बस। सारा दिन माथापच्ची करो और रात को आ कर लैपटॉप पर काम करते रहो। मैं तो 'नाच्यो बहुत गोपाल' अधूरा छोड़ साथ लाया था। एक पन्ना भी उसका आगे नहीं बढ़ा सका मैं, क्या करूँ।'

आकांक्षा सोचती - 'सब पढ़ने का समय भी मिल जाएगा हितेन, तुम तरक्की भी तो करो! मध्यवर्ग में ही फँसे रहोगे क्या? जिंदगी में कुछ बनना भी तो कुछ होता है!'

और प्रत्यक्षा को उसका होम वर्क पूरा करा कर उसे सीने से लगा कर सो जाती आकांक्षा।

समय के बारहवीं के टर्मिनल हो गए। हर विषय में बस मास्टरों ने मेहरबानी कर के पास कर दिया, कह दिया कि फॉर्म भरो गुरु, बोर्ड में किस्मत आजमाना।

समय कहता था - 'थोड़ी सी नकल वकल की भी कोशिश करूँगा!'

मास्टर हँस पड़ते - 'जो किस्मत में हो वही करेगा ना तू! पकड़ा गया तो साल गया, और फिर तो तुझ से पढ़ने से रहा।'

समय सिंह ने किया भी यही। छोटी छोटी कई पर्चियाँ बनाने का गुर सीख लिया उसने। परीक्षा में दो तीन लड़कों ने यही तरीका अपनाया था। मौका मिलते ही पर्चियाँ निकाल जवाब लिख देते।

समय सिंह तीसरी श्रेणी में खींच खाँच कर पूरी पास परसेंटेज ले कर पास हो गया, हितेन कुछ महीने के लिए आ गया। उसका एक साल पूरा हो गया था। आकांक्षा से गले मिल कर बहुत खुश हुआ हितेन, आकांक्षा से बोला - 'पढ़ाई अच्छी है वहाँ की। यहाँ और वहाँ में जमीन आसमान का फर्क है। योरप में और भारत में भी जमीन आसमान का फर्क है अक्कू...'

आकांक्षा कहती - 'अब तो धीरे धीरे अपनी दिल्ली में ही योरप आ रहा है। किसी ऑफिस में जाओ तो चारों तरफ जगमगाहट ही जगमगाहट है, कंप्यूटर लगे हैं। बड़े बड़े मॉल बन गए हैं। मॉडर्न मॉडर्न लड़कियाँ टाइट कपड़े पहने घूम रही हैं। मोबाइल सब के पास है। बस...'

हितेन ने कहा - 'अपने पास भी होगा। बस कर्ज वर्ज उतरने दो।'

हितेन ने एक बैंक से कर्ज बटोर लिया था, उसी की चिंता थी पर जब लौटेगा तो उसे अच्छी नौकरी मिलेगी ही, और उस का कर्ज किस्तों में उतर जाएगा।

रात को हितेन आकांक्षा से लिपट कर बातें करते करते बोला - 'प्रत्यक्षा बेटी तो सो गई। अब मैं जरा कुछ पढ़ता हूँ,' और आकांक्षा उसी की अल्मारी से दो तीन किताबें लाई और पलंग पर फैलाती बोली - 'कौन सी पढ़ोगे? 'नाच्यौ बहुत गोपाल' वहाँ ले गए थे, हो गई वह?'

हितेन ने कहा, जैसे अफसोस सा उसकी आवाज से चिपक गया हो, - 'अक्कू, अब ये किताबें जाने कब पढ़ सकूँगा। अब तो यह, इतनी मोटी मोटी सोफ्टवेयर की किताबें हैं। बिजनेस मैनेजमेंट की किताबें हैं, ये सब कैसे पढ़ूँ।'

और हितेन को क्या करना पड़ा कि उस अल्मारी की आधी किताबें तो उसने एक ट्रंक में धर दी, और कुछ महीनों के लिए उस ने वे बिजनेस और सॉफ्टवेयर संबंधी किताबें उस अलमारी में धर दी। अब उसकी अल्मारी ऊपर ऊपर से तो चमक रही थी, नीचे के आधे हिस्से में थी वे किताबें, जो हितेन पहले खूब पढ़ता था। समय आ गया कि हितेन फिर हवाई जहाज पकड़े। आकांक्षा फिर रो पड़ी - 'जल्दी आना। प्रत्यक्षा को सँभालना, नौकरी करना और फिर तुम्हें याद करते रहना, इस सब में मैं कितनी अकेली पड़ जाती हूँ...'

हवाई जहाज उड़ गया, आकांक्षा रोती ही रही।

समय ठीक पास परसेंटेज ले कर बारहवीं पास कर के खुश हो गया और अब ऐसे घूमता फिरता था जैसे अब बहुत बड़ा विद्वान बन गया हो वह।

उसे अखबार में विज्ञापन देखना आ गया था। कंप्यूटर अभी उसकी समझ से परे था। पर एक सस्ता दोटकिया मोबाइल उसने बटोर लिया था। घर में एक कहीं से टीपा हुआ टी.वी. भी था जो रंगीन था। समय अखबार में रिक्त स्थान देखता या केंद्रीय पुस्तकालय में पढ़े लिखे बाबू लोगों से पूछता - 'नौकरी कैसे पाई जाती है!'

नौकरी उसे एल.डी.सी. की ही मिल गई।

इधर हितेन भी आ गया एम.बी.ए. कर के और उस के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि वहाँ फाइनल में पढ़ते पढ़ते ही उसी प्रिंसिपल ने जिसने उसकी एडमीशन में मदद की थी उस का इंटरव्यू किसी भारतीय कंपनी के प्रतिनिधि द्वारा करवा दिया। हितेन जब भारत लौटा तो उसके हाथ में एक सशर्त नियुक्ति पत्र था कि पास होने पर आप इस नौकरी पर आ सकते हैं। उसने आते ही आकांक्षा को बताया - 'प्लेसमेंट भी हो गया!'

- 'प्लेसमेंट क्या? क्या नया घर दिलवा रहे हैं?'

हितेन हँसने लगा - 'प्लेसमेंट नहीं पता? यानी फाइनल की पढ़ाई करते करते ही इंटरव्यू भी हो गया और दिल्ली की ही एक कंपनी में नौकरी भी मिल गई! कल ही तो जाना है वहाँ पता करने कि कौन से दिन ड्यूटी जॉयन करने आऊँ!'

- 'वाह!' आकांक्षा बाग बाग हो गई - 'मैं कहती ना थी, कुछ करोगे तभी तो होगा? आप सुनते ही ना थे...' टैक्सी में बैठते ही आकांक्षा को जाने क्या हो गया, खुशी के मारे हितेन से लिपट गई और रोने लगी। टैक्सी हवाई अड्डे से हितेन के मोहल्ले चल पड़ी।

रास्ते में हितेन ने पूछा - 'समय कैसा है? आता जाता रहा?'

- 'वह भी खुश है। नौकरी लग गई उसकी। बारहवीं तो कर ली थी।' और टैक्सी को आकांक्षा ने ठीक प्रत्यक्षा के स्कूल के बाहर रुकवाया। प्रत्यक्षा के स्कूल की छुट्टी होते ही बच्चे बाहर निकले तो आकांक्षा ने बाहर आई उसकी टीचर से कह दिया - 'आज प्रत्यक्षा को मैं ले जा रही हूँ। हम लोग टैक्सी में हैं।'

- 'अच्छा जी' कह कर टीचर बाकी बच्चों को बस में चढ़ाने लगी।

प्रत्यक्षा पापा से लिपट कर खूब खुश थी और टैक्सी घर पहुँच गई।

अचानक वक्त बदलने लगा। घर में नया नया फर्नीचर आ गया। हितेन अब मध्यवर्ग से उच्च मध्यवर्ग में आ गया था। घर में कई नई चीजें आ गईं। समय आता था और घर को हसरत से देखता था। हितेन से बोला - 'मैंने भी वह चौकीदारी छोड़ दी बाबूजी। अब पहले से बेहतर हूँ। पढ़ाई लिखाई सब खत्म...'

हितेन ने उस से कहा - 'अब तुम ये किताबें पढ़ा करो। मेरे से ले जाया करो। ये उपन्यास, कहानियाँ, बहुत अच्छी अच्छी पुस्तकें हैं। कोई परीक्षा नहीं देनी पड़ेगी तुझे। बस पढ़ो और एक मानसिक संतुष्टि पाओ।'

हितेन के पास अब दूसरी चमकदार मोटी मोटी किताबों का ढेर हो गया। कई सी.डी. और लैपटॉप। मोबाइल तो खरीद ही लिए उसने और आकांक्षा भी खुश हो कर उसके एफ.एम. से गाने सुनती रहती, पर कभी कभी पलंग पर लेटे लेटे और एफ.एम. की धुन पर लेटे लेटे ही नाचते हुए उसे लगता उसकी कमर के नीचे से कोई किताब चुभ रही है। उसे वह पढ़ने के लिए निकाल लाई थी पर अब एक मोबाइल उसके पास है और एक मोबाइल हितेन के पास। कभी घंटों उस से बात करती है तो कभी प्रत्यक्षा के आते ही मोबाइल के कैमरे से उसकी फोटो खींचती रहती है। हितेन ने लैपटॉप पर मोबाइल की फोटो उतारने के तरीके भी उसे सिखा दिए। उसकी किताबें अब एक और ट्रंक में आ गई थीं और किताबों के दोनों ट्रंक कहीं पलंगों के नीचे रखे थे। हितेन नई अल्मारी लाया था जिसमें अब उसके शानदार कपड़े थे। पुरानी अल्मारी जिसमें उसकी किताबें थीं वह घर में पीछे कहीं एक पिछवाड़े के बरामदे में फिलहाल बेचने के लिए रख दी। इधर बेडरूम में ही एक चमकदार ड्रेसिंग टेबल आ गई और एक और शोकेस जिसमें हितेन की सभी बिजनेस संबंधी किताबें चमक रही थीं। उसने शोकेस इसलिए लिया और दीवार में ही किताबों का शेल्फ इसलिए नहीं बनवाया कि उसे अगर अपना फ्लैट कहीं खरीदना हो और यह घर छोड़ना हो तो शोकेस तो वहाँ उठवा कर जाया जा सकता है ना! हितेन इन दिनों एक सेकंड हैंड कार खरीदने के लिए भी दलाल तलाश रहा था।

और अब धीरे धीरे हितेन के घर की पुरानी चीजें बिक रही थीं। नई नई चमकदार रुतबेदार चीजों से घर भरता जा रहा था। घर में चीजों के आने की कोई सीमा नहीं थी।

पर एक दिन समय सिंह अपने फटीचर से घर में पल्थी मार कर बेटे को बाल खिला रहा है कि पत्नी रुचि आती है - 'ये जो अलमारी हितेन बाबू ने आप को दी, ये फ्री में दे दी?'

- 'हाँ। हितेन बाबू बहुत अच्छे दिल के हैं। बहुत चीजें बेच दी पर यह अल्मारी मुझे मुफ्त में ही दे दी हितेन बाबू और आकांक्षा भाभी ने।'

- 'और ये किताबें, जिन से अल्मारी भर दी है?'

समय सिंह की जैसे दुखती रग को रुचि ने छू लिया। पर वह हँस पड़ा - 'अब ये किताबें जाने क्या करूँगा मैं। कहते हैं हितेन बाबू, पढ़ो, इनमें बहुत अच्छा साहित्य है, जीवन से जुड़ी हुई असंख्य बातें हैं। अब उनकी नौकरी इतनी भारी है कि वे बिजनेस की किताबें पढ़ पढ़ कर ही थक जाते हैं, इसलिए अब मैं इन्हें पढ़ूँ। खूब चाव से!' और समय सिंह का चेहरा ऐसे हो गया जैसे अच्छी भली मुसीबत भी हितेन बाबू ने उसके सर लाद दी हो। इन्हें देते समय तो आकांक्षा भाभी भी कैसे हँस दी थी - 'अब पढ़ो इन्हें। नहीं तो लगाऊँगी एक छड़ी...!'

और समय सिंह किताबों का वह बोझ लादे घर आ गया था!