शिक्षकों और माता-पिता के लिए / महेश चंद्र पुनेठा
एक लोकतांत्रिक नागरिक में सच को झूठ से अलग छाँटने ,प्रचार से तथ्य अलग करने ,धर्माधंता और पूर्वाग्रहों के खतरनाक आकर्षण को अस्वीकार करने की समझ व बौद्धिक क्षमता होनी चाहिए. .....वह न तो पुराने को इसलिए नकारे क्योंकि वह पुराना हैं ,न ही नए को इसलिए स्वीकार करे क्योंकि वह नया हैं - बल्कि उसे नि’पक्ष रूप से दोनों को परखना चाहिए और साहस से उसको नकारना चाहिए जो न्याय व प्रगति के बलों को अवरूद्ध करता हो...अतः लोकतांत्रिक शिक्षा का उद्देश्य हैं व्यक्तित्व का पूर्ण व चहुँमुखी विकास-अर्थात एक ऐसी शिक्षा जो छात्रों को एक समुदाय में जीवन की बहुआयामी कला में दीक्षित करें.
राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था में राष्ट्रीय अस्मिता के तत्व विभिन्न वि’ाय क्षेत्रों में समाहित किए जाएंगे और उन्हें इस तरह बनाया जाएगा कि वे भारत की एक सामान्य सांस्कृतिक विरासत ,समतावाद ,लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता ,स्त्री-पुरुषों में समानता ,पर्यावरण की सुरक्षा ,सामाजिक अवरोधों का निवारण ,छोटे परिवार के मानदंड का पालन और वैज्ञानिक स्वभाव का पोषण आदि मूल्यों को प्रोत्साहित करें. सभी शैक्षिक कार्यक्रम धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का पूर्ण पालन करेंगे. शिक्षा का उद्देश्य विवेक पर आधारित लोकतंत्र , समानता ,न्याय , स्वतंत्रता , परोपकार , धर्मनिरपेक्षता ,मानवीय गरिमा व अधिकार तथा अन्य के प्रति आदर जैसे मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का निर्माण करना होना चाहिए. .......सामाज विज्ञान शिक्षण का लक्ष्य विद्यार्थियों में इस आलोचनात्मक मानसिकता और नैतिक क्षमता का विकास होना चाहिए ,ताकि वे उन सामाजिक शक्तियों से सावधान रह सकें जो इन मूल्यों को खतरा पहुँचाती हैं .
यहाँ हम देखते हैं कि स्वतंत्रता के बाद तीन अलग-अलग समयों पर तैयार किए गए शिक्षा के दस्तावेजों के उक्त तीनों उद्धरणों में एक बात समान रूप से निकलकर आती हैं कि हमारी शिक्षा का एक बड़ा उद्देश्य बच्चों में लोकतांत्रिक ,धर्मनिरपेक्ष और वैज्ञानिक चेतना का विकास करना रहा हैं जो रा’ट्रीय एकता-अखंडता-शांति और विकास के आवश्यक हैं . यही भावना हमारे संविधान की भी आत्मा हैं . पर दुर्भाग्य हैं कि संविधान के लागू होने के 62 वर्षों के बाद भी हमारा समाज इन मूल्यों से बहुत दूर दिखाई देता हैं . अभी भी हमारा समाज तमाम प्रकार की असमानताओं,भेदभावों,कट्टरताओं,पाखंडों,प्रदर्शनों,अंधविश्वाशों,रूढि़वादिताओं और अवैज्ञानिक मान्यताओं से ग्रसित हैं . कभी-कभी तो लगता हैं कि भौतिक रूप से भले हम 21वीं सदी में जी रहे हैं लेकिन मानसिक रूप से अभी भी 19वीं सदी में ही हैं . उच्च शिक्षित लोगों के भीतर भी ब्राह्मणवाद ,जातिवाद, पुरुश्वाद ,क्षेत्रवाद ,सामंतवाद जैसी संकीर्णताएं गहरे तक पैठी हुई हैं . आश्चर्यजनक यह हैं कि पिछले दशकों में इसकी गति और तेज हुई हैं.
लोकतंत्र में रहते हुए भी हमारी जीवन शैली लोकतांत्रिक नहीं हो पायी हैं . स्वतंत्रता ,समानता ,बंधुत्व तथा धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्य किताबी होकर रह गए हैं . सभी की कोशिश अपनी सत्ता की पकड़ को मजबूत करने की हैं .हर ’बड़ा’अपने से ’छोटे’पर रौब जमाना चाहता हैं . आलोचना सुनने का धैर्य जैसे चुक गया हो. यह स्थिति हमारी शिक्षा पर बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न हैं क्योंकि शिक्षा को ही मनुष्य के व्यवहार और मानसिकता में परिवर्तन का माध्यम माना जाता हैं .
हमारी शिक्षा इन मूल्यों का विकास करने में पूर्णतया असफल रही हैं . शिक्षक, शिक्षा का महत्वपूर्ण अंग होने के नाते इस असफलता की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते हैं . मूल्यों का विकास कोई किताबी चीज नहीं हैं . किताबों में इन मूल्यों के बारे में पढ़ा देना मात्र पर्याप्त नहीं हैं . मूल्यों का विकास आचरण से जुड़ा हुआ हैं .बच्चे अपने माता-पिता ,शिक्षक और साथियों से इन मूल्यों को ग्रहण करते हैं . बच्चों में उतना प्रभाव किताबों में लिखी बातों का नहीं होता हैं जितना अपने आसपास के लोगों के आचार-व्यवहार और मनोवृत्तियों का. इसमें भी शिक्षकों का स्थान सबसे ऊपर होता हैं .पर इस दृष्टि से शिक्षक की स्थिति अजीबोगरीब हैं .
शिक्षक की स्थिति के बारे में राष्ट्रीय पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति 2005 से जुड़े विशेषज्ञ कमलानंद झा अपनी सद्य प्रकशित पुस्तक ’ पाठ्य पुस्तक की राजनीति ’ में एक स्थान पर टिप्पणी करते हैं कि भारत का शिक्षक समुदाय अत्यधिक दकियानूस और परंपरावादी हैं . पुरानी पड़ गई बातों को आज भी शिक्षक दोहराए चले जा रहे हैं . बहुत कुछ पुराने अज्ञान और अंधविश्वास शिक्षक के माध्यम से नई पीढ़ी में डाला जा रहा हैं . कमलानंद झा की यह टिप्पणी तल्ख लग सकती हैं पर यथार्थपरक हैं .
यदि हम अपने आसपास ही नजर दौड़ाएं तो परंपरावादी ,दकियानूसी,सामंतवादी ,अलोकतांत्रिक,भाग्यवादी और अवैज्ञानिक सोच वाले शिक्षकों की कमी नहीं दिखाई देगी. ऐसे बहुत सारे शिक्षक मिल जाएंगे जो रोग-व्याधि से मुक्ति के लिए विभूति लागाने, ताबीज-गंडा बाँधने,झाड़-फूँक या पूजा-पाठ करने की सलाह देने में देर नहीं करते. कुछ तो खुद इन टोने-टोटकों के विधि-विधानों के विशेषज्ञ हैं .
गाँवों में तो ऐसे बहुत सारे शिक्षक दिख जाएंगे जो इसी काम के लिए जाने-माने जाते हैं.पुरोहिती तो बहुत सामान्य बात हैं. इसके अलावा अनुसूचित जाति-जनजाति के बच्चों का छुआ पानी न पीना, मध्याह्न भोजन के समय उन्हें अलग पाँत में बैठाना ,मासिक धर्म के चार दिनों के दौरान भोजन माताओं से रसोई न बनवाना जैसी प्रवृत्तियाँ ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालयों में आम हैं .
इन शिक्षकों की चिंतन प्रक्रिया में तर्क का कोई स्थान नहीं दिखाई देता. किसी घटना के पीछे कार्य-कारण के संबंध को ढूँढने की कोई कोशिश तो इनके लिए दूर की कौड़ी हैं. अतीत-मोह इनकी खासियत. बात बात में भाग्य की ही दुहाई देना आदत का हिस्सा.धर्म ,जाति ,लिंग के सवालों पर सोच का दायरा एक सदी पीछे अटका.लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर कोई आस्था और वि”वास नहीं . बच्चों को स्वतंत्रता और समानता देने की बात पर तो ये भड़क ही उठते हैं.
बच्चों को प्रश्न पूछने तक की छूट देना इन्हें अपनी शान के खिलाफ लगता हैं. बहस करना तो अनुशासनहीनता की पराका’ठा हैं इनकी दृष्टि में. स्त्री को पुरुष के समान मानना इन्हें प्राकृतिक नियम के विरूद्ध प्रतीत होता हैं. इनकी दृढ़ मान्यता हैं कि ईश्वर ने स्त्री को पुरुष से कमजोर बनाया हैं इसलिए वे दोनों कभी समान नहीं हो सकते हैं. प्रकृति में ही असमानता हैं तो भला समाज में समानता कैसे संभव हैं? उनके लिए जाति भी ईश्वर निर्मित हैं.
ये शिक्षक दोहरेपन के शिकार हैं - पाठ पढ़ाते हुए वे अलग होते हैं और व्यवहार में अलग.ये जो पाठ्यपुस्तक में पढ़ाते हैं उस पर इनका स्वयं का विश्वास नहीं होता हैं.उसे ये पाठ्यक्रम पूरा करने के नाम पर पढ़ा-भर देते हैं . समाज के मिथकीय और अप्रमाणिक ज्ञान को ये पाठ्यपुस्तकों में निहित तार्किक ज्ञान से ऊपर रखते हैं. ये मूल्यों का विकास करने की जगह परीक्षा पास करने की दृष्टि से अध्यापन करते हैं . इनके लिए किताब में प्रस्तुत विषयवस्तु सूचना मात्र होती हैं जिसे बच्चों को रटा देना उनका अंतिम लक्ष्य होता हैं. बच्चे कहीं कोई प्र”न खड़ा करते हैं तो ये उन्हें चुप करा देते हैं. बच्चों की मानसिकता और व्यवहार में बदलाव दूर-दूर तक उनकी कार्ययोजना में कहीं शामिल नहीं होता हैं. न ही बच्चे की गरिमा को कोई ध्यान उन्हें रहता हैं.
ऐसे में सवाल उठता हैं कि जब शिक्षकों के भीतर ही लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और वैज्ञानिक चेतना तथा आलोचनात्मक विवेक का अभाव हो तो फिर कैसे आशा की जा सकती हैं कि वे बच्चों में इन मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता का निर्माण कर पाएंगे. जो शिक्षक स्वयं दूसरे धर्मों के प्रति पूर्वाग्रहों से भरा हो तथा बच्चों के समक्ष दूसरे धर्मों की नकारात्मक छवि प्रस्तुत करता हो वह बच्चों में धर्मनिरपेक्षता का मूल्य क्या विकसित करेगा. ऐसे शिक्षकों के सानिध्य मेंशिक्षा ग्रहण करने वाले बच्चे कैसे सभी धर्मों को समान और आदर की दृष्टि से देख पाएंगे? कैसे उसके भीतर वैज्ञानिक व आलोचनात्मक चिंतन पैदा होगा?इस हालात पर आज गंभीरता से सोचने की जरूरत हैं.
यहाँ एक और सवाल पर विचार करना जरूरी लगता हैं कि आखिर शिक्षकों की इस स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार हैं ? वे कौन-सी परिस्थितियाँ हैं जिसके चलते शिक्षक इस स्थिति में पहुँच गए? क्या इस बदलाव विरोधी व्यवस्था में शिक्षक इस हैं सियत में हैं कि वह इच्छित बदलाव कर सके?क्या यह व्यवस्था उसे इतनी छूट देती हैं ?
शिक्षक को इसके लिए पूरी तरह दोषी बताना कहीं न कहीं जल्दबाजी और अधूरा विश्लेषण होगा क्योंकि शिक्षक स्वयं उस सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था का अंग हैं जो अलोकतांत्रिक और अवैज्ञानिक हैं .इस व्यवस्था के आकाओं को नागरिकों में लोकतांत्रिक चेतना की कोई गरज नहीं हैं . यह उनके वर्गीय स्वार्थों के खिलाफ हैं . शिक्षक बनने से पहले वह जिस व्यवस्था में पला-बढ़ा और पढ़ा-लिखा हैं उसका असर उस पर पड़ना स्वाभाविक हैं . इस व्यवस्था में उसकी हैं सियत का विश्लेषण करना होगा.
क्या वह इस स्थिति में हैं कि इस दिशा में स्वतंत्रता से काम कर सके? इस संदर्भ में युवाशिक्षाविद राजीव शर्मा की बात गौरतलब हैं -"शिक्षक रूपी जो चाबी हैं उससे बड़े बदलाव की अपेक्षा की जाती हैं जबकि उसकी सामजिक स्थिति में लगातार गिरावट आयी हैं . वास्तव में शिक्षक समाज का एक हिस्सा हैं और स्कूली व्यवस्था का एक अंग पर स्कूली ढाँचे के निर्माण में उसकी भूमिका ना के बराबर हैं . बात असल में ढाँचों की हैं जो प्रत्येक बदलाव की खिलाफत करते हैं या बदलाव को अपने दृष्टिकोण से देखने की कोशिश करते हैं." वास्तव में शिक्षक इस व्यवस्था की चाबी मात्र हैं उसको चलाने वाला तो कोई और ही हैं.
ऐसा न होता अगर तो फिर क्यों शिक्षा के विभिन्न दस्तावेजों में जिस बात को बार-बार दोहराया जाता रहा हैं उसके लिए कोई ठोस पहलकदमी नहीं हुई. तमाम मुद्दों पर शिक्षक -संवेदीकरण हेतु समय-समय पर केंद्र-राज्य सरकारों द्वारा प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए गए पर कभी नहीं सुना या देखा गया कि शिक्षकों में लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष व वैज्ञानिक चेतना के विकास के लिए कोई विशेष प्रशिक्षण शिविर चलाए गए. इस बिंदु पर भी विचार किया जाना चाहिए. वास्तव में यह व्यवस्था यथास्थिति को बनाए रखना चाहती हैं. अप्रत्यक्ष रूप से यह कोशिश करती हैं कि काम करने वाला शिक्षक भी थक हार कर बैठ जाय.