शिक्षकों की दुर्दशा / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
शिक्षा का एक और पहलू भी है जो नए शासकों की मनोवृत्ति पर प्रकाश डालता है। मुद्दत से इस गुलाम मुल्क के शिक्षकों की हालत निहायत बदतर रही है , खासकर वेतन की दृष्टि से। इस कमरतोड़ महँगी के जमाने में भी आठ , दस , बारह या पंद्रह रुपए मासिक वेतन वे पाते रहे हैं जो एक बाबू के जलपान के लिए भी पूरा न था। यह शर्म की बात थी और स्वराजी शासक इसे फौरन मिटाएँगे यह आशा थी। तीन-चार साल की निरंतर चीख-पुकार और हड़ताल की धमकी के बाद भी जो कुछ आज किया गया है वह जले पर नमक जैसा ही है। हम यह न भूलें कि बिहार के प्राइमरी शिक्षकों को जो फीस छात्रों से मिलती है वह उनकी आय है और वह शीघ्र ही बंद होगी।
ऐसी दशा में 20, 25 या 30 रुपए मासिक वेतन की क्या कीमत है ? ट्रेंड मिडिल या अंट्रेंड मैट्रिक को 20 रु. देना जले पर नमक नहीं तो आखिर है क्या ? अंट्रेंड ग्रेजुएट को 50 रु. मिलेंगे। क्या खूब! जब हम यह याद करते हैं कि चीनी की मिलों के मेहतर को भी पूरे 55 रु. मासिक मिलते हैं तो ग्रेजुएट के 50 रु. पर शर्म से जमीन भी धाँस जाती है , हो सकता है हमारे नए मालिक और हाकिम इसमें भी शान ही समझें।
चीनी की मिलों में तो ' मुफ्त का माल और दादा का फातिहा ' हुआ है न ? किसानों की ऊख का दाम पूरा न देकर और चीनी का दाम काफी बढ़ा कर चीनी की मिलों के मजदूरों का वेतन बढ़ाया गया है। यह भी न भूलें कि तीन-चौथाई चीनी किसान ही खर्चते हैं। मामूली श्राध्द , विवाह या निमंत्रण में गरीब किसान भी दस बीस सेर चीनी खर्चता है जो सैकड़ों बाबुओं के चाय-नाश्ते में कई महीने के लिए काफी है। इस प्रकार चीनी के दाम की बढ़ती और ऊख के मूल्य की घटती ने दुधारी तलवार की तरह किसानों का कत्ल करके चीनी के मजदूरों का पेट भरा है। वह सीधा और मूक ठहरा न ? वह बकरी और मुर्गी है न ? इसी से आसानी से उसे दोनों ओर से जिबह किया जा सका है। यदि वैसी मुर्गी और भी होती तो उसी के खून से शिक्षकों को भी , जो अधिकांश किसान-मजदूरों के ही बच्चे हैं , कम-से-कम 55 रु. दिए जाते और उनका पेट भरा जाता। मगर अफसोस कि वह मिली ही नहीं। फिर भी गल्ले की बिक्री पर इसी वेतन के लिए टैक्स लगेगा और सेस भी बढ़ेगा! ठीक ही है , गल्ला बहुत ही सस्ता जो है! किसान मालामाल जो हो गया है! तभी तो बढ़ा हुआ सेस चुकाएगा और महँगा गल्ला खरीद कर खाएगा। याद रहे कि 80 फीसदी किसानों और खेत-मजदूरों की अपनी उपज से साल-भर गुजर नहीं होती। उन्हें गल्ला खरीदना ही पड़ता है।