शिक्षाकाल-2 / सुकेश साहनी

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प्रोफेसर शर्मा के चेम्बर की ओर जाते हुए उसके पैरों में पानी-सा भरने लगा। वह साफ मना कर देगा, उसने दिन-रात एक करके अपना रिसर्च-वर्क पूरा किया है—अपनी हड्डियाँ तक गला दी हैं उसने—इन दो वर्षों में। वह किसी भी दिन तीन घण्टों से अधिक नहीं सोया। शर्मा सर ऐसे निकलेंगे, उसने सोचा भी नहीं था। क्या नहीं किया उसने उनके लिए? दो साल लगातार उनकी कुन्द बुद्धि लड़की को निःशुल्क ट्यूशन दी। उनकी प्रकाशनाधीन पुस्तक के लिए बिना पारिश्रमिक सैकड़ों चित्र बनाएँ गेहूँ तक तो पिसवाता रहा है वह उनके लिए—और अब उनका यह आदेश—!

"तो फिर—तुमने क्या निर्णय लिया?" प्रोफेसर ने छूटते ही उससे पूछा।

"सर, मैं मिस मधु को उनके रिसर्च प्राब्लम में पूरा कोआपरेट करूँगा, पर—" उसने कहना चाहा।

"मि-अजय!" प्रोफेसेर का स्वर रूखा हो गया-"आखिर तुम अपने को समझते क्या हो? क्या इस इंस्टीट्यूट में केवल तुम्हीं एक काबिल आदमी रह गए हो? मैंने तुम्हें कल भी समझाया था कि मैंने तुम्हें और मधु को जान-बूझकर मिलते-जुलते रिसर्च टॉपिक दिए थे। मुझे मालूम था कि मधु से कुछ होना-हवाना है नहीं। इसीलिए कहता हूँ, तुम अपने रिसर्च नोट्स उसे दे दो। रही तुम्हारे काम की बात—उसे मैं जल्दी ही पूरा करा दूँगा।"

"सर, मैं एक गरीब किसान का बेटा हूँ। मुझ पर बहुत ज़िम्मेदारियाँ हैं—तीन बहनों की शादी—बूढ़े माँ-बाप का कर्जा। सर, यहाँ एक-एक पल मुझ पर पहाड़-सा गुजर रहा है"—वह मिमियाया।

"मुझे कहानी नहीं—तुम्हारा जवाब चाहिए" दो वर्षों में पहली बार उसे लगा कि शर्मा साहब की आंखों की तेज़ी और बिच्छू के डंक में काफी समानता है।

"सर! मेरी प्रार्थना पर एक बार और गौर कर लेते तो बड़ी मेहरबानी।"

"मुझे बच्चा समझा है क्या? उनका स्वर व्यंग्यात्मक हो गया-मुझे तुम्हारा जवाब चाहिए, हाँ या ना!"

"मुझे क्षमा करें, सर।" उसने किसी तरह कह डाला-"मैं जल्दी से जल्दी अपने परिवार के लिए रोटी कमाना चाहता हूँ।"

"तो यही है तुम्हारा फैसला?" गुस्से से प्रोफेसर का चेहरा विकृत हो गया—"मैं भी देखता हूँ कि कैसे तुम तीन साल में यहाँ से निकलते हो—सात साल तक तुम्हारी नाक यहाँ न रगड़वाई तो मैं भी प्रोफेसर शर्मा नहीं।"

"सर—प्लीज़। वह गिड़गिड़ाया।"

"ओ-के-! नाऊ यू केन गो!" -उन्होंने गुस्से से उसके चेहरे के आगे चुटकी बजाते हुए चेम्बर से बाहर निकल जाने का संकेत किया।

खिन्न तबीयत वह शर्मा साहब के चेम्बर से बाहर आ गया। लड़खड़ाते कदमों से बमुश्किल वह प्रयोशाला में अपनी सीट तक पहुँच सका। डबडबाई आंखों से उसे हर चीज़ बेडौल और टेढ़ी-मेढ़ी दिखाई दे रही थी। उसकी सीट से थोड़ी दूरी पर मिस मधु अपने नाखूनों पर नेल-पालिश लगाने में व्यस्त थी। इससे पहले कि उसकी आंखें छलकें और किसी की नज़र पड़े, वह बेमतलब माइक्रोस्कोप में झाँकने लगा। लैंस में उसने प्रोफेसर शर्मा को आग्नेय नेत्रों से अपनी ओर घूरते पाया। उसने जल्दी से लैंस से आँखें हटाईं और फिर उन्हें हथेली से मसला। पुनः लैंस में झाँकने पर उसे बेहद हैरानी हुई. उसका आश्चर्य बढ़ता ही गया। इस बार माइक्रोस्कोप में वह आशा भरी नजरों से अपनी ओर ताकते बूढ़े माँ-बाप के सिवा और कुछ नहीं देख पा रहा था।

(रचनाकाल: जुलाई, 85)