शिक्षाकाल/ सुभाष नीरव
"सर,मे आय कम इन?" --उसने डरते-डरते पूछा।
"आज फिर लेट? चलो, जाकर अपनी सीट पर खड़े हो जाओ।"
वह तीर की तरह अपनी सीट की ओर बढ़ा |
"रुको!" --टीचर का कठोर स्वर उसके कानों में बजा और उसके पैर वहीं जड़ हो गए। तेजी से नज़दीक आते कदमों की आवाज़-- "जेब में क्या है? निकालो ।"
कक्षा में सभी की नज़रें उसकी ठसाठस भरी जेबों पर टिक गई। वह एक-एक करके जेब से सामान निकालने लगा| कंचे,तरह-तरह के पत्थर, पत्र-पत्रिकाओं से काटे गए कागज़ों के रंगीन टुकड़े, टूटा हुआ इलैक्ट्रिक टैस्टर, कुछ जंग खाए पेंच-पुर्जे |
"और क्या-क्या है? तलाशी दो।" --उनके सख्त हाथ उसकी नन्हीं जेबें टटोलने लगे। तलाशी लेते उनके हाथ गर्दन से सिर की ओर बढ़ रहे थे-- "यहाँ क्या छिपा रखा है?" उनकी सख्त अंगुलियाँ खोपड़ी को छेदकर अब उसके मस्तिष्क को टटोल रहीं थीं ।
वह दर्द से चीख पड़ा और उसकी आँख खुल गई।
"क्या हुआ बेटा?" --माँ ने घबराकर पूछा ।
"माँ, पेट में बहुत दर्द हैं" --उसने पहली बार माँ से झूठ बोला-- "आज मैं स्कूल नहीं जाऊँगा ।"