शिक्षाकाल / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
सिटपिटाया–सा रंजन चुपचाप खड़ा था। मि। ढोलकिया बोले जा रहे थे–"कल प्रैक्टीकल हो गया, तुम आज आ रहे हो। अब मैं क्या कर सकता हूँ? तुम शहर छोड़कर पिकनिक पर चले गए. मैं तुम्हें कहाँ ढूँढ़ता फिरता? सबके घर सूचना भिजवा दी थी। तुम घर पर रहो तो पता चले।"
"देखो भाई,"–मि। ढोलकिया कुछ नरम पड़े–"परीक्षक जयपुर का रहने वाला है। नम्बर वही देगा न? इतनी दूर कौन जाएगा दो सौ खर्च करके? मुझे क्या पड़ी है पैसा बरवाद करने की।"
पास में खड़े लैब–असिस्टैंट लल्लू ने सुरती मलते हुए अपनी इकलौती आँख का इशारा करके रंजन को पास बुलाया–"सौ का नोट अपने गुरुजी की जेब में डाल दो। एक किला बर्फ़ी ले आना। सब हो जाएगा।"
रंजन ने सौ रुपए और मिठाई का डिब्बा लाकर मि। ढोलकिया को अर्पित कर दिए. लल्लू खुशामद भरे स्वर में बोला–"साहब, बेचारे से गलती हो गई. मेहरबानी कर दीजिए. इस स्कूल में आखिरी साल है इसका।"
"चलो, तुम्हारी बात मान लेते हैं।" दराज में कॉपी निकालकर ढोलकिया ने रंजन को दे दी और लल्लू के कंधे पर हाथ रखकर बाहर निकल आए–"तुमने अच्छा फांसा। नम्बर तो मुझे ही देने हैं। मैं खुद ही बोर्ड को भेजूँगा।"