शिक्षा, सिनेमा और घर का कुरुक्षेत्र / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :27 अप्रैल 2015
हिन्दुस्तान के कई क्षेत्रों में देशी चीजें जड़ से उखाड़कर फेंकने के प्रयास हो रहे हैं और कहीं न कहीं हमारे भीतर भी देशीपन से चिढ़ है, क्योंकि काेई भी परिवर्तन थाेपा नहीं जाता। भीतर ही असंतोष के कारण कोई अनाम सी बेचैनी है। सदियों से अनेक समस्याओं की जड़ पर प्रहार नहीं करके हम लाक्षणिक इलाज करते रहे हैं। इसी कारण असंतोष की लहर सदियों से जस की तस है। विगत सप्ताह 'फास्ट एंड फ्यूरियस' और अब 'अवेंजर्स' अच्छा व्यवसाय कर रही है। इन दोनों फिल्मों की सफलता के कारण ठेठ भारतीय फिल्माें की कड़ी आलोचना हो रही है। आज का सिनेमा टेक्नाेलाॅजी पर आधारित है और इसके लिए विपुल धन की आवश्यकता होती है। हॉलीवुड की फिल्में पूरे संसार में दिखाई जाती हैं, आय अधिक होने से बजट अधिक है। अब मुद्दा है कि भारतीय सिनेमा सारे संसार में क्यों नहीं देखा जाता, परंतु इससे भी अधिक गंभीर मुद्दा यह है कि फिल्में पूरे भारत में क्याें नहीं दिखाई जातीं। हमारी सफलतम फिल्म भी चार करोड़ दर्शक ही सिनेमाघर में देखते हैं। भारत के अनेक छोटे शहरों और कस्बों में सिनेमाघर नहीं हैं और अगर उसके नाम पर काेई सुविधाहीन ठाठिया सिनेमाघर है भी, तो पारिवारिक दर्शक उसमें नहीं जाते। हमारे देश में केवल 9 हजार एकल सिनेमा और बमुश्किल तीन हजार मल्टी स्क्रीन हैं, जबकि वैज्ञानिक सर्वेक्षण है कि भारत में कम से कम तीस हजार एकल सिनेमा चाहिए। आज टेलीविजन पर प्रोमो देखने के कारण कस्बाई दर्शक भी पहले सप्ताह फिल्म देखना चाहता है। इस इच्छा का लाभ अवैध वीडियो पार्लर को मिल रहा है।
हिन्दुस्तानी सिनेमा के फूहड़पन पर छातीकूट करने वाले क्या बता सकते हैं कि 'फास्ट एंड फ्यूरियस' अौर 'अवेंजर्स' की कथा में क्या सार्थकता है? ये फिल्में टेक्नोलॉजी द्वारा रची अफीम हैं। अत: अब अफीम खेत में नहीं, वरन लेबोरेटरी में भी गढ़ी जा रही है और यह अवैध नहीं है। मेरे पोते ने अपना अंतिम परचा देकर सीधे 'फास्ट एंड फ्यूिरयस' का रास्ता पकड़ा, क्योंकि सारे वर्ष भी वह टेलीविजन पर अमेरिकन सिनेमा देखता है। कम बजट में बनी भारतीय फिल्म के एक्शन से अधिक रोचक उसे बड़े बजट का हाॅलीवुड पसंद है। इसी तरह हर क्षेत्र में देशज अपदस्थ हो रहा है। असली चिंता की बात यह है कि हमारी शिक्षा भी अमेरिकन प्रणाली से प्रेरित है। बाजार व विज्ञापन द्वारा समाज में सफलता को मूल्य की तरह स्थापित कर दिया गया है। अब शिक्षा अच्छा मनुष्य नहीं सफल आदमी रच रही है। कुछ वर्ष पूर्व दूरदर्शन पर एक सत्य घटना का नाट्य संस्करण प्रस्तुत हुआ था। एक मां अपने बच्चे को सर्वप्रथम आने का मंत्र देती है। बच्चा और मां दोनों मेहनत करते हैं। बच्चा प्रतिभाशाली है और आठवीं तक सर्वप्रथम आता है, परंतु 9वीं और 10वीं में पिता के ट्रान्सफर के कारण एक नया बालक सर्वप्रथम आता है और दोनोें के बीच केवल पांच अंक का अंतर है। माता-िपता के दबाव और सफलता मंत्र से संचालित निर्मम संसार पहले बालक को प्रेरित करता है कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी को जान से मार दे, अन्यथा सर्वप्रथम नहीं आ सकता। परिणामस्वरूप एक की जान जाती है और दूसरा जेल जाता है। देश ने दो प्रतिभाएं खो दीं।
यह परीक्षा परिणाम का मौसम है और घर-घर में कुरुक्षेत्र चल रहा है। चौरासी प्रतिशत लाने वाला प्रताड़ित किया जा रहा है, 94 प्रतिशत क्याें नहीं। गोयाकि पूरा समाज उसकी कमीज मेरी कमीज से उजली क्याें, के चक्रव्यूह में फंसा है। माता-पिता को क्या दोष दें, जब अच्छे अंक पर ही प्रवेश आधारित है। गांधीजी ने 1920 में गुजरात विद्यापीठ की स्थापना करते समय कहा था- जब तक हमारी शिक्षण संस्थाएं पाठ्यक्रम में जीवन मूल्य के साथ व्यवहारिक जीवन की आवश्यकताओं के अनुरूप तथ्य शामिल नहीं करेंगी तब तक ये संस्थाएं मृत समान हैं। आज त्रासदी यह है कि गांधीवादी संस्थाओं में प्रतिभाशाली छात्र नहीं जाते, क्योंकि उन्हें नौकरियां जीवन मूल्य आधारित शिक्षा से नहीं मिलतीं। इस समस्या का मूल भी यह है कि शिक्षक को सम्मान नहीं मिला। हमारी विशिष्ट व्यक्ति अपसंस्कृति ने शिक्षक पद की गरिमा नष्ट कर दी। सारी समस्याएं एक दूसरे से जुड़ी हैं और हम केवल दुखते हुए अंग का इलाज कर रहे हैं। जो किसान के साथ किया, वही शिक्षक के साथ किया।