शिक्षा का माध्यम परिवेश की भाषा हो / महेश चंद्र पुनेठा
बाजारवाद के दबाब में आज अंग्रेजी को शिक्षण का माध्यम बनाने की एक हवा सी चल पड़ी है। कभी हिंदी का झंडा मजबूती से थामे रखने वाली शैक्षणिक संस्थाएं भी एक-एक कर इस हवा में बहती जा रही हैं। निजी विद्यालय तो बाजार की दौड़ में अपने आप को बनाए रखने के लिए अंग्रेजी माध्यम को अपनाने को मजबूर हैं ही, लेकिन अब सरकारी स्कूल भी प्रयोग के नाम पर इस दिशा में आगे बढ़ चले हैं। अखबारों में आए दिन इस आशय की खबरें पढ़ने को मिल रही हैं। शिक्षा विभाग के उच्च अधिकारियों और शिक्षकों को लगता है कि सरकारी विद्यालयों की घटती छात्र संख्या का एक बड़ा कारण इनका अंग्रेजी माध्यम का न होना है। यदि यहाँ अंग्रेजी माध्यम शुरू किया जाये तो घटती छात्र संख्या को रोका जा सकता है। हो सकता है कि एक हद तक उनका यह अनुमान सही सिद्ध हो। अंग्रेजी के प्रति अतिशय मोहग्रस्त मध्यवर्ग इस कदम से कुछ आकर्षित होकर इन विद्यालयों की ओर लौट आए, पर बड़ा सवाल यह नहीं है कि विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि हो बल्कि उससे बड़ा सवाल है कि इससे बच्चों की सीखने की गति पर क्या प्रभाव पड़ेगा, बच्चे विषयवस्तु को कितना समझ पाएँगे, अपने स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से कितना जोड़ पाएँगे\ यदि ऐसा नहीं कर पाएँगे तो क्या वह ज्ञान निर्माण की दिशा में आगे बढ़ पाएँगे, या फिर उनका मस्तिष्क सूचनाओं और जानकारियों का बैंक मात्र बनकर रह जाएगा, इन गम्भीर और जरूरी सवालों पर कहीं कोर्इ विचार-विमर्श नहीं दिखार्इ देता है। सभी बाजार द्वारा प्रायोजित अंधी दौड़ में दौड़ते जा रहे हैं। अंग्रेजी का भूत इस कदर हावी हो गया है कि सीखने-सीखाने के बुनियादी सिद्धांतों को ही भूल गए हैं।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश में सरकारी स्कूलों में जाने वाले अधिकांश बच्चे ऐसे परिवेश से आते हैं, जहाँ अंग्रेजी उनके लिए पूरी तरह एक विदेशी भाषा है। जिनकी अभिव्यक्ति का माध्यम स्थानीय बोली-भाषा है। संविधान में मान्यता प्राप्त भाषाएँ भी उनके लिए दूसरी भाषा है। जब बोली से दूसरी भाषा तक आना भी उनके लिए बहुत कठिन होता है, दूसरी भाषा में पढ़ा-लिखा भी वे बहुत कठिनार्इ से समझ पाते हैं (जबकि वह भाषा कहीं-न-कहीं उनके परिवेश में मौजूद होती है), ऐेसे बच्चे जब अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाए जाएँगे, तब वह विद्यालय में अपने आपको कितना सहज महसूस करेंगे, उनका कक्षा में कितना मन लगेगा और विषयवस्तु को कितना समझ पाएँगे, ये विचारणीय प्रश्न हैं। कहीं भाषा का यह वैरियर उन्हें स्कूल से ही दूर न कर दे। जिन बच्चों के लिए अपनी ही परिवेश की भाषा में विषयवस्तु को समझना कठिन होता है, यदि एक विदेशी भाषा को शिक्षण का माध्यम बनाया जाएगा तो उनकी समझ में कितना आएगा\ कैसे वह प्राप्त जानकारी के आधार पर ज्ञान का निर्माण कर पाएँगे तथा नया रच पाएंगे\ परिवेश से दूर की भाषा में बच्चा जानकारियों, तथ्यों, सूचनाओं को केवल रट सकता है और रटने से ज्ञान निर्माण संभव नहीं है और न ही रचनात्मकता। आज अंग्रेजी माध्यम से पढ़े बहुत सारे बच्चों को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
अंग्रेजी माध्यम से शिक्षण करने पर यह हो सकता है कि तोते की तरह बच्चे अंग्रेजी में कुछ अवश्य बोलने लग जाएँगे, पर वह उसे अपनी अभिव्यक्ति का सहज माध्यम नहीं बना पाएँगे। ऐसा होने पर उनकी चिंतन प्रक्रिया बाधित होगी। यह प्रमाणित तथ्य है कि मनुष्य हमेशा उसी भाषा में चिंतन करता है, जो शिशु विकास की प्रारम्भिक अवस्था में सार्वधिक सुनता है, जिसको उसके परिवार और पास-पड़ोस में बोला जाता है, जिसे उसने अपने बड़ों से अनौपचारिक तौर से सीखा है। अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम होने पर ऐसे बच्चे जो फर्स्ट जनरेशन लर्नर हैं, सीधे शिक्षा की धारा से बाहर हो जाएँगे। वे साक्षर हो सकते हैं, शिक्षित नहीं। उन्हें वस्तुओं के अंग्रेजी में लिखे विज्ञापन पढ़ने भले आ जाएँ, लेकिन उनकी सही पहचान नहीं होगी। कुछ बच्चों को अवश्य इसका लाभ हो सकता है, लेकिन बड़ी संख्या इसका खामियाजा भुगतेगी। उनके लिए पढ़ार्इ पहाड़ बन जाएगी, उन्हें कुछ भी समझ नहीं आएगा और पढ़ार्इ-लिखार्इ ऊब पैदा करेगी। ऐसे में सोचा जा सकता है कि सीखने की प्रक्रिया और गति कितनी आगे बढ़ पाएगी। यह हो सकता है कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाया जाये तो बच्चा एक लंबे अंतराल बाद अंग्रेजी भाषा तो सीख जाएगा, परंतु विषयवस्तु पर उसकी पकड़ उतनी गहरी नहीं हो पाएगी जितनी अपने परिवेश की भाषा के माध्यम से पढ़ने में। जो समय तथा श्रम बच्चे को विषयवस्तु की गहरार्इ में उतरने में लगना चाहिए, वह भाषा सीखने में लग जाएगा।
आपने अनुभव किया होगा कि जब आप कभी-कभार पढ़ाते हुए बच्चों की बोली में उनसे बतियाने लगते हो या उनके घर-गाँव में बोले जाने वाले शब्दों का उच्चारण करते हो तो उनके चेहरे एक अजीब सी आभा से चमक उठते हैं। उनके होंठों में मुस्कान बिखर जाती है। ऐसा लगता है, जैसे वे हमारे एकदम करीब आ गए हैं। कक्षा में चुप्पा-चुप्पा रहने वाले बच्चे भी अपनी चुप्पी तोड़ बतियाने लगते हैं। उन्हें शिक्षक अपने ही बीच का लगने लगता है। विषयवस्तु को वे बहुत जल्दी भी समझ जाते हैं। इससे पता चलता है कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में भाषा की क्या भूमिका है\ पर आज अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का आलम यह है कि वहाँ बच्चों के लिए अपनी परिवेश या मातृभाषा में बात करना तक प्रतिबंधित है। ऐसा करने पर उन्हें दंडित किया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि जब बच्चे के पास अपनी आवश्यकताओं या भावनाओं को अभिव्यक्त करने के लिए अंग्रेजी शब्द नहीं होते हैं तो वह चुप-चुप रहने लगता है या बहुत कम शब्दों में अपनी बात कहता है। उसकी अभिव्यक्ति की क्षमता बाधित होने लगती है। किसी भी भाषा का समुचित विकास नहीं हो पाता है।
भाषा के विकास के लिए यह जरूरी माना जाता है कि बच्चे को सुनने-बोलने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराए जायें। जैसा कि हम मातृभाषा सीखने के संदर्भ में भी देखते हैं कि परिवार में बच्चे को भाषा सुनने और बोलने के पर्याप्त अवसर दिये जाते हैं। उससे अधिक-से-अधिक बात की जाती है। उसे कुछ-न-कुछ (टूटा-फूटा या आधा-अधूरा ही सही) बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस तरह वह धीरे-धीरे भाषा सहजता से सीख लेता है। जब बच्चे को उसकी परिवेश की भाषा में बोलने से रोका जाता है तो इससे कहीं-न-कहीं उसकी चिंतन प्रक्रिया बाधित होती है, जिसके बिना भाषा का विकास संभव नहीं है। ऐसे बच्चे अपने भावी जीवन में दब्बू और संकोची होते हैं। इसलिए जरूरी है कि शिक्षण का माध्यम बच्चे की परिवेश की ही भाषा होनी चाहिए। कम से कम प्रारम्भिक शिक्षा तो उसके परिवेश की भाषा में ही होनी चाहिए। ऐसा कहने के पीछे यहाँ कोर्इ राजनीतिक या सांस्कृतिक कारण नहीं है बल्कि विशुद्ध शैक्षिक कारण है। यह आजमाया हुआ सत्य है कि बच्चे की सीखने की गति अपने परिवेश की भाषा में ही सबसे अधिक होती है क्योंकि ऐसे में बच्चे का पूरा ध्यान विषयवस्तु पर होता है। उसे भाषा से नहीं जूझना पड़ता है। बच्चा सुनने और बोलने की भाषायी दक्षता अपने परिवेश से ग्रहण कर चुका होता है। यह भाषा किताबी ज्ञान को वास्तविक जीवन से जोड़ने में भी मददगार होती है। यदि किताबों की भाषा वह नहीं है, जो बच्चे के घर व पास-पड़ोस में बोली जाती है, तो बच्चे के स्कूली जीवन और बाहरी जीवन के बीच एक रिक्तता बनी रहेगी।
बच्चा अपने आसपास के अनुभवों को अपनी कक्षा-कक्ष तक नहीं ले जा पाएगा। न किताबी ज्ञान से उसका संबंध जोड़ पाएगा। उसे हमेशा यह लगता रहेगा कि स्कूली जीवन और घरेलू जीवन एक-दूसरे से अलग हैं। शिक्षा को जीवन से जोड़ने और रुचिकर बनाने के लिए जरूरी है कि इस अंतराल को समाप्त किया जाये। परिवेश से दूर की भाषा शिक्षण का माध्यम होने पर उसका प्रभाव बच्चे के बौद्धिक व संज्ञानात्मक विकास पर पड़ता है। इसको नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। यह माना जाता है कि बच्चों के व्यक्तित्व निर्माण में सबसे अधिक सहायता परिवेशीय भाषा से ही मिलती है। उसमें सोचने और महसूस करने की क्षमता का विकास जल्दी होता है। चिंतनात्मक व सृजनात्मक योग्यता अधिक विकसित होती है। बच्चे का भाषा पर अधिक अधिकार होता है। भाषा पर अधिकार होने का सीधा मतलब ज्ञान के अन्य अनुशासनों में आसानी से प्रवेश कर पाना है और पढ़ने में अधिक आनंद आना है। सामान्यत: यह देखने में आता है, जिस बच्चे का भाषा पर अधिकार होता है, वह अन्य विषयों को भी जल्दी सीख-समझ जाता है। उसके लिए अवधारणाओं को समझना सरल होता है। फलस्वरूप उसके सीखने की गति अच्छी होती है। इतना ही नहीं ऐसा बच्चा अन्य भाषाओं को भी सरलता से सीख पाता है। गैर-परिवेशीय भाषाओं में इसके विपरीत होता है। परिवेश की भाषा के पक्ष में एक सकारात्मक पहलू यह है कि जब बच्चा स्कूल जाना प्रारम्भ करता है, उस समय उसके पास अपने आसपास के वातावरण तथा प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन से अपने लिए जरूरी शब्दों का एक छोटा-मोटा भंडार होता है, जिनका वह आवश्यकतानुसार प्रयोग करता है। स्कूल उसके इन शब्दों को आधार बनाकर उसके शब्द भंडार में उत्तरोत्तर वृद्धि करता है। बच्चों में संवेगों, मानवीय मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण व चारित्रिक गुणों का विकास भी परिवेशीय भाषा में बातचीत से अधिक संभव है।
अंग्रेजी को शिक्षण का माध्यम बनाने से अधिक आवश्यक यह है कि अंग्रेजी भाषा के शिक्षण को बेहतर और वैज्ञानिक बनाया जाये। समय चक्र में उसे अधिक समय दिया जाये। अंग्रेजी को परिवेशीय भाषा में न पढ़ाकर अंग्रेजी कक्षा का वातावरण ऐसा बनाया जाये, जिससे बच्चा आसानी से उस भाषा को सीख सके। दूसरी या तीसरी भाषा सीखने का जो खौफ बच्चे के भीतर होता है, वह समाप्त हो सके। इसके लिए हमारे पास अंग्रेजी सीखने का एक मॉडल होना चाहिए। उसे यांत्रिक तरीके से नहीं सिखाया जाना चाहिए। यह कैसी बिडंबना है कि तथाकथित अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों में अंग्रेजी भी हिंदी माध्यम से पढ़ायी जाती है! हिंदी माध्यम के स्कूलों की बात ही क्या कहें! अंग्रेजी में प्रवीणता हासिल करने के लिए शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी करना कतर्इ जरूरी नहीं है।
अंत में एक बात और, आज अंग्रेजी को सफलता की भाषा माना जाता है और समाज के हर तबके के मन में यह बात गहरे तक पैठी है। बाजार द्वारा इस भ्रम को हवा देने का काम किया जा रहा है। अंग्रेजी माध्यम शिक्षा का व्यापार करने का बहाना बन गर्इ है। ऐसा नहीं है, सफलता के सूत्र भाषा में नहीं, बौद्धिक क्षमता में छुपे होते हैं और यह किसी भाषा की मुहताज नहीं होती है।