शिक्षा व्यवस्था के भवन में दीमक / जयप्रकाश चौकसे

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शिक्षा व्यवस्था के भवन में दीमक
प्रकाशन तिथि :14 मार्च 2018


सबसे अधिक महत्वपूर्ण समस्या शिक्षा की है। सरकारी स्कूल, प्राइवेट स्कूल जिन्हें सरकारी सहायता प्राप्त है और निजी स्कूल जो सरकारी सहायता नहीं लेते इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। सरकारी स्कूलों में नियुक्त शिक्षक प्राय: गैर-हाजिर रहते हैं और स्कूल आते भी हैं तो पढ़ाते नहीं हैं, जिस कारण परीक्षा परिणाम निराशाजनक आते हैं। अत: लोग अपने बच्चों को गैर-सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलाते हैं। जो स्कूल सरकारी सहायता नहीं लेते, उन्हें भी मान्यता प्राप्त करने के नियम का पालन करना होता है गोयाकि सरकारी अष्टपद से कोई भी नहीं बच पाता। इस तरह शिक्षा का सरकारीकरण हो चुका है। शिक्षा स्तर इतना गिरा हुआ है कि परीक्षा पास करने वालों का ज्ञान भी शून्य समान है। तमाम शिक्षा संस्थानों में दीमक लगने के कारण देश का भवन जर्जर होता जा रहा है। इस क्षेत्र में सबसे बड़ा अभाव योग्य शिक्षकों का है। जो व्यक्ति किसी अन्य क्षेत्र में रोजी रोटी नहीं कमा सकता, वह शिक्षा क्षेत्र में खप जाता है। महात्मा गांधी इस समस्या से परिचित थे और उन्होंने विद्यापीठ की स्थापना की थी परंतु गांधीजी के आदर्श तो उनके जीवन-काल में भी भंग हो रहे थे और स्वतंत्रता प्राप्त करने का समय उनकी विजय का समय था परंतु मन ही मन वे जानते थे कि वे असफल हो गए हैं। इसी दशा को सिमॉन द ब्बॉ 'काउंटर क्लोजर' कहती हैं। शिक्षा पर हमारे यहां कुछ फिल्में बनी हैं परंतु शांताराम की एक फिल्म में शिक्षक जितेन्द्र छात्रों को स्कूल भवन से दूर प्रकृति की गोद में शिक्षा देता है। संभवत: फिल्म का नाम था 'बूंद जो बन गई मोती'।

शिक्षा के लिए संगमरमरी भवनों और उसके तामझाम पर किया गया खर्च व्यर्थ चला जाता है, क्योंकि दोषपूर्ण पाठ्यक्रम और अयोग्य शिक्षक सबकुछ लील जाते हैं। स्कूल घर से दूर बने घर की तरह और घर स्कूल से दूर बने स्कूल की तरह होना चाहिए परंतु घर महज चार दीवारी बनकर रह गए और स्कूल परीक्षा पास करने के गुर बताने वाले संस्थान बनकर रह गए। दरअसल, घर बच्चे की प्रथम पाठशाला होना चाहिए जहां उसे नैतिकता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए परंतु अनैतिक रास्तों से कमाए हुए धन से सक्रिय घर कैसे नैतिकता सिखा सकते थे?

फिल्मकार प्रकाश मेहरा के भागीदार और उनकी सफलता की आधारशिला रखने वाले पॉल चौधरी के पुत्र ने परीक्षा में असफल होने पर आत्महत्या कर ली थी। उनकी शवयात्रा के मार्ग पर ही एक शिक्षा शास्त्री ने आकर बताया कि परीक्षा में त्रुटि रह गई थी। यह छात्र तो प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ था। इस तरह वह आत्महत्या नहीं वरन् शिक्षा व्यवस्था द्वारा की गई हत्या थी। इस जघन्य अपराध में इस्तेमाल किया गया हथियार परीक्षा प्रणाली का खंजर था और हत्यारे ढीली व्यवस्था द्वारा प्रदान किए सफेद दास्ताने पहने थे ताकि खंजर पर कातिल की उंगलियों के निशान प्राप्त नहीं हो सकें।

अंग्रेजों द्वारा भारत में स्थापित शिक्षा का मकसद था क्लर्क और अफसर पैदा करना। अंग्रेजों ने 150 वर्ष तक भारतीयों की सहायता से ही भारत पर हुकूमत की है। कभी भी पच्चीस हजार से अधिक अंग्रेज भारत में नहीं रहे और उन्होंने तैंतीस करोड़ लोगों पर शासन किया। गांधीजी के असहयोग आंदोलन ने इसी व्यवस्था को भंग कर दिया और अंग्रजों ने भारत से चले जाना ही बेहतर समझा। वर्तमान में भी व्यवस्था पूरी तरह से थमी हुई है परंतु हुक्मरान हैं कि डटे हुए हैं और कभी नहीं पूरा करने वाले वादों का ऐलान करते जा रहे हैं। उनकी इस बांकी अदा पर अवाम कुर्बान हुआ जा रहा है इसलिए उन्हें कोई फिक्र नहीं है। 'वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता' और यही आम का विश्वास है कि 'ना हो कमीज तो पैरों से पेट ढंक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं जम्हूरियत के सफर के लिए'।

वेदव्यास कौरव व पांडवों को विद्या दान के लिए अपने आश्रम ले गए, जो था ही नहीं। उन्होंने अपने छात्रों से कहा कि वृक्ष काटें, नदी से जल लाएं और उनके आश्रम का निर्माण करें। सभी छात्र इस कार्य में जुट गए और आश्रम का निर्माण करने के बाद छात्रों ने कहा कि अब शिक्षा देना। वेदव्यास ने कहा कि आश्रम निर्माण प्रक्रिया ही असली शिक्षा है। अब आप सब महलों में लौटें परंतु उसके पहले इस आश्रम को आग लगा दें, क्योंकि वे अपने भावी छात्रों से पुन: आश्रम बनवाएंगे। दुर्योधन ने सम्पत्ति में आग लगाने से इनकार कर दिया परंतु पांडवों ने गुरु की आज्ञा का पालन किया। इसी घटना में कुरुक्षेत्र का बीजारोपण हो गया, क्योंकि सम्पत्ति के मोह के कारण ही वह संहारक युद्ध हुआ। हमारी शिक्षा व्यवस्था में वेदव्यास जैसे गुरु कहां से लाएंगे।