शिक्षा संस्थान, अस्पताल और होटल / जयप्रकाश चौकसे

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शिक्षा संस्थान, अस्पताल और होटल
प्रकाशन तिथि : 13 जून 2019


इस समय तीन उद्योग बहुत लाभ कमा रहे हैं- अस्पताल, शिक्षा और होटल। अस्पताल और मेडिकल शिक्षा पर राजकुमार हिरानी की 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' सफल सार्थक फिल्म मानी जाती है। शिक्षा पर जितेंद्र अभिनीत फिल्म 'बूंद जो बन गई मोती' बनी है, जिसमें शिक्षक छात्रों को कक्षाओं से बाहर ले जाकर प्रकृति की गोद में प्रकृति के माध्यम से शिक्षा देता है। होटल केंद्रित फिल्म नहीं बनी है परंतु 'चौरंगी' नामक उपन्यास लिखा गया है। अस्पताल की पृष्ठभूमि पर खाकसार की फिल्म 'शायद' का क्लाइमैक्स सेन्सर की आपत्ति के कारण बदलना पड़ा। मूल तो लाइलाज बीमारी भुगतने वाले की इच्छा-मृत्यु का था। विदेशों में अस्पताल, होटल और शिक्षा पर बहुत फिल्में बनी है। शिक्षा पर बनी फिल्म 'क्लास ऑफ 84' में शिक्षा परिसर में हिंसा का विवरण प्रस्तुत किया गया था। होटल पर इसी नाम का उपन्यास आर्थर हैले ने लिखा है। सबसे महत्वपूर्ण रचना है 'आईलेस इन गेज़ा'। इसमें कार एक्सीडेंट में एक सीनेटर की मृत्यु हो जाती है और उसकी पुत्री की एक आंख चली जाती है। लड़की की मां निकट के अस्पताल में न जाकर उस अस्पताल में जाती है, जहां वह व्यक्ति डॉक्टर है, जिसने शिक्षा के दिनों में उसके विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। वह महिला इलाज में विलम्ब करवाती है और उसकी सुपुत्री की दूसरी आंख भी काम करना बंद कर देती है। मेडिकल विज्ञान में इसे सिम्पैथेटिक ऑफ्थेल्मिया कहते हैं। समय रहते घायल आंख को नहीं निकालने पर दूसरी आंख काम करना बंद करती है। महिला का एक मकसद तो विवाह प्रस्ताव ठुकराने का बदला लेना है और दूसरा अस्पताल से हर्जाना वसूल करना है, क्योंकि उसका सीनेटर पति जो आदतन जुआरी था, बहुत कर्ज छोड़ गया है। उपन्यास के टाइटल में 'आईलैस इन गेज़ा बाइबिल' के संदर्भ में है। नायक को अंधा और गंजा करके कैद रखा गया है। बाल आ जाने पर उसकी शक्ति वापस आ जाती है और वह अन्याय के साम्राज्य को ही समाप्त कर देता है ('सैमसन एंड डिलाइला' दशकों पूर्व बनी फिल्म है)। ज्ञातव्य है कि महान कवि मिल्टन ने अपने राजनीतिक दल के लिए इतना अधिक लिखा था कि उनकी आंखों की रोशनी चली गई। उसके बाद उन्होंने महाकाव्य 'पैराडाइज लॉस्ट' और 'पैराडाइज रिगेन्ड' लिखे। दृष्टिहीन व्यक्ति की यातना फिल्म 'मेरी सूरत तेरी आंखों' में शैलेन्द्र ने अभिव्यक्त की है- 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, एक पल जैसे एक युग बीता, युग बीते मोहे नींद न आई।' सचिन देव बर्मन ने धुन बनाई थी और यह स्वीकार किया था कि धुन की प्रेरणा उन्हें काजी नजरूल इस्लाम से मिली थी। मन की आंखों से देखकर सूरदास ने कृष्ण चरित का बखान किया है। कबीर आंखन देखी पर विश्वास करते हैं। शैलेन्द्र कहते हैं, 'मत रहना अंखियों के भरोसे, किरण परी गगरी छलकाए, ज्योत का प्यासा प्यास बुझाए, मत रहना अंखियों के भरोसे, जागो मोहन प्यारे'... (फिल्म 'जागते रहो')। महात्मा गांधी ने कहा था कि शिक्षा संस्थान जीवन मूल्यों के साथ व्यावहारिक जीवन के लिए आवश्यक काम भी सिखाए। भालेराव पेंढारकर ने इसी कथन से प्रेरित फिल्म बनाई थी 'वंदेमातरम् आश्रम'।

दरअसल, दोष से भरी शिक्षा प्रणाली के कारण सारी समस्याओं का जन्म हुआ है। हमने योग्य शिक्षकों की जमात भी खो दी है। आजकल लोकप्रिय पत्रिकाओं और अखबारों में शिक्षा संस्थान के विज्ञापन भरे पड़े हैं। शिक्षा संस्थाओं के आईने में तेजी से बदलता समाज भी दिखाई देता है। कई दशक पहले ही विज्ञान की संस्थाओं से अधिक छात्र कॉमर्स फैकल्टी में आने लगे थे और कला संकाय की कक्षाओं में वीरानी छाई थी। आजकल व्यापार प्रबंधन की शिक्षा का बड़ा शोर है। जिस देश में व्यवसाय ठप पड़े हैं, उस देश में व्यवसाय प्रबंधन लोकप्रिय है। बाजार की ताकतों ने अपने पैर पसारने से पहले ही अपने प्रबंधन की फौज खड़ी कर दी थी। संस्था बाद में आई, उसकी परछाई पहले नज़र आने लगी थी।

आज हम किसी भी कस्बे या महानगर की सड़क से गुजरें तो खाने-पीने और दवाई की दुकानों की संख्या अधिक नज़र आती है। क्या हम भोजन भकोसने वाले बीमार देश में बदल रहे हैं? दरअसल, असली समस्या अधिकांश लोगों के भूखे रहने की है। हम लाक्षणिक इलाज किए जा रहे हैं।