शिक्षा / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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गुरु थोड़ी देर चुपचाप वत्सल दृष्टि में नवागन्तुक की ओर देखते रहे। फिर उन्होंने मृदु स्वर में कहा, “वत्स, तुम मेरे पास आये हो, इसे मैं तुम्हारी कृपा ही मानता हूँ। जिनके द्वारा तुम भेजे गये हो उनका तो मुझ पर अनुग्रह है ही कि उन्होंने मुझे इस योग्य समझा कि मैं तुम्हें कुछ सिखा सकूँगा। किन्तु मैं जानता हूँ कि मैं इसका पात्र नहीं हूँ। मेरे पास सिखाने को है ही क्या? मैं तो किसी को भी कुछ नहीं सिखा सकता, क्योंकि स्वयं निरन्तर सीखता ही रहता हूँ। वास्तव में कोई भी किसी को कुछ सिखाता नहीं है; जो सीखता है, अपने ही भीतर के किसी उन्मेष से सीख जाता है। जिन्हें गुरुत्व का श्रेय मिलता है वे वास्तव में केवल इस उन्मेष के निमित्त होते हैं। और निमित्त होने के लिए गुरु की क्या आवश्यकता है? सृष्टि में कोई भी वस्तु उन्मेष का निमित्त बन सकती है?”

नवागन्तुक ने सिर झुकाकर कहा, “मैंने तो यहाँ आने से पहले ही मन-ही-मन आपको अपना गुरु धार लिया है। आगे आपका जैसा आदेश हो।”

गुरु फिर बोले, “जैसी तुम्हारी इच्छा, वत्स। यहीं रहो। स्थान की यहाँ कमी नहीं है। अध्ययन और चिन्तन के लिए जैसी भी सुविधा की तुम्हें आवश्यकता हो, यहाँ हो ही जाएगी। और तो...” गुरु ने एक बार आँख उठाकर चारों ओर देखा, और फिर हाथ से अनिश्चित-सा संकेत करते हुए बोले, “यह सब ही है। देखो-सुनो, चाहो तो सोचो, जितना कर सको आनन्द प्राप्त करो।”

“क्या देखा?”

“गुरुदेव, मैंने एक पक्षी देखा। बहुत ही सुन्दर पक्षी!”

“और?”

“इतना सुन्दर पक्षी! मेरा मन हुआ कि अगर मैं भी ऐसा पक्षी होता, तो आकाश में उड़ जाता और दूर-दूर तक विचरण करता।”

गुरु थोड़ी देर स्थिर दृष्टि से युवक की ओर देखते रहे, फिर बिना उत्तेजना के बोले, “यह तो पाखंड है। जाओ, फिर देखो। सभी-कुछ सुन्दर है। जितना कर सको, आनन्द ग्रहण करो।”

“क्या देखा?”

“गुरुदेव, मैंने एक बड़ा सुन्दर पक्षी देखा। ऐसा अद्वितीय सुन्दर!”

“फिर?”

“मेरा मन हुआ कि किसी प्रकार उसे पकड़कर पिंजड़े में बन्द कर लूँ कि वह सर्वदा मेरे निकट रहे और मैं उसे देखा करूँ।”

“चलो, कुछ तो देखा! पहले देखने से इस देखने में सत्य तो अधिक है।” गुरु थोड़ी देर उसी खुली किन्तु रहस्यमय दृष्टि से शिष्य को देखते रहे। “अधिक सच्चाई है, किन्तु ज्ञान अभी नहीं है। जाओ, फिर देखो, सुनो। जितना कर सको, आनन्द ग्रहण करो।”

“क्या देखा?”

“मैंने एक पक्षी देखा। अत्यन्त सुन्दर पक्षी। वैसा मैंने दूसरा नहीं देखा और कल्पना नहीं कर सकता कि भविष्य मंि कभी देखूँगा - कि इतना सुन्दर पक्षी हो भी सकता है।”

“फिर?”

“फिर कुछ नहीं गुरुदेव। मैं उसे देखता रहा और देखता ही रहा। मैंने अपने-आप से कहा, यह पक्षी है, यह सुन्दर है, यह अप्रतिम है। फिर वह पक्षी उड़ गया। फिर मैंने अपने-आप से कहा, मैंने देखा था, वह पक्षी सुन्दर था, और अप्रतिम था, और वह उड़ गया, किन्तु मुझे उस पक्षी से क्या? उसका जीवा उसका है। फिर मैं चला आया।”

गुरु स्थिर दृष्टि से शिष्य को देखते रहे। न उस दृष्टि के खुलेपन में कोई कमी हुई, न उसकी रहस्यमयता में। फिर उनका चेहरा एकाएक एक वात्सल्यपूर्ण स्मिति में खिल आया और उन्होंने कहा, “तो तुमने देख लिया, इतना ही ज्ञान है। इससे अधिक मेरे पास सिखाने को कुछ नहीं है। यह भी मेरे पास नहीं है, सर्वत्र बिखरा हुआ है। मैंने कहा था कि कोई किसी को कुछ सिखाता नहीं है। उन्मेष भीतर से होता है। गुरु निमित्त हो सकता है। किन्तु निमित्त तो कुछ भी तो सकता है।” एक बार फिर उनका हाथ उसी अस्पष्ट संकेत में उठा और फिर घुटने पर टिक गया।

“जाओ, वत्स! देखो-सुनो! जितना कर सको, आनन्द ग्रहण करो!”

(दिल्ली, 1954)