शिखर सितारों की दुविधाएं और छवियां / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 28 जनवरी 2019
दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा और अनुष्का शर्मा का विवाह हो चुका है परंतु वे अभिनय कर रही हंै तथा साथ ही फिल्म का निर्माण भी कर रही हैं। गोयाकि विवाहिता होकर वे और अधिक अभिव्यक्त हो रही हैं। इस तरह उन्होंने इस मिथ्या धारणा को पुनः ध्वस्त किया कि विवाह सृजन के लिए पूर्ण विराम की तरह होता है। लंबे समय तक विवाहित मीना कुमारी शिखर सितारा रही हैं। इस समय कटरीना कैफ और आलिया भट्ट कुंवारी हैं और उन्हें अवसर भी मिल रहे हैं। आलिया भट्ट और रणबीर कपूर तथा कैटरीना कैफ और सलमान खान अंतरंग मित्र हैं। क्वीन कंगना रनोट सारे श्रेणीकरण से ऊपर अपना एक स्वतंत्र स्थान बनाए हुए हैं। मुंबई में अपने संघर्ष के समय वह फुटपाथ पर बसर करती रही हैं। तमाम शोषणों की संकरी गलियों से गुजर कर उसने अपना स्थान बनाया है। तापसी पन्नू ने 'बेबी' और 'नाम शबाना' जैसी देश प्रेम की फिल्मों में अभिनय किया है और वे खलनायक की पिटाई करने के दृश्यों को विश्वसनीयता से अभिनीत करती हैं। इस बात को समझ कर एक विज्ञापन फिल्म में वह महिलाओं की हड्डियों को शक्ति देने वाले पेय का विज्ञापन करती नजर आती हैं। विज्ञापन फिल्म बनाने वाले लोग सितारों की छवियों का सही आकलन करते हैं। फिल्मकारों से अधिक समझ है विज्ञापन फिल्म बनाने वालों को। ज्ञातव्य है कि श्याम बेनेगल भी विज्ञापन फिल्में बनाते हुए कथा फिल्म के क्षेत्र में आए और उन्होंने 'अंकुर', 'निशांत', 'मंथन' इत्यादि महान कथा फिल्मों का निर्माण किया। श्याम बेनेगल ने शबाना आजमी, स्मिता पाटिल और अमरीश पुरी जैसे कलाकारों को अवसर दिए। तापसी पन्नू को रणबीर कपूर के साथ कोई प्रेम कथा अभिनीत करने के अवसर मिले तो उसकी बहुमुखी प्रतिभा पूरी तरह अभिव्यक्त हो सकती है। राधिका आप्टे को भी अवसर नहीं मिले हैं।
दरअसल, फिल्म उद्योग में चरित्र भूमिकाओं में चमक जाने वाले कलाकार छवियों के कारण ही अपने परिवार को पाल पाए हैं। इफ्तिखार ने सैकड़ों फिल्मों में इंस्पेक्टर की भूमिका अभिनीत की। जब उनकी कार सड़कों से गुजरती थी तब ट्रैफिक वाले उन्हें असली इंस्पेक्टर मानकर सलाम करने लगे थे। यह छवियों की ताकत का परिचय देता है। इसी तरह नाना पल्सीकर नामक एक अभिनेता हर फिल्म में गरीब और भूख से मारे व्यक्ति की भूमिकाएं करते रहे। एक फिल्म में उन्हें अमीर व्यक्ति की भूमिका अभिनीत करने का अवसर मिला और वे रेहाना सुल्तान के पति के रूप में प्रस्तुत हुए तो फिल्म असफल हो गई। उस फिल्म में जां निसार अख्तर ने सार्थक गीत लिखे थे। टाइप कास्टिंग का एक लाभ फिल्मकार को यह मिलता है कि उस पात्र को अपनी भूमिका में स्थापित करने के लिए दृश्यों की रचना नहीं करनी पड़ती। इसका श्रेष्ठ उदाहरण राज कपूर की 'बॉबी' की अंतिम रीलों में खलनायक प्रेम चोपड़ा का दृश्य है। उनका पहला संवाद ही यह है कि 'प्रेम चोपड़ा नाम है मेरा' लोकप्रियता का रसायन अजीब काम करता है कि उस फिल्म के प्रदर्शन के बाद आयोजित हर कार्यक्रम में आवाम उन्हें वही संवाद दोहराने की गुजारिश करती है। अमरीश पुरी को भी 'मोगम्बो खुश हुआ' ताउम्र दोहराना पड़ा। यह छवियों का तिलिस्म हम राजनीति क्षेत्र में अपने भयावह रूप में प्रकट होता हुआ देखते हैं। अभिनव गोस्वामी ने राहुल गांधी की पप्पू वाली छवि को स्थापित किया है कि आज उनके विकसित स्वरूप के चांद में भी वह ग्रहण अभी तक लगा हुआ है। विकास प्रचार मंत्र की धज्जियां उड़ चुकी हैं परंतु प्रलाप अभी तक जारी है। तोते अपनी बात दोहराने के लिए जाने जाते हैं और मिर्च उनकी गिजा है। मिर्ची खाई भी जाती है और कभी कभी 'लग' भी जाती है। अजय देवगन अभिनीत फिल्म 'दृश्यम' में पात्र दूसरे दिन की गई यात्रा को पहले दिन की गई यात्रा के तौर पर इस कदर स्थापित करता है कि प्रशिक्षित पुलिस अफसर भी भ्रमित हो जाते हैं। फिल्मों में किसी लोकेशन को स्थापित करने के लिए किसी इमारत को दिखाया जाता है। जैसे अमेरिका को स्थापित करने के लिए मैनहट्टन का पुल या लिबर्टी की मूर्ति को दिखाना। पेरिस के लिए एफिल टावर का शॉट दिखाना। भारत में यह विराट मूर्तियों को स्थापित करने का समय चल रहा है। मुंबई में शिवाजी महाराज की विराट मूर्ति बनाई जा रही है। मूर्तियां स्थापित करना और भंजित करना राष्ट्रीय शगल रहा है। क्या यह संभव है कि महान आर के लक्ष्मण द्वारा बनाई गई आम आदमी की छवि का भी कोई स्मारक कभी बनेगा। फटा हुआ कोट, बगल में छाता और सिर पर दो चार खड़े हुए बाल वाली वह छवि चार्ली चैपलिन के आम आदमी से किस कदर मिलती है। चैपलिन का आम आदमी तंग जैकेट पहनता है और पतलून उसकी ढीली है, जो उसके भूख के अभ्यस्त पेट का हाल बताता है। दिल में जागे अरमानों को दबाते-दबाते उसका जैकेट तंग हो गया है। अगर आम आदमी की मूर्ति कहीं लगाई भी जाती है तो वह केवल कबूतरों के उपयोग के लिए रह जाएगी। पक्षी भी जानते हैं कि किस मूर्ति पर मल त्यागना चाहिए और किससे दूरी बनाए रखना है। भारतीय समाज और सिनेमा पुरुष केंद्रित है, अत: शिखर नायिकाएं सितारा सह-कलाकार की बॉक्स ऑफिस हैसियत देखकर फिल्में अनुबंधित करती हैं। इसलिए नायिका प्रधान फिल्में करने में उन्हें झिझक होती है। यह सिलसिला कभी टूट जाता है और ऐसे अपवाद भी नियम की ताकत को ही रेखांकित करते हैं।