शिब्बू / सूरज प्रकाश

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमने उस वक्त तक दौड़ में मिल्खा सिंह का ही नाम सुना था। हमें तब तक पता नहीं था कि बड़ी रेसों में दौड़ने के लिए खास तरह के जूतों की और तकनीक की ज़रूरत होती है। हमें यह भी पता नहीं था तब तक कि किसी भी दौड़ में अव्वल आने के लिए समय की गणना के लिए सेकेंड के हिस्से भी मायने रखते हैं और हम ये भी नहीं जानते थे कि ऐसी दौड़ों में दो चार सेंटीमीटर से भी पिछड़ जाने का क्या मतलब होता है। ये सारी बातें हमें बहुत देर बाद पता चली थीं। लेकिन उस सारे अरसे के दौरान हम एक बात अच्छी तरह से जानते थे कि हमारे स्कूल में और हमारे ही साथ, हमारी ही कक्षा में पढ़ने वाला शिव प्रसाद पंत किसी भी मिल्खा सिहं से कम नहीं है। बेशक उसके पास जूते, कपड़े और दूसरे तामझाम नहीं थे फिर भी उसमें बला की चुस्ती, फुर्ती और गति थी। वह जब दौड़ता था तो हमें चीते से भी तेज़ दौड़ता नज़र आता था और उसके साथ दौड़ने वाले उससे कोसों पीछे छूट जाते थे। वह हमेशा अव्वल था और हमारे लिए वही मिल्खा था। छोटे कद और गठीले बदन वाला हमारा शिव प्रसाद पंत हमारा हीरो था। हमें उस पर नाज़ था। वह हमारा अपना धावक था और उसका साथ हमें गर्व से भर देता था।

शिव प्रसाद पंत। लेकिन हम सबका शिब्बू। उससे मेरी दोस्ती लगातार पांच-छ: बरस तक रही। सातवीं से ले कर ग्यारहवीं तक। हम दोनों की दांत-काटी दोस्ती थी। वह बेशक हमारे घर से बहुत दूर रहता था, फिर भी छुट्टी के दिन भी हमारी मुलाकात हो ही जाती थी। हम दोनों को रोजाना मिले बिना चैन न पड़ता। वह चला आता या मैं ही उससे मिलने चला जाता।

शिब्बू हमारे स्कूल की शान था और मैं इस बात से फूला नहीं समाता था कि वह मेरा पक्का याड़ी है। दूसरे लड़के उससे दोस्ती करने के लिए तरसते और मुझे उसका हर समय का साथ यूं ही मिला रहता। शिब्बू बहुत कम बोलता था और हम दोनों लगातार कई कई घंटे एक साथ बिताने के बावजूद बहुत कम बातें करते, बस साथ साथ रहते, घूमते और शरारतें करते।

स्कूल का शायद ही कोई ऐसा बच्चा हो जिसकी कभी न कभी बात बे बात पर पिटाई न होती हो। कभी होमवर्क न करके लाने के कारण या यूनिफार्म न पहन कर आने के कारण या किसी और वज़ह से लेकिन पूरे स्कूल में शिब्बू ही ऐसा लड़का था जिसकी कभी भी पिटाई नहीं होती थी। पढ़ाई में वह साधारण ही था और होम वर्क भी अक्सर ही उसका अधूरा रहता और हम सब मिल-मिला कर उसकी कापियां दिखाने लायक बना दिया करते थे। यूनिफार्म भी उसके पास एक ही थी जिसे वह रोज़ रात को धो कर सुबह पहन कर आया करता था। जिस दिन यूनिफार्म सूख न पाती, उस दिन वह बिना यूनिफार्म के, कमीज और धारीदार पायजामे में ही चला आता और ऐसा हफ्ते में दो-तीन बार तो हो ही जाता था लेकिन उसके लिए सब माफ था।

शिब्बू हमारे स्कूल का बेहतरीन धावक था। न केवल स्कूल का, बल्कि शहर और पूरे प्रांत में किसी भी स्कूल में उसका सानी नहीं था। वह हमेशा नंगे पैर ही दौड़ता था और मज़ाल है किसी भी रेस में कोई उससे आगे निकल जाये। स्कूल में वार्षिक उत्सव पर हमारी याद में पांच-सात बरसों में जितनी भी खेलकूद प्रतियोगिताएंं हुई थीं, सौ मीटर से ले कर पांच हज़ार मीटर तक और ऊंची कूद से ले कर लम्बी कूद तक, सब में वह लगातार अव्वल रहा था। स्कूल की नाक होने के पीछे यही वजह थी कि वह लगातार स्कूल द्वारा जीती जाने वाली चल वैजयंतियों की संख्या बढ़ा रहा था। प्रतियोगिता कहीं भी हो, किसी भी स्तर की हो और किसी भी रेस की हो, स्कूल से पहला नाम उसी का जाता था और ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि वह पहले स्थान की शील्ड लिये बिना वापिस आया हो। उसके साथ जाने वाले हमारे स्पोर्ट्स टीचर हमेशा आश्वस्त ही रहते कि शिब्बू के होते भला किसकी मज़ाल कि शील्ड ले जाये।

हमारे अपने स्कूल के वार्षिक उत्सव में तो उसका रंग देखने लायक होता। सारी की सारी प्रतियोगिताओं के पहले पुरस्कार उसकी झोली में होते। उसे पुरस्कार देने का क्रम सबसे आखिर में रखा जाता और पूरा पांडाल लगातार तालियों की गड़गड़ाहट से देर तक गूंजता रहता और वह एक के बाद एक पुरस्कार लेने के लिए मंच पर आता रहता। हम मंच के नीचे बैठे उसके हाथ से ट्राफियां लेते रहते और वह मंच पर वापिस जा जा कर ट्राफियां बटोरता रहता।

स्पोर्ट्स डे वाले दिन तो ये हालत होती कि खेलकूदों में हिस्सा लेने वाले बाकी सारे होशियार लड़के, भूपेन्द्र और वीरेन्द्र मैसन, देवेन्द्र भसीन, नंदू, अवतार सिहं, शम्सुद्दीन, मेहर अली, नानू दीन, शशि मोहन पंछी, पवन बिष्ट वगैरह सब के सब उसके आगे हाथ जोड़ते कि भइया, एक आध प्रतियोगिता तो हमारे लिए भी छोड़ दो, ये सर्टिफिकेट हमारे बहुत काम आयेंगे। तुम्हारे पास तो सैकड़ों की संख्या में जमा हो रहे हैं। जवाब में वह हंस देता,``मैंने कब मना किया है तुम्हें। आओ आगे और ले जाओ पहला स्थान। लेकिन पहला स्थान शिब्बू के रहते बाकी के लिए सपना ही रहता।

शिब्बू बेहद गरीब घर का लड़का था। वे लोग पांच भाई बहन थे और उसके पिता बिजली के दफ्तर में काम करने वाले एक ठेकेदार के यहां काम करते थे और उनकी आमदनी एकदम मामूली थी। बेशक उसकी फीस माफ थी लेकिन कुछ न कुछ खर्च तो पढ़ाई के सिलसिले में हो ही जाता था, उसके लिए ये चीज़ें जुटाना भी मुश्किल पड़ जाता था। शायद यही वज़ह रही होगी कि उसने प्रिंसिपल साहब से एक बार कहा था कि उसे स्कूल से मिलने वाली इतनी ज्यादा शील्डें और कप वगैरह न दिये जायें और बदले में, हो सके तो नकद पैसे या कुछ काम की च़ाजें दे दी जाया करें। उसके पास इन बरसों में इतनी ज्यादा शील्डें हो गयी थीं कि एक ही कमरे के उसके घर में रखने की जगह नहीं रही थी और न ही उसके या उसके परिवार के लिए उनकी कोई उपयोगिता ही थी। उसने स्पोर्ट्स टीचर के जरिये ये भी कहलवाया था कि अगर वे चाहें तो मंच पर से दिये जाने के लिए वह अपनी पुरानी शील्डों और कपों में से कुछ को धो-पोंछ कर, चमका कर उठा लाया करेगा और मुख्य अतिथि के हाथों उन्हीं को ले लिया करेगा, बस, इन पर खर्च होने वाली राशि उसे नकद दे दी जाया करे। एकाध बार शायद ऐसा किया भी गया था लेकिन ये सिलसिला ज्यादा नहीं चल पाया था।

ऐसा नहीं था कि उसे शील्ड वगैरह लेना अच्छा न लगता हो लेकिन उसके घर की हालत वाकई खराब थी। उसे इतनी कम उम्र में पिता की मामूली आमदनी में हाथ बंटाने के लिए तरह तरह के ध्ंाधे करने पड़ते। दुकानों में देर रात तक काम करने के अलावा वह और उसके भाई बहन मिल कर पुरानी कापियों से लिफाफे बना कर दुकानदारों के पास बेचते तो कभी वह घर के पास की टाल में लकड़ियां चीरने जैसा मुश्किल और हाड़-तोड़ काम करके दो एक रुपये अपने लिए जुटाता। लेकिन एक बात थी। वह कुछ भी काम कर रहा हो किसी को हवा तक नहीं लगने देता था कि उसे अपनी पढ़ाई जारी रखने लिए किन किन धंधों में खटना पड़ता है और न ही वह किसी को यह ही पता ही चलने देता कि उसने कल रात से कुछ नहीं खाया है। वह हमारे घर भी कभी भी खाने के वक्त न आता।

स्कूल में भी खाने की छुट्टी में वह चुपके से किसी भी तरफ सरक लेता ताकि उसे कोई दोस्त अपना टिफिन शेयर करने के लिए न बुला ले। हां, उसे इतना सहारा ज़रूर रहता कि हमें स्कूल की तरफ से मिड डे मील के नाम पर हफ्ते में तीन दिन बिस्किट, दो दिन केले और शनिवार के दिन भुने हुए चने मिला करते थे। सुबह हाज़री के बाद हर कक्षा के मानीटर को स्पोर्ट्स टीचर के कमरे में जा कर बताना पड़ता था कि आज कक्षा में कितने बच्चे आये हैं और फिर लंच की घंटी बजने से पांच मिनट पहले वहां जा कर मिड डे मील की ट्रे लानी पड़ती थी। मानीटर हमेशा बेईमानी करते और अनुपस्थित बच्चों की संख्या भी लिख आते और इस तरह से रोज़ाना तीन-चार बच्चों का अतिरिक्त नाश्ता ले आते और अपने खास-खास दोस्तों को दो-दो केले या बिस्किट दे देते या खाली ट्रे वापिस ले जाते समय रास्ते में आपस में बांट लेते। पूरी कक्षा में एक अलिखित समझौता-सा था कि जो बच्चे टिफिन नहीं ला पाते या आधी छुट्टी में घर नहीं जा पाते, उन्हें अतिरिक्त नाश्ता दिया जाता था और ऐसे लड़कों में शिब्बू भी रहता। बेशक इसके लिए न तो उसने कभी हाथ फैलाया और न ही इसे हक मांग कर ही लिया।

इधर-उधर के काम धंधों के चक्कर में कई बार उसका स्कूल भी मिस हो जाता और वह पढ़ाई में और पिछड़ जाता। शहर का सबसे बढ़िया एथलीट होने के बावजूद उसके पास न तो जूते थे और न ही दूसरे शहरों में जाने लायक दो जोड़ी कपड़े ही। स्कूल में तो वह नंगे पैर ही चला आता लेकिन दूसरे शहरों में जाता तो अपने लिए उसने एक ज़ोड़ी किरमिच के जूते रख छोड़े थे और उन्हें बहुत ही एहतियात से पहनता। बेशक उसके पास एक दो जोड़ी मामूली कपड़े ही थे फिर भी वह हमेशा साफ-सुथरा रहता।

जब हम ग्यारहवीं में थे तो हम दोनों के साथ ही ऐसे हादसे हो गये कि हम दोनों की ज़िंदगी की दिशा ही बदल गयी। हम दोनों ही ग्यारहवीं में फेल हो गये थे। बेशक दोनों के फेल होने की वज़हें अलग-अलग थीं।

मैं अति विश्वास के चक्कर में लुढ़क गया था। उस बरस सिर्फ मैं ही नहीं, हम चारों भाई बहन अपनी-अपनी कक्षा में फेल हो गये थे। दोनों बड़े भाई बारहवीं में, मैं ग्यारहवीं में और छोटी बहन सातवीं में। दो बरस पहले मुझसे बड़े भाई को दसवीं में गणित में पिचासी प्रतिशत अंक मिले थे और उनके कुल अंक 58 प्रतिशत थे। उनका नाम विशेष योग्यता पाने वाले छात्रों की सूची में प्रधानाचार्य के कमरे के बाहर लगे बोर्ड पर दर्ज किया गया था। इसके बावजूद वे ग्यारहवीं में बहुत मुश्किल से गणित खींच पाये थे और बारहवीं के गणित ने उनकी हवा ढीली कर रखी थी। और जब दसवीं में मैं भी गणित में पिचहतर प्रतिशत अंक ले कर पहली श्रेणी में पास हुआ तो मैं जैसे सातवें आसमान पर था। बड़े भाई के लाख समझाने पर कि दसवीं के गणित में तो कोई भी सौ में से सौ अंक भी ला सकता है और कि बारहवीं का गणित सबके बस का नहीं, गणित मत लो और साइंस के बजाय कला या वाणिज्य में दाखिला ले लो, मैं बिलकुल भी नहीं माना था और ज़िद करके विज्ञान और गणित विषय ही लिये थे। नतीजा सामने था। बड़े भाई का बारहवीं का बोर्ड का परिणाम तो बाद में आया था लेकिन मैं ग्यारहवीं में हिन्दी और अंग्रेजी को छोड़ कर गणित, भौतिक विज्ञान और रसायन शास्त्र में बुरी तरह से लुढ़का हुआ था। बीस प्रतिशत अंक भी नहीं जुटा पाया था इन विषयों में।

हम सब भाई-बहनों के एक साथ फेल हो जाने से हमारे माता-पिता को बहुत झटका लगा था। आर्थिक भी और मानसिक भी और मेरी पढ़ाई बंद कर दी गयी थी। अब मैं सिर्फ सत्रह बरस की उम्र में स्कूल से बाहर था और मेरे सामने एक पूरी तरह से अंधेरी दुनिया थी।

उधर शिब्बू के फेल होने की वज़हें बिलकुल अलग थीं। ये जनवरी या फरवरी के आस-पास की बात थी। शिब्बू प्रांतीय स्तर पर होने वाली स्कूली खेलकूद प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए लखनऊ गया हुआ था। पूरे पद्रह दिन का कार्यक्रम था और वहां पर उसने 100 मीटर, 200 मीटर और 500 मीटर, तीनों में बेहतरीन समय निकाला था। अपना भी और प्रांतीय प्रतियोगिताएां में भी अब तक का सब से अच्छा समय। इस बात की पूरी उम्मीद थी कि आगे चल कर उसे राष्ट्रीय स्तर पर चुन लिया जायेगा और उसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भाग लेने का मौका मिलेगा। अभी उसकी उम्र ही क्या थी, सत्रह के आस-पास। लेकिन उसकी गति, टाइमिंग और शैली गजब की थीं। बेशक उसने इन सारी चीज़ों की विधिवत तालीम नहीं पायी थी, न उसकी खुराक का ठिकाना था और न कपड़ों और जूतों का लेकिन सही मार्ग दर्शन मिलने पर वह और बेहतर परिणाम दिखा सकता था।

अभी वह लखनऊ में ही था कि उसे खबर मिली कि उसके पिता हाई वोल्टेज बिजली का झटका लगने के कारण बुरी तरह से घायल हो गये हैं। उनके शरीर का दायां हिस्सा बुरी तरह से जल गया था। जिस दिन शिब्बू को लखनऊ में ये खबर मिली, थोड़ी देर पहले ही उसने पांच हज़ार मीटर की दौड़ जीती थी और अपने टीचर के साथ अपने घर तथा स्कूल के लिए तार भेजने के लिए निकला ही था। खबर पा कर वह जिस हाल में था, वापिस निकल पड़ा। पुरस्कार वितरण समारोह अगले दिन था और उसकी अध्यक्षता राज्यपाल करने वाले थे लेकिन शिब्बू अपने पिता के साथ हुए हादसे की खबर सुनने के बाद वहां रुक ही नहीं सका और लौट आया। आते ही पिता के पास अस्पताल पहुंचा था। वे बोलने, शरीर को हिला-डुला पाने की शक्ति खो चुके थे और लुंज-पुंज से पड़े हुए थे। शिब्बू को आया देख कर भी वे उसे सूनी आंखों से देखते रह गये थे। शिब्बू के पास उन्हें सुनाने के लिए अपने जीवन की सबसे अच्छी खबरें थीं लेकिन अब सब कुछ खत्म हो चुका था। वे सुख-दुख, सुनने और सुनाने की सीमा रेखा पर गुमसुम पड़े थे।

जीवन और मौत के बीच पूरे तीन महीने के तक झूलने और परिवार पर अच्छा-खासा आर्थिक बोझ डाल कर वे चल बसे थे। इस बीच इस हादसे से पहले शिब्बू इन दिनों कई और हादसे झेल चुका था। राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली स्पर्धाओं में अपने प्रांत की तरफ से उसे चुन लिया गया था लेकिन अंतिम चयन के लिए वह पटियाला नहीं जा पाया था। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने जलवे दिखाने के मौके उसके हाथ से जाते रहे थे। बेशक उसने ग्यारहवीं की परीक्षा दी थी लेकिन उसके लिए कोई तैयारी नहीं कर पाया था और बुरी तरह से फेल हो गया था। अगर एकाध विषय में दो चार नम्बर कम भी होते तो उसे ग्रेस मार्क दे कर पास कर दिया जाता लेकिन वह इन तीन चार महीनों में पढ़ पाना तो दूर, कायदे से स्कूल ही नहीं आ पाया था। वह इस हालत में ही नहीं था कि स्कूल की तरफ चक्कर ही काट पाता। पिछले तीन महीने से वह अस्पताल और घर के बीच ही चक्कर काटता रहा था। एक तरफ पिता थे जो सांस-सांस के लिए अस्पताल में लड़ रहे थे और दूसरी तरफ पूरी तरह से चरमरा गयी घर की हालत थी। पिता के इलाज के लिए पैसे कहीं से भी नहीं जुटाये जा सके थे। होने को दिल्ली में उन्हें ले जाने पर बेहतर इलाज की उम्मीद बंधती लेकिन उन्हें वहां तक ले जा पाने लायक हालत में नहीं था वह। अब घर में सबसे बड़ा वही था और घर की गाड़ी चलाने की जिम्मेवारी भी उस पर आ पड़ी थी। इस दौरान उसकी सारी शील्डें, पदक और कप वगैरह कबाड़ी बाजार के जरिये घर से औने पौने दामों में विदा हो चुके थे।

हम दोनों के लिए ही ये बेहद मुश्किल भरे दिन थे। मेरे घर की भी हालत ऐसी नहीं थी कि हम चारों भाई बहनों को फिर से उन्हीं कक्षाओं में पढ़ाया जाता। सबसे बड़े भाई पढ़ाई को हमेशा के लिए जय राम जी की कह की एक दुकान में मामूली से वेतन पर काम करने लगे थे। मुझसे बड़े भाई ने तो शर्म के मारे शहर ही छोड़ दिया था और दूसरे शहर में एक चाचा के पास रहते हुए बाटा की दुकान में हेल्परी की नौकरी पकड़ ली थी। उनकी नौकरी वैसे भी उसी दुकान पर पक्की थी। अगर बारहवीं पास कर लेते तो सीधे ही सेल्समैन बन जाते। लेकिन अब हेल्पर बन कर ही रह गये थे और उम्मीद कर रहे थे कि अगली बार विषय बदल कर बारहवीं की परीक्षा प्राइवेट छात्र के रूप में देंगे।

छोटी बहन की भी उम्र और छोटी कक्षा को देखते हुए उसकी पढ़ाई जारी रखी गयी थी। अब बचा था सिर्फ मैं। दसवीं में प्रथम श्रेणी और ग्यारहवीं में फेल। उम्र सिर्फ सत्रह बरस और चार महीने। वे मेरे लिए बेहद तनाव भरे दिन थे और कुछ नहीं सूझता था कि क्या किया जाये। बारहवीं की परीक्षा प्राइवेट तौर पर दी जा सकती थी लेकिन उसके लिए भी बोर्ड के नियमों के अनुसार ग्यारहवीं में फेल होने के बाद एक बरस का ब्रेक जरूरी था। अब मेरे सामने इस बात के अलावा कोई उपाय नहीं था कि पूरे डेढ़-दो बरस तक इंतजार करूं और उसके बाद ही बारहवीं की परीक्षा दूं। फिलहाल इस दौरान मेरे पास करने धरने को कुछ भी नहीं था। मेरे सब दोस्त स्कूल चले जाते और मैं मारा-मारा फिरता या घर पर रह कर मां बाप की डांट सुनता रहता। इतनी कम उम्र में नौकरी मिलने का सवाल ही नहीं था और ग्यारहवीं फेल को अपने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने भी कौन देता। दो एक परिवारों ने तरस खा कर प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेवारी दे दी थी लेकिन इन ट्यूशनों से पैसे इतने कम मिलते थे कि टाइपिंग सीखने की फीस का जुगाड़ भी न हो पाता। सिर्फ वक्त कटी का बहाना था। वक्त गुज़ारने और घर वालों की निगाह में एक दम नाकारा न बने रहने की वजह से टाइपिंग क्लास में दाखिला ले लिया था। कई बार दुकानों पर भी बैठ कर काम किया लेकिन कहीं भी टिक नहीं पाता था। शर्म आती और हर आदमी जैसे मुफ्त में हमालगिरी कराने की फिराक में रहता। उन दिनों नौकरी मिलना बहुत मुश्किल काम था और अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लड़के रोज़गार दफ्तर के चक्कर काटते रहते और किसी भी तरह की नौकरी से चिपक जाने के लिए तैयार हो जाते। मेरी मुश्किल ये थी कि अट्ठारह बरस का होने से पहले रोज़गार दफ्तर में नाम भी नहीं लिखवा सकता था।

उधर शिब्बू को भी घर की हालत देखते हुए पढ़ाई जारी रख पाना मुश्किल लग रहा था। बेशक स्कूल ने अपने लालच के चलते उसे प्रवेश दे रखा था ताकि बाहर होने वाली प्रतिस्पर्धाओं में भेजे जाने के लिए कहने मात्र के लिए वह स्कूल का छात्र बना रहे। अलबत्ता, उसे सभी प्रतिस्पर्धाओं में पहले ही की तरह भेजा जाता रहा। कक्षाओं में वह शायद ही कभी आ पाता, क्योंकि पिता के मरने के बाद पूरा घर चलाने की जिम्मेवारी उस पर ही आ पड़ी थी। अब हमारी मुलाकातें भी पहले की तुलना में कम हो गयी थीं। मेरे पास टाइम ही टाइम था और उसके पास सबसे दुर्लभ वक्त ही था। सारी चीज़ें एकदम उसके खिलाफ हो गयी थीं।

अट्ठारह बरस पूरे होते ही हम दोनों ने एक साथ रोज़गार दफ्तर में नाम लिखवा लिया था और अब हम एक बेकार सी उम्मीद करने लगे थे कि किसी दिन हमारे लिए भी नौकरी के लिए काल लैटर आयेगा और हमें भी कोई अच्छी-सी नौकरी मिलेगी। शिब्बू और मैं, दोनों ही अपने-अपने तरीके से अच्छी नौकरी के लिए खुद को दावेदार मानते। शिब्बू के पास सैकड़ों की संख्या में स्पोर्ट्स के प्रमाण पत्र थे और वह प्रांतीय स्तर का धावक था जबकि मेरे पक्ष में हाई स्कूल की प्रथम श्रेणी और टाइपिंग की अच्छी स्पीड थी। जबकि सच हम जानते थे कि रोज़गार दफ्तर में हमसे पहले भी हजारों की तादाद में हमसे ज्यादा पढ़े लिखे लड़कों ने अपने नाम दर्ज करवा रखे थे और किसी भी नौकरी पर हमसे पहले उनका हक बनता था। लेकिन रिक्तियां इतनी कम निकलतीं कि एक एक पद के लिए पचास लोगों को काल लैटर भेजना मामूली बात थी।

और तभी सर्वे के दफ्तर में असिस्टेंट केयर टेकर की रिक्ति आयी थी। एक ही पद था और संयोग से मुझे भी कॉल लैटर आ गया था। दरअसल मुझे इतनी जल्दी कॉल लैटर मिलने के पीछे का किस्सा ये था कि जो आदमी रोज़गार दफ्तर में कॉल लेटर निकालता था, वह हमारे बड़े मामा जी यानी नानी के भाई की राशन की दुकान से राशन उधार लिया करता था। वह अक्सर बड़े मामा जी की दुकान पर आता था। मामाजी को मेरी हालत के बारे में पता था और ये भी पता था कि मैं टाइपिंग वगैरह सीख रहा हूं। उन्हेंने ही मुझसे मेरा एक्सचेंज के कार्ड नम्बर मांग रखा था कि मौका लगने पर उसे दे देंगे। अब सर्वे की पास्ट आने पर उससे कह कर मामा जी ने मेरा कार्ड निकलवा दिया था। बड़ी अजीब सी थी ये पोस्ट। न क्लास थ्री में और न क्लास फोर में। बीच का पद था ये। क्लास फोर में इसलिए नहीं था कि इस पद पर आदमी को चपरासियों की तरह वर्दी नहीं पहननी पड़ती थी और क्लास थ्री में इसलिए नहीं था कि इस पद से बाकी क्लर्कों की तरह यूडीसी वगैरह में प्रोमोशेन नहीं था। अलबत्ता, इस पद के साथ कुछेक फायदे जुड़े हुए थे। मसलन इस्टेट में रहने को मकान और बिजली पानी भी फ्री। मामाजी का ये मानना था कि किसी तरह से इस पोस्ट से एक बार चिपक तो जाओ, बाद में पढ़ाई भी करते रहना और दूसरी भर्तियां होने पर डिपार्टमेंटल केंडीकेट के नाते हर बार एग्जाम देते रहना। तब अपना आदमी एक्सचेंज में रहे न रहे, क्या गारंटी। इस समय तो उसने खुद ही कार्ड निकाल कर दिया है। किसी तरह घुस जाओ सर्वे में।

मैं अजीब दुविधा में था। हाइ स्कूल में फर्स्ट क्लास और काम घर-घर जा कर लीक करते नलके और बिजली की फिटिंग चेक करना। चार घंटे सुबह ड्यूटी और चार घंटे शाम। रहने के लिए क्लास फोर कालोनी में ही मकान। वहां पर रहना जरूरी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं। घर वालों का भी यही मानना था कि आगे की पढ़ाई तो वैसे भी प्राइवेट करनी है तो क्या दिक्क्त। और फिर छोटा-सा ही सही, बिना किराये का मकान भी तो मिल रहा है साथ में। वर्दी तो पहननी नहीं है कि चपरासी कहलाओ। वैसे भी ये पद चपरासी का तो है भी नहीं।

पता नहीं कैसे हुआ था कि पिताजी के कोई परिचित सर्वे में निकल आये थे जिन्होंने मुझे वहां पर फिट कराने की जिम्मेवारी ले ली थी। मैं अपने आने वाले जीवन को ले कर बेहद परेशान था कि क्या होगा और कैसे होगा। ये तय था कि मुझे अभी और आगे पढ़ना था लेकिन जो हालात मेरे चल रहे थे उसमें तो मुझे बारहवीं का फार्म भरने के लिए भी पैसे घर से ही मांगने पड़ते।

इसी परेशानी के आलम में मैं शिब्बू के पास गया था और उसे सारी बात बतायी थी। वह काफी देर तक मेरी बात सुनता रहा था और सिर्फ हां हूं करता रहा था। कहा कुछ भी नहीं था उसने।

ये तो लिखित परीक्षा वाले हॉल में जा कर ही पता चला था मुझे कि शिब्बू भी उसी पद के लिए एक केंडीडेट है। मैं इस बात को ले कर हैरान हो रहा था कि मैं तो उसके घर पर जाकर अपने बारे में बात कर के आया था और उसने इस बात का ज़िक्र तक नहीं किया था। लेकिन अब उसे देख कर मैं सचमुच चाहने लगा था कि उसका ही चयन हो जाये। उसकी जरूरत मेरी जरूरत से ज्यादा बड़ी थी।

लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के आधार जो सूची बनी थी उसमें मैं पहले स्थान पर और शिब्बू का नाम दूसरे स्थान पर था। पिताजी के परिचित ने अपना वायदा निभाया था। अभी भी मैं चाह रहा था कि ये पद शिब्बू को ही मिले तो बेहतर। और जब नियुक्ति पत्र शिब्बू के नाम आया तो मुझे कोई हैरानी नहीं हुई थी। बाद में पिताजी के उस परिचित से ही पता चला था कि शिब्बू के कोई चाचा उसकी मां को ले कर चयन समिति के अध्यक्ष से मिले थे और शिब्बू की उपलब्धियों और जरूरत के आधार पर शिब्बू के लिए ये नौकरी दिये जाने की सिफारिश की थी। चयन समिति के अध्यक्ष से कोई नजदीकी रिश्तेदारी भी निकाल ली गयी थी। इस बात का शिब्बू को भी बहुत बाद में पता चला था। मुझे पता था, वह अपनी ओर से इस तरह से कभी भी न जाता।

शिब्बू ने वहां ज्वाइन कर लिया था। मैं उसे बधाई देने गया था और इस बात का बिल्कुल भी ज़िक्र नहीं किया था कि उसने इस बारे में मुझसे सारी बातें छुपायी क्यों। बल्कि मैं अब चयन न हो पाने की वजह से राहत ही महसूस कर रहा था कि अब मेरे पास पढ़ाई जारी रखने का कम से कम बहाना तो बना रहेगा। मैंने तय कर लिया था कि जैसे भी हो, अब जम कर पढ़ाई करनी ही है।

अब हमारी मुलाकातें कम होतीं। उसकी नौकरी के घंटे ही उसे इस बात की इजाज़त न देते कि वह कहीं आ जा सके। घर मिल जाने से उसका परिवार सड़क पर आ जाने से बच गया था और उसके भाई बहनों की पढ़ाई का ठीक ठाक सिलसिला बन गया था।

नौकरी में आ जाने के कारण उसका स्कूल लगभग छूट चुका था। वैसे कहने का अभी भी उसका नाम कटा नहीं था लेकिन नौकरी के चक्कर में अब वह स्थानीय प्रतिस्पर्धाओं में भी हिस्सा नहीं ले पाता था। अब उसका सारा समय टूटे नलके ठीक कराने और बंद नालियां साफ करवाने में जाने लगा था।

तब तक मैंने भी खूब मेहनत करके कला विषय ले कर बारहवीं की परीक्षा अच्छी सेकेंड डिवीजन में पास कर ली थी। अब मेरे पास कुछ अच्छी ट्यूशनें भी थीं और एक काम चलाऊ नौकरी भी। आगे पढ़ने की अपनी ललक को जारी रखते हुए मैंने मार्निंग क्लास में बीए में दाखिला ले लिया था। अब शिब्बू से मेरी मुलाकातें और भी कम हो पातीं। मैं सुबह छ: बजे ही निकल जाता। नौ बजे तक कॉलेज एटेंड करता और सीधे नौकरी पर भागता। नौकरी से छूटते ही ट्यूशन के लिए लपकता। बहुत ज्यादा न मिल पाने के बावजूद हमें एक दूसरे की पूरी खबर रहती थी। हम जब भी मिलते, पहले की-सी गर्मजोशी से ही मिलते थे।

मेरी किस्मत अच्छी थी कि बीए करते ही मुझे स्टाफ सेलेक्शन के जरिये दिल्ली में शिक्षा मंत्रालय में असिस्टैंट की नौकरी मिल गयी थी। दिल्ली जाने से पहले मैं दो बार उससे मिलने गया था लेकिन वह दोनों ही बार इस्टेट आफिसर के साथ कालोनी की अपनी रूटीन विजिट पर गया हुआ था और उसे आने में कम से कम दो घंटे लगते। मैं उसके नाम चिट्ठी छोड़ कर आ गया था।

दिल्ली आ कर भी मैं टिक कर नहीं बैठा था और लगातार पढ़ाई करता और परीक्षाओं में बैठता रहा था। मेरे भाग्य का सितारा बुलंदी पर चल रहा था और तीसरे प्रयास में मैं आइएएस में आ गया था। मेरे लिए ये बहुत ऊंची छलांग थी। सिर्फ दस बरस मे ही ये कमाल हो गया था कि मैं ग्यारहवीं फेल निट्ठले से काम का आदमी बन गया था। मैं हालांकि ट्रेनिंग पर मसूरी में ही था लेकिन कई बार अपने घर देहरादून आने के बाद भी मैं शिब्बू से मिलने नहीं जा पाया था। हालांकि हमेशा मिलना चाहता रहा। हां, उससे बीच बीच में पत्राचार होता रहा था जो वक्त के साथ साथ कम होते हुए बाद में बंद ही हो गया था। शिब्बू की शादी हो गयी थी और वह अपने परिवार और ड्यूटी में पूरी तरह से रम गया था। इस बीच मैं भी अपने परिवार और कैरियर में रम गया था। लगातार अलग-अलग शहरों में पोस्टिंग के चक्कर में और दूसरी व्यस्तताओं के चक्कर में उससे कई बरस तक मिलने जाना नहीं हो पाया था।

मैं तरक्की की सीढ़ियां चढ़ता हुआ संयुक्त सचिव के वरिष्ठ पद तक पहुंच गया था।

कोई बीस बरस बाद मैं एक बार फिर अपने शहर में था। छुट्टी का दिन था और मैं खाली था। कोई और काम न होने के कारण मैं शिब्बू से मिलने चला गया था।

इस बार मैं पूछता-पाछता शिब्बू के घर ही चला गया था। पता चला था कि वह ऑफिस में ही है। उसके बीवी बच्चों से मैं कभी नहीं मिला था इसलिए परिचय देने की कोई तुक नहीं थी। उसके ऑफिस में जा कर पता चला कि वह अपने किसी सीनियर अफसर के साथ इस्टेट विजिट पर गया हुआ था। इस बार भी मैं उससे नहीं मिल पाया था।

बस, इस बीच एक ही फर्क मैं देख पा रहा था। अब उसकी मेज पर जो नेम प्लेट रखी हुई थी, उस पर असिस्टैंट केयर टैकर के बजाय केयर टेकर लिखा हुआ था। उसे बीस बरस में एक पदोन्नति मिली थी। काम शायद वह अभी भी वही कर रहा था।

वापिस आते समय मैं सोच रहा था कि ये भी तो हो सकता था कि इस नेम प्लेट पर शिव प्रसाद पंत की जगह मेरा नाम होता।

होने को तो ये भी हो सकता था कि शिव प्रसाद पंत तब राष्ट्रीय चयन शिविर में जा पाता और उसका वहां पर चयन हो गया होता।