शिमला से आरम्भ हुई रस्किन बॉन्ड की साहित्यिक यात्रा / कुँवर दिनेश
हिमाचल प्रदेश से सम्बन्धित अँग्रेज़ी साहित्य-सर्जकों में रस्किन बॉन्ड का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। रस्किन बॉन्ड का जन्म 19 मई, 1934 को हिमाचल प्रदेश के ज़िला सोलन के कसौली नगर में हुआ था। साहित्यिक लेखन में आज तक के 72 से अधिक वर्षों की अवधि में, बॉन्ड ने पाँच सौ से अधिक कहानियाँ, निबंध, आलेख और उपन्यास लिखे हैं जो बच्चों और वयस्कों के लिए समान रूप से रोचक हैं। इनके साथ ही रस्किन बॉन्ड हिमाचल और गढ़वाल (उत्तराखण्ड) की पहाड़ियों से अपनी भूतिया कहानियों से भी पाठकों को रोमांचित करने में सफल रहे हैं। अधिकांशत: बॉन्ड ने अपने लेखन में पहाड़ों में प्रकृति के विविध अजूबों को सहेजने का प्रयास किया है। आज 87 वर्ष की उम्र में भी, रस्किन बॉन्ड अपने साहित्य-सृजन के कार्य में सक्रिय बने हुए हैं और यही सृजनशीलता, कहानियाँ लिखना और सुनाना उनका सर्वाधिक प्रिय व्यसन है।
बॉन्ड ने अपना बचपन गुजरात के जामनगर में बिताया, जहाँ उनके पिता ने राजपरिवार के बच्चों के लिए एक छोटा स्कूल शुरू किया था। कुछ समय बाद उनके पिता रॉयल एयरफोर्स में शामिल हो गए। इस बीच, रस्किन बॉन्ड ने अपना बचपन दिल्ली, शिमला, मसूरी और देहरादून जैसे शहरों में बिताया। रस्किन बॉन्ड केवल चार साल के थे जब उनकी माँ उनके पिता से अलग हो गईं और बाद में उन्होंने एक भारतीय से शादी कर ली थी। रस्किन बॉन्ड को अपने पिता के साथ बहुत ज़्यादा लगाव था। दुर्भाग्य से, सन् 1944 में कोलकाता में तैनाती के दौरान मलेरिया से ग्रसित हो जाने से उनके पिता की मृत्यु हो गई। युवा रस्किन उस समय दस वर्ष के थे जब उन्हें बोर्डिंग स्कूल में एक शिक्षक के माध्यम से अपने पिता की असामयिक मृत्यु की ख़बर मिली।
रस्किन बॉन्ड ने शिमला के प्रसिद्ध बिशप कॉटन स्कूल (बीसीएस) में पढ़ाई की। स्कूल के बाद रस्किन लगभग चार वर्षों के लिए ब्रिटेन चले गए थे। उस समय उन्होंने महसूस किया कि वे भारत में रहना चाहते हैं और एक लेखक बनना चाहते हैं। इसी अवधि में उन्होंने अपना पहला उपन्यास “दि रूम ऑन दि रूफ़” लिखा, जो रस्टी नाम के एक अनाथ एंग्लो-इंडियन लड़के और उसके कारनामों की एक अर्ध-आत्मकथात्मक कहानी थी। इस उपन्यास को 1957 में जॉन लेवेलिन राइस पुरस्कार मिला, जो 30 वर्ष से कम आयु के ब्रिटिश राष्ट्रमंडल लेखक को दिया जाता था। । इसी उपन्यास को “दि इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इण्डिया” में क्रमबद्ध किया गया था और उसके लिए चित्र प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट मारियो मिरांडा ने बनाए थे। रस्किन बॉन्ड 30 साल के थे जब उन्होंने दिल्ली में अपनी नौकरी छोड़ने का फ़ैसला किया और इसके बजाय एक पूर्णकालिक लेखक बनने के लिए देहरादून में बस गए।
रस्किन बॉन्ड की कुछ कहानियों को फ़िल्मी पर्दे के लिए भी रूपांतरित किया गया है, जिनमें शामिल हैं — (1) “ए फ्लाइट ऑफ़ पिजन्स”— जो 1857 के विद्रोह के बारे में एक ऐतिहासिक उपन्यास है और जिसे “जुनून” नाम की एक हिंदी फ़िल्म में बनाया गया था; (2) “दि ब्लू अम्ब्रेला”— जिसकी कहानी पर आधारित इसी शीर्षक की एक फ़िल्म विशाल भारद्वाज ने बनाई थी; और (3) “सुज़ैनाज़ सेवेन हज़्बैंड्ज़”— जिसकी कहानी पर केन्द्रित एक फ़िल्म “7 ख़ून माफ़” शीर्षक से विशाल भारद्वाज द्वारा ही बनाई गई थी। रस्किन बॉन्ड को अँग्रेज़ी में उनके उपन्यास "आवर ट्रीज़ स्टिल ग्रो इन दि देहरा” के लिए 1992 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बॉन्ड ने बच्चों के लिए सैकड़ों लघु कथाएँ, निबंध, उपन्यास और किताबें लिखी हैं। उन्हें 1999 में पद्मश्री और 2014 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
रस्किन बॉन्ड ने स्कूल के दिनों में ही लिखना आरम्भ कर दिया था। उन्होंने स्कूल के पूर्व-छात्र रहे अनिल अडवानी को दिए अपने एक साक्षात्कार में बताया कि वे एक उपन्यासिका लिखना चाहते थे, किन्तु एक कहानी लिखने के बाद ही वह प्रयास विफल हो गया, “मैं कक्षा 8 या 9 में था जब मैंने कुछ लिखने का निश्चय किया और मुझे लगा कि वह एक महान् उपन्यास होगा। लेकिन मैंने अपने शिक्षकों को उस कहानी में पात्र बनाकर बहुत बड़ी ग़लती की। मैंने अपनी अभ्यास पुस्तिका में प्रिंसिपल की पत्नी के बारे में एक मज़ेदार कहानी लिखी जो सीढ़ियों से नीचे गिर गई थी (कई अन्य बातों के उल्लेख के साथ)। दुर्भाग्य से मेरे डेस्क में रखी मेरी वह अभ्यास-पुस्तिका मेरे क्लास-टीचर के हाथ लग गई और मुझे दंडित किया गया (उन दिनों, बेंत से पीटा जाता था)। इतना ही नहीं, उन्होंने अभ्यास-पुस्तिका को फाड़ कर कूड़ेदान में फेंक दिया।" तत्पश्चात् रस्किन ने अपनी पहली कहानी "अनटचेबल" (अस्पृश्य) लिखी जब वे केवल सोलह वर्ष के थे और शिमला के बिशप कॉटन स्कूल से पास आऊट हुए थे।
रस्किन बॉन्ड की साहित्यिक प्रतिभा को उभारने में शिमला की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण रही है। उनके साहित्यिक जीवन और व्यक्तित्व को आकार देने में शिमला का योगदान विशेष है। "दि पायनीयर" में जसकिरन चोपड़ा से अपने अनुभव साझा करते हुए उन्होंने बताया कि दून घाटी में बस जाने से पूर्व सन् 1947 और 1950 के बीच शिमला में अपने विद्यार्थी जीवन-काल में पढ़ना ही उनका एकमात्र धर्म था। वे बताते हैं उस समय के अध्ययन ने उन्हें उनकी अन्तरात्मा से मिलाया और साहित्य-जगत् से उनका घनिष्ठ सम्बन्ध बनाने में सहायता की।
हाल ही में प्रकाशित अपनी आत्मकथा "लोन फ़ॉक्स डांसिंग" में रस्किन बॉन्ड ने बिशप कॉटन स्कूल, शिमला में बिताए दिनों का बहुत ही रोचक और मार्मिक उल्लेख किया है। 1950 में स्कूल से उत्तीर्ण होते ही बॉन्ड ने कम आयु में ही एक सशक्त साहित्यिक प्रतिभा दिखाई। एक लेखक बनने के लिए बांड ने पूरे जुनून के साथ शुरुआत की और कुछ ही वर्षों में लेखनी का जादू कर दिखाया। बॉन्ड का बचपन अकेलेपन की वेदना से भरा था था। जब उन्होंने अपने पिता की मृत्यु के बाद सोचा कि उन्हें एक अनाथालय में भेजा जा सकता था, उस समय स्कूल ने उन्हें भरपूर सान्त्वना दी। बिखरे हुए घर-परिवार की पीड़ा और प्रेमविहीन जीवन के आघात को सहते हुए बीसीएस से प्राप्त हुए स्नेह और सहयोग को बॉन्ड ने अपनी इस आत्मकथा में विशेष रूप से लिखा है। वे स्पष्ट कहते हैं कि उनका स्कूल उनकी "अल्मा मेटर" थी, यानी दूसरी माँ जिसने पूरी तरह से प्यार- दुलार और सहारा देकर उन्हें वर्तमान स्तर तक पहुँचाया। इस पुस्तक में बॉन्ड उस विभाजन पर भी खेद व्यक्त करते हैं जो भारत की स्वतंत्रता के साथ बिखराव लेकर आया था। अपने मित्रों से बिछोह का उन्होंने ज़िक्र किया है किस प्रकार उन्होंने मुस्लिम मित्रों को पाकिस्तान में खो दिया और कई ब्रिटिश लड़के वापिस इंग्लैंड चले गए।
शिमला में पहली बार रस्किन बॉन्ड अपने पिता के साथ आए थे, जहाँ उन्होंने छोटा शिमला स्थित बीसीएस के प्रेपरेटरी स्कूल में दाख़िला लिया था। शिमला शहर से बॉन्ड बेहद प्रभावित हुए थे। अपनी आत्मकथा में बॉन्ड बताते हैं कि सन् 1943 का शिमला चहल-पहल भरा था क्योंकि उस समय यहाँ भारत की आज़ादी से सम्बन्धित चर्चाओं के लिए बहुत से लीडर एकत्र हुए थे और साथ ही अँग्रेज़ी अफ़सर और द्वितीय विश्वयुद्ध से जुड़े सैनिक भी यहाँ पहुँचे हुए थे। बचपन में पिता के साथ रेलकार से 103 सुरंगों से गुज़रते हुए कालका से शिमला तक की यात्रा को वे बहुत आनन्ददायक बताते हैं। शिमला में मॉल रोड़ की सैर करना, बेहतरीन रेस्तराँ में भोजन करना, यहाँ के लोगों से मिलना और जाखू की पहाड़ी पर शरारती बंदरों की अठखेलियों को देखना — इन सब का अनुभव उन्हें सुखद लगा था।
एक अविस्मरणीय प्रसंग में शिमला में रिक्शॉ की सैर करते हुए उनके पिता ने उन्हें ब्रिटिश शिमला के मशहूर अँग्रेज़ी कथाकार रडयार्ड किपलिंग की एक भुतहा लघु कथा सुनाई जो 1890 के दशक के शिमला की पृष्ठभूमि पर आधारित थी। इस कथा का शीर्षक था "दि फैंटम रिक्शॉ"। इस कहानी में एक रिक्शॉ था जिस पर एक बहुत सुन्दर अँग्रेज़ महिला सवार थी और दो जन उस रिक्शॉ को खींच रहे थे। वह रिक्शॉ अचानक एक गहरी खाई में जा गिरा और रिक्शॉ पर सवार महिला दोनों रिक्शॉवालों के साथ मारी गई। उस दुर्घटना के बाद भी उस महिला के प्रेमी को अक्सर रिक्शॉवालों साथ वह दिखाई देती थी, जिसने उसे पागल बना दिया था। जब बालक बॉन्ड ने अपने पिता से पूछा कि वे अवश्य भूत होंगे, तो पिता ने बताया कि हाँ, वह महिला और रिक्शॉवाले भूत ही थे। उन्होंने बालक बॉन्ड को बताया कि कुछ लोग हिंसक मृत्यु के पश्चात् भूत बन जाते हैं। लेकिन रस्किन इस बात से संतुष्ट नहीं थे। उ न्होंने एक और प्रश्न किया कि उस महिला के प्रेमी को रिक्शॉ भी तो दिखाई देता था — और रिक्शॉ एक जीवित वस्तु नहीं थी, तो फिर रिक्शॉ कैसे भूत बन गया? उनके पिता को यह तर्क मानना ही पड़ा। परन्तु उन्होंने एक अन्य उदाहरण दिया; अपनी नानी का — जो एक दोलती कुर्सी पर बैठा करती थी — उनकी मृत्यु के बाद वह कुर्सी दोलती हुई नज़र आती थी, लेकिन ऐसा तभी होता था जब उनकी नानी भी उस पर बैठी दिखाई देती थी। किपलिंग की कथा के इस वृत्तान्त से रस्किन बॉन्ड भी भुतहा कथा लेखन की विधा की ओर प्रवृत्त हुए।
रस्किन बॉन्ड ने सन् 2004 में प्रकाशित अपने कहानी- संग्रह "फ़ेस इन दि डार्क" (अँधेरे में एक चेहरा) की शीर्षक कहानी में अपने ही स्कूल के एक आँग्ल-भारतीय अध्यापक मिस्टर ऑलिवर को पात्र बनाकर उनके एक रोमांचक अनुभव का वर्णन रोचक ढंग से किया है। शिमला के मॉल रोड़ से शाम के वक़्त तीन मील दूर स्थित बिशप कॉटन स्कूल की तरफ़ लौटते हुए स्कूल में कार्यरत शिक्षक मिस्टर ऑलिवर को बहुत देर हो जाती है और मार्ग में ही अँधेरा हो जाता है। उन्होंने स्कूल परिसर में स्थित अपने आवास पर शीघ्र पहुँचने के लिए छोटा रास्ता पकड़ा जो चीड़ों के घने जंगल से होकर गुज़रता था। जब हवा ज़रा तेज़ बहती तो चीड़ के पेड़ उदासी भरी, डरावनी- सी आवाज़ें निकालते थे, जिसकी वजह से लोग अँधेरा हो जाने पर अक्सर मुख्य मार्ग से ही आते-जाते थे। लेकिन मिस्टर ऑलिवर भीरु प्रवृत्ति के और संवेदनशील अथवा कल्पनाशील प्रकृति के व्यक्ति नहीं थे। वे टॉर्च हाथ में उठाए बढ़ते जा रहे थे कि अचानक टॉर्च की रोशनी चट्टान पर बैठे एक युवक पर पड़ी। मिस्टर ऑलिवर ने उसके पास जाकर उससे पूछा कि वह रात के समय स्कूल से बाहर क्यों बैठा है? वह सिर झुकाए रो रहा था और उसका शरीर कंपकंपा रहा था। उसके सिर पर स्कूल की टोपी थी। मिस्टर ऑलिवर ने उसे सिर उठाने को कहा। जैसे ही उसने सिर उठाकर उनकी ओर देखा, टॉर्च की रोशनी में उसका चेहरा दिखाई दिया — उसमें न तो आँखें थीं, न कान, न नाक, न मुँह। कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। मिस्टर ऑलिवर डर कर भागे, सहायता के लिए चिल्लाने लगे कि थोड़ी दूरी पर बीच रास्ते में उन्हें एक लालटेन की रोशनी दिखी। वे गिरते-पड़ते वहाँ तक पहुँचे। लालटेन उठाए चौकीदार ने उनसे पूछा कि साहिब, क्या बात हो गई? क्या कोई दुर्घटना हो गई? मिस्टर ऑलिवर ने उसे बताया कि उन्होंने जंगल में एक भयावह दृश्य देखा — एक लड़का जिसका कोई चेहरा नहीं था — न आँखें, न नाक. न मुँह, कुछ नहीं! चौकीदार ने अपने मुँह पर लालटेन की रोशनी डालते हुए पूछा — साहिब, आपका मतलब ऐसा चहरा था? उस चौकीदार के चहरे पर भी आँखें, भौंहें, कान, वग़ैरह कुछ नहीं थे। और उसी क्षण तेज़ हवा के झोंके से लालटेन बुझ गई।
बॉन्ड की कहानियों में, भूत, जिन्न, चुड़ैलें और राक्षस पात्र उतने ही वास्तविक हैं, जितने कि सामान्य दुनिया के लोग। रोमांचकारी स्थितियों और अलौकिक प्राणियों का उल्लेख इनकी कहानियों को रुचिकर बनाते हैं। भुतहा कथाओं के साथ-साथ रस्किन बॉन्ड ने अन्य कई रहस्यमयी और ग्रामीण एवं नगरीय जीवन की कहानियों के संग्रह प्रकाशित कराए। इनके अलावा प्रकृति जगत् से जुड़े पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों को भी उन्होंने अपने लेखन का विषय बनाया। उनकी बाल-कथाएँ बेहद लोकप्रिय हैं। रस्किन बॉन्ड का कहानी शिल्प बिल्कुल सादा है, भाषा सरल एवं सुबोध है, कथ्य दैनिक परिवेश एवं जीवनचर्या से जुड़ा है, कथावस्तु साधारण है किन्तु कथन-शैली रोचक एवं भावपूर्ण है जो अनायास पाठकों के हृदय में उतर जाती है।