शिल्‍प और कला / राहुल सांकृत्यायन

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घुमक्कड़ के स्वावलंबी होने के लिए उपयुक्त कुछ बातों को हम बतला चुके हैं। क्षौरकर्म, फोटोग्राफी या शारीरिक श्रम बहुत उपयोगी काम हैं, इसमें शक नहीं; लेकिन वह घुमक्कड़ की केवल शरीर-यात्रा में ही सहायक हो सकते हैं। उनके द्वारा वह ऊँचे तल पर नहीं उठ सकता, अथवा समाज के हर वर्ग के साथ समानता के साथ घुल-मिल नहीं सकता। सभी वर्ग के लोगों में घुल-मिल जाने तथा अपने कृतित्व को दिखाने का अवसर घुमक्कड़ को मिल सकता है, यदि उसने ललित कलाओं का अनुशीलन किया है। हाँ, यह अवश्य है कि ललित-कलाएँ केवल परिश्रम के बल पर नहीं सीखी जा सकतीं। उनके लिए स्वामाविक रुचि का होना भी आवश्य क है। ललित-कलाओं में नृत्य, वाद्य और गान तीनों ही अधिकाधिक स्वाभाविक रुचि तथा संलग्निता को चाहते हैं। नाचने से गाना अधिक कठिन है, गाने और बजाने में कौन ज्या दा कष्टि-साध्यह है, इसके बारे में कहना किसी मर्मज्ञ के लिए ही उचित हो सकता है। वस्तुौत: इन तीनों में कितना परिश्रम और समय लगता है, इसके बारे में मेरा ज्ञान नहीं के बराबर है। लेकिन इनका प्रभाव जो अपरिचित देश में जाने पर देखा जाता है, उससे इनकी उपयोगिता साफ मालूम पड़ती है। यह हम आशा नहीं करते, कि जिसने घुमक्कड़ी का व्रत लिया है, जिसे कठिन से-कठिन रास्तों से दुरूह स्था नों में जाने का शौक है, वह कोई नृत्यमंडली बनाकर दिग्विजय करने निकलेगा। वस्तुित: जैसे “सिंहों के लेंहड़े नहीं” होते, वैसे ही घुमक्कड़ भी जमात बाँध के नहीं घूमा करते। हो सकता है, कभी दो या तीन घुमक्कड़ कुछ दिनों तक एक साथ रहें, लेकिन उन्हें तो अंतत: अपनी यात्राएँ स्वयं ही पूरी करनी पड़ती हैं। हाँ, तरुणियों के लिए, जिनपर मैं आगे लिखूँगा, यह अच्छा है, यदि वह तीन-तीन की भी जमात बाँध के घूमें। उनके आत्म -विश्वामस को बढ़ाने तथा पुरुषों के अत्यायचार से रक्षा पाने के लिए यह अच्छा होगा।

नृत्य के बहुत से भेद है, मुझे हैं, मुझे तो उनमें सबका नाम भी ज्ञात नहीं है। मोटे तौर से हरेक देश का नृत्य जन-नृत्य तथा उस्तालदी (क्लामसिक) नृत्य दो रूपों में बँटा दिखाई पड़ता है। साधारण शारीरिक व्यातयाम में मन पर बहुत दबाव रखना पड़ता है, किंतु नृत्य ऐसा व्याोयाम है, जिसमें मन पर बलात्का र करने की आवश्य कता नहीं, उसे करते हुए आदमी को पता भी नहीं लगता, कि वह किसी शारीरिक परिश्रम का काम कर रहा है। शरीर को कर्मण्य रखने के लिए मनुष्य ने आदिम-काल में नृत्य का आविष्काकर किया, अथवा नृत्य के लाभ को समझा। नृत्य शरीर को दृढ़ और कर्मण्य ही नहीं रखता, बल्कि उसके अंगों को भी सुडौल बनाए रखता है। नृत्य के जो साधारण गुण हैं, उन्हें घुमक्कड़ों से भिन्न, लोगों को भी जानना चाहिए। अफसोस है, हमारे देश में पिछली सात-आठ सदियों में इस कला की बड़ी अवहेलना हुई। इसे निम्ना कोटि का व्यनवसाय समझ कर तथाकथित उच्चा वर्ग ने छोड़ दिया। ग्रामीण मजूर-जातियाँ नृत्यकला को अपनाए रहीं, उनमें से कितने ही नृत्यों को वर्तमान सदी के आरंभ तक अहीर, भर जैसी जातियों ने सुरक्षित रखा। लेकिन जब उनमें भी शिक्षा बढ़ने लगी, तथा “बड़ों” की नकल करने की प्रवृत्ति बढ़ी, तो वह भी नृत्य को छोड़ने लगे। पिछले तीस सालों में फरी (अहीरी) का नृत्य युक्त प्रांत और बिहार के जिले से लुप्तय हो गया। जहाँ बचपन में कोई अहीर-विवाह हो ही नहीं सकता था, जिसमें वर-बधू के पुरुष संबंधी ही नहीं बल्कि माँ और सास ने नहीं नाचा हो। रूस के परिश्रमसाध्य सुंदर नृत्योंर को देखकर मुझे अहीरी नृत्य का स्मरण आया और 1939 में उसे देखने की बड़ी इच्छा हुई, तो बड़ी मुश्किल से गोरखपुर जिले में एक जगह वह नृत्य देखने को मिला। मैं समझता था, बचपन के नृत्य का जो रूप स्मृमति ने मेरे सामने रखा है, अतिशयोक्तिपूर्ण है, किंतु जब नृत्य को देखा, तो पता लगा कि स्मृपति ने अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया है। लेकिन इसका खेद बहुत हुआ कि इतना सुंदर नृत्य इतनी तेजी के साथ लुप्ति हो चला। उसके बाद कुछ कोशिश भी की, कि उसे प्रोत्सायहन दिया जाय किंतु मैं उस अवस्थाच से पार हो चुका था, जबकि नृत्य को स्वयं सीख सकूँ। उसके लिए आंदोलन करने को जितने समय की आवश्यउकता थी, उसे भी मैं नही दे सकता था।

फरी (अहीरी) नृत्य के अतिरिक्त हमारे देश में प्रदेश-भेद से विविध प्रकार के सुंदर नृत्य चलते हैं, और बहुत-से अभी भी जीवित हैं। पिछले तीस वर्षों से संगीत और नृत्य को फिर से उज्जीधवित करने का हमारे देश में प्रयत्नव हुआ है। जहाँ भद्र-महिलाओं के लिए नृत्य-गीत परम वर्जित तथा अत्यंत लांक्षनीय चीज समझी जाती थी, वहाँ अब भद्र-कुलों की लड़कियों की शिक्षा का वह एक अंग बन गया है। लेकिन अभी हमारा सारा ध्यािन केवल उस्ता्दी नृत्य और संगीत पर है, जन-कला की ओर नहीं गया है। जनकला दरअसल उपेक्षणीय चीज नहीं है। जनकला के संपर्क के बिना उस्ता द नृत्य-संगीत निर्जीव हो जाता है। हमें आशा करनी चाहिए, कि जनकला की ओर भी ध्यासन जायगा और लोगों में जो पक्षपात उसके विरुद्ध कितने ही समय से फैला है, वह हटेगा। मैं घुमक्कड़ को केवल एक को चुनने का आग्रह नहीं कर सकता। यदि मुझे कहने का अधिकार हो, तो मैं कह सकता हूँ - घुमक्कड़ को जन-संगीत, जन-नृत्य और जन-वाद्य को प्रथम सीखना चाहिए, उसके बाद उस्तादी कला का भी अभ्या स करना चाहिए। जनकला को मैं क्योंऔ प्रधानता दे रहा हूँ, इसका एक कारण घुमक्कड़ी-जीवन की सीमाएँ हैं। उच्चा श्रेणी का घुमक्कड़ आधे दर्जन सूटकेस, बक्स, और दूसरी चीजें ढोए-ढोए सर्वत्र नहीं घूमता फिरेगा। उसके पास उतना ही सामान होना चाहिए, जितने की जरूरत पड़ने पर वह स्वयं उठा कर ले जा सके। यदि वह सितार, वीणा, पियानो जैसे वाद्यों द्वारा ही अपने गुणों को प्रदर्शित कर सकता है, तो इन सबको साथ ले जाना मुश्किल होगा। वह बाँसुरी को अच्छी तरह ले जा सकता है, उसमें कोई दिक्कबत नहीं होगी। जरूरत पड़ने पर बाँस जैसी पोली चीज को लेकर वह स्वयं लाल लोहे से छिद्र बना के वंशी तैयार कर सकता है। मैं तो कहूँगा : घुमक्कड़ के लिए बाँसुरी बाजों की रानी है। कितनी सीधी-सादी, कितनी हल्कीग और कितनी सस्तीक - किंतु साथ ही कितने काम की है! जैसे बाँसुरी बजानेवाला चतुर पुरुष अपने देश के जन तथा उस्तातदी गान को बाँसुरी पर उतार सकता है, नृत्य-गीत में सहायता दे सकता है, उसी तरह सिद्धहस्तर बाँसुरीबाज किसी देश के भी गीत और नृत्य को अपनी वंशी में उतार सकता है। कृष्ण की वंशी का हम गुणगान सुन चुके हैं, मैं उस तरह के गुणगान के लिए यहाँ तैयार नहीं हूँ। मैं सिर्फ घुमक्कड़ की दृष्टि से उसके महत्वह को बतलाना चाहता हूँ। तान को सुनकर इतना तो कोई भी समझ सकता है, कि बाँसुरी पर प्रभुत्वत होना चाहिए, फिर किसी गीत और लय को मामूली प्रयास से वह अदा कर सकता है। मान लीजिए, हमारा घुमक्कड़ वंशी में निष्णा त है। वह पूर्वी तिब्बदत के खम प्रदेश में पहुँच गया है, उसको तिब्ब ती भाषा का एक शब्द भी नहीं मालूम है। खम प्रदेश के कितने ही भागों के पहाड़ जंगल से आच्छा,दित हैं। हिमालय की ललनाओं की भाँति वहाँ की स्त्रियाँ भी घास, लकड़ी या चरवाही के लिए जंगल में जाने पर संगीत का उपयोग श्वाभस-प्रश्वा स की तरह करती हैं। मान लीजिए तरुण घुमक्कड़ उसी समय एकाएक वहाँ पहुँचता है और किसी कोकिल-कंठी के संगीत को ध्यान से सुनता है। बगल की जेब में पड़ी या जामा के कमरबंद में लगी अथवा पीठ की भारी में पड़ी वंशी को उठाता है। उसे मुँह पर लगाकर धीरे-धीरे कोकिल-कंठी के लय को उतारने की कोशिश करता है और थोड़े समय में उसे पकड़ लेता है। जनगीतों के लय बहुत सरल होते हैं, किंतु उसका अर्थ यह नहींप कि उसमें मनोहारिता की कमी होती है। तरुण दस-पाँच मिनट के परिश्रम के बाद अब किसी देवदार की घनी छाया के नीचे बैठा कोकिलकंठी के गान को अपनी वंशी में अलापने लगता है। वंशी का स्वर आस-पास में रहने वाली कोकिल-कंठियों को अपने ओर खींचे बिना नही रहेगा। आगंतुक को परिचय करने के लिए कोशिश करने की आवश्यंकता नहीं, स्वयं कोकिल-कंठी और उसकी सहचरियाँ यमुना किनारे ब्रज की गोपिकाओं की भाँति विह्वल हो उठेंगी। आगंतुक तरुण खंपा लोगों की भाषा नहीं जानता, उसकी सूरत मंगोलियन नहीं है, इससे कोकिल-कंठी समझ जाएगी कि यह कोई विदेशी है। किंतु वह तान तो विदेशी नहीं है। भाषा न जानने की बाधा हवा हो जाएगी और तरुण घुमक्कड़ परमपरिचित बन जायगा। इशारे से सारी बातें जान जायँगी और उनके मन में यह ध्यामन आ जायगा कि इस अपरिचित प्रवासी को अकेले निरीह नहीं छोड़ना चाहिए। बस दो तानों की और आवश्ययकता होगी, जैसे कि वह भारत के किसी कोने में हो। यदि बीणा, सितार जैसे लंबे, भारी बाजों को वहाँ ले जाया जा सके, तो सिद्धहस्त घुमक्कड़ उनके द्वारा अपने गुण का परिचय दे सकेगा, किंतु क्या वह उन्हें उसी तरह साथ ले जा सकता है, जैसे वंशी को। इसीलिए मैं वंशी को घुमक्कड़ का आदर्श वाद्य कहता हूँ।

वंशो हो या कोई भी वाद्य, उसका सीखना उसी व्यलक्ति के लिए सुगम और अल्प्समय-साध्य है जिसकी संगीत के प्रति स्वत: रुचि है। मैं एक बारह-तेरह वर्ष के लड़के के बारे में जानता हूँ। उसे वंशी बजाने का शौक था। खेल-खेल में वंशी बजाना उसने शुरू किया, किसी के पास सीखने नहीं गया। जो कोई गाना सुनता, उसे अपनी वंशी में उतारने की कोशिश करता। इस प्रकार 12-13 वर्ष की उम्र में वंशी उसकी हो गयी थी। जिसमें स्वाभाविक रुचि है, उसे वंशी को अपनाना चाहिए। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं, कि जिसका दूसरे वाद्यों से प्रेम है, वह उन्हेंह छूए नहीं। वंशी को तो उसे कम-से-कम अवश्य ही सीख लेना चाहिए, इसके बाद चाहे तो और भी वाद्यों को सीख सकता है। बेहतर यह भी है कि अवसर होने पर आदमी एकाध विदेशी वाद्यों का भी परिचय प्राप्त् कर ले। पहली यूरोप यात्रा में मैं जिस जहाज में जा रहा था, उसमें यूरोपीय नर-नारी काफी थे, और सायंकाल को नृत्यमंडली जम जाती थी। अधिकतर वह ग्रामोफोन रिकार्डों से बाजे का काम लेते थे। मेरे एक भारतीय तरुण साथी जहाज से जा रहे थे, वह भारतीय बाजों के अतिरिक्त। पियानो भी बजाते थे। लोगों ने उन्हें ढूँढ़ लिया, और दो ही दिनों में देखा गया, वह सारी तरुण-मंडली के दोस्तं हो गये। जैसे जहाज में हुआ, वैसे ही यूरोप के किसी गाँव में भी वह पहुँचते, तो वहाँ भी यही बात होती।

वाद्य से नृत्य लोगों को मित्र बनाने में कम सहायक नहीं होता। जिसकी उधर रुचि है, और यदि वह एक देश के 20-30 प्रकार के नृत्य को अच्छी तरह जानता है, उसे किसी देश के नृत्य को सीखने में बहुत समय नहीं लगेगा। यदि वह नृत्य में दूसरों के साथ शामिल हो जाए तो एकमयता के बारे में क्या कहना है! मैं अपने को भाग्यहीन समझता हूँ, जो नृत्य, और संगीत मे से मैंने किसी को नहीं जान पाया। स्वाभाविक रुचि का भी सवाल था। नवतरुणाई के समय प्रयत्नए करने पर सीख जाता, इसमें भारी संदेह है। मैं यह नहीं कहता कि नृत्य, गीत, वाद्य को बिना सीखे घुमक्कड़ कृतकार्य नहीं हो सकता, और न यही कहता हूँ कि केवल परिश्रम करके आदमी इन ललित-कलाओं पर अधिकार प्राप्ता कर सकता है। लेकिन इनके लाभ को देखकर भावी घुमक्कड़ों से कहूँगा कि कुछ भी रुचि होने पर वह संगीत-नृत्य-वाद्य को अवश्य सीखें।

नृत्य जान पड़ता है, वाद्य और संगीत से कुछ आसान है। कितनी ही बार बहुत लालसा से नवतरुणियों की प्रार्थना को स्वीकार करके मैं अखाड़े में नहीं उतर सका। कितनों को तो मेरे यह कहने पर विश्वापस नहीं हुआ, कि मैं नाचना नहीं जानता। यूरोप में हरेक व्यरक्ति कुछ-न-कुछ नाचना जानता है। पिछले साल (1948) किन्नरदेश के एक गाँव की बात याद आती है। उस दिन ग्राम में यात्रोत्स व था। मंदिर की तरफ से घड़ों नहीं कुंडो शराब बाँटी गई। बाजा शुरू होते ही अखाड़े में नस-नारियों ने गोल पांती (मंडली) बनानी शुरू की, जो बढ़ते-बढ़ते तेहरी पंक्ति में परिणत हो गई। किन्नोरियों का कंठ जितना ठोस और मधुर होता है, उनका संगीत जितना सरल और हृदयग्राही होता है, नृत्य उतना क्या, कुछ भी नहीं होता। उस नृत्य में वस्तु त: परिश्रम होता नहीं दिख रहा था। जान पड़ता था, लोग मजे से एक चक्क र में धीरे-धीरे टहल रहे हैं। बस बाजे की तान पर शरीर जरा-सा आगे-पीछे झुक जाता। इस प्रकार यद्यपि नृत्य आकर्षक‍ नहीं था, किंतु यह तो देखने में आ रहा था कि लोग उसमें सम्मिलित होने के लिए बड़े उत्सुनक हैं। हमारे ही साथ वहाँ पहुँचे कचहरी के कुछ कायस्थ (लिपिक) और चपरासी मौजूद थे। मैंने देखा, कुछ ही मिनटों में शराब की लाली आँखों में उतरते ही बिना कहे ही वह नृत्य-मंडली में शामिल हो गये, और अब उसी गाँव के एक व्यबक्ति की तरह झूलने लगे। मैं वहाँ प्रतिष्ठित मेहमान था। मेरे लिए खास तौर से कुर्सी लाकर रखी गई थी। मैं उसे पसंद नहीं करता था। मुझे अफसोस हो रहा था - काश, मैं थोड़ा भी इस कला में प्रवेश रखता! फिर तो निश्चंय ही मंदिर की छत पर कुर्सी न तोड़ता, बल्कि मंडली में शामिल हो जाता। उससे मेरे प्रति उनके भावों में दुष्पमरिवर्तन नहीं होता। पहले जैसे मैं दूर का कोई भद्र पुरुष समझा जा रहा था, नृत्य में शामिल होने पर उनका आत्मीिय बन जाता। घुमक्कड़ नृत्यकला में अभिज्ञ होकर यात्राओं को बहुत सरस और आकर्षक बना सकता है, उसके लिए सभी जगह आत्मी य बंधु सुलभ हो जाते हैं। नृत्य, संगीत और वाद्य वस्तु‍त: कला नहीं, जादू हैं। पहिले बतला चुका हूँ, कि घुमक्कड़ मानवमात्र को अपने समान समझता है, नृत्य तो क्रियात्मकक रूप से आत्मीमय बनाता है।

जिसकी संगीत की ओर प्रवृत्ति है, उसे भारतीय संगीत के साथ कुछ विदेशी संगीत का भी परिचय प्राप्तं करना चाहिए। अपने देश के भोजन की तरह ही अपना संगीत भी अधिक प्रिय लगता है। आरंभ में तो आदमी अपने संगीत का अंध पक्षपाती होता है, और दूसरे देश के संगीत की अवहेलना करता है, तुच्छी समझता है। आदमी ऐसा जानबूझकर नहीं करता, बल्कि जिस तरह विदेशी भोजन के बारे में भी है। लेकिन जब विदेशी संगीत को ध्यादन से सुनता है, बारीकियों से परिचय प्राप्तव करता है, तो उसमें भी रस आने लगता है। यह अफसोस की बात है, कि हमारे देश में विदेशी संगीत को गुणीजन भी अवहेलना की दृष्टि से देखते हैं, इससे वह दूसरों को हानि नहीं पहुँच सकते, हाँ, अपने संबंध में अवश्य बुरी धारणा पैदा करा सकते हैं। हम विदेशी संगीत के साथ सहानुभूति का अभ्या स कर इस कमी को दूर कर सकते हैं। संगीत, विशेषकर विदेशी संगीत के परिचय में भी बहुत सुभीता होगा, यदि हम पश्चिम की संगीत की संकेत-लिपि को सीखें। हमारे देश में अपनी अलग स्वरलिपि बनाई गई है, और उसमें भी भिन्नग-भिन्नि आचार्यों ने अलग-अलग स्वरलिपि चलानी चाही है। पाश्चाकत्यध स्वरलिपि तोक्योर, रोम से सानफ्रांसिस्कोि तक प्रचलित है। कोई जापानी यह शिकायत करते नहीं पाया जाता कि उसका संगीत पश्चिमी स्वरलिपि में नहीं लिखा जा सकता। लेकिन हमारे गुण कहते हैं, कि भारतीय संगीत को पश्चिमी स्वरलिपि में नहीं उतारा जा सकता। पहले तो मैं यह कहने का साहस नहीं कर सकता था, लेकिन रूस के एक तरुण संगीतज्ञ ने जब भारतीय ग्रामोफोन रेकार्ड से हमारे उस्ताकदी संगीत को यूरोपीय स्वरलिपि में उतार कर पियानों पर बजा दिया, उस दिन से मुझे विश्वाहस हो गया, कि हमारे संगीत को पश्चिमी स्वरलिपि में उतारा जा सकता है। हाँ, उसमें जहाँ-तहाँ हल्काश-सा परिवर्तन करना पड़ेगा। आखिर संस्कृत और पाली लिखने के लिए भी रोमन लिपि का प्रयोग करते वक्तर थोड़े-से संकेतों में परिवर्तन की आवश्योकता पड़ी। संगीत के संबंध में भी तरह कुछ चिह्न बढ़ाने पड़ेंगे। मैं समझता हूँ, पश्चिमी स्वरलिपि को न अपनाकर हम अपनी हानि कर रहे हैं। जिन देशों में वह स्वरलिपि स्वीकार कर ली गई हैं, वहाँ लाखों लड़के-लड़कियाँ इस स्रं। लिपि में छपे ग्रंथों से संगीत का आनंद लेते हैं। हमारा संगीत यदि पश्चिमी स्वरलिपि में लिखा जाय, तो वहाँ के संगीत प्रेमियों को उससे परिचय प्राप्तह करने का अच्छा अवसर मिलेगा, और फिर वह हमारी चीज की कदर करने लगेंगे।

खैर, पश्चिमी स्वरलिपि को हमारे गुणिजन कब स्वीकार करेंगे, इसे समय बतलायगा, किंतु हमारे घुमक्कड़ी के पास तो ऐसी संकीर्णता नहीं फटकनी चाहिए। उन्हें पश्चिमी स्वरलिपि द्वारा भी संगीत सीखना चाहिए। इसके द्वारा वह स्वदेशी और विदेशी दोनों संगीतों के पास पहुँच सकते हैं, उनका आनंद ले सकते हैं, इतना ही नहीं, बल्कि अज्ञात देशों में जाकर उनके संगीत का आसानी से परिचय प्राप्त कर सकते हैं।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है, कि घुमक्कड़ के लिए नृत्य, वाद्य और संगीत तीनों का भारी उपयोग है। वह इन ललित-कलाओं द्वारा किसी भी देश के लोगों में आत्मीतयता स्थाऔपित कर सकता है, और कहीं भी एकांतता का अनुभव नहीं कर सकता। जो बात इन ललित-कलाओं तरुण घुमक्कड़ों के लिए कही गई है, वहीव बात तरुणी-घुमक्कड़ों के लिए भी हो सकती है। घुमक्कड़-तरुणी को नृत्य-वाद्य-संगीत का अभ्याैस अवश्य करना चाहिए। घूमने में बहुत सुभीता होगा, यदि वह पुस्त़की ज्ञान से ऊपर संगीत के समुद्र में गोता लगाएँ।