शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर, क्रिस्टोफर नोलन और टेसिटा डीन / जयप्रकाश चौकसे

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शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर, क्रिस्टोफर नोलन और टेसिटा डीन
प्रकाशन तिथि :27 मार्च 2018

प्राय: लोग होश संभालते ही जीवन में अपना लक्ष्य तय कर लेते हैं कि उन्हें डॉक्टर, इंजीनियर, लेखक इत्यादि क्या बनना है। शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षण लिया। पुणे फिल्म संस्थान में कार्यरत क्यूरेटर पीके नायर पर 'सेल्युलाइड मैन' नामक वृत्त चित्र बनाया, जिसे देश-विदेश में सराहा गया। शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर ने फिल्म विरासत का संग्रहालय बनाया। देश-विदेश की यात्राएं करके चीजें एकत्रित कीं। उन्हें भारतीय फिल्म विरासत से प्रेम वैसा ही है जैसे मजूनं को लैला से, फरहाद को शीरीं से और रोमियो को जूलियट से था। यह भी जोड़ सकते हैं कि जैसा प्रेम सलीम को अनारकली से था। हमारे फिल्मकार मुगल-ए-आजम बादशाह अकबर की तरह फिल्म विरासत को सहेजने वाले शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर से कह सकते हैं कि उद्योग की उपेक्षा और उदासीनता उन्हें जीने नहीं देगी तथा इतिहास बोध से भरे मुट्‌ठीभर लोग उन्हें मरने नहीं देंगे।

उन्हें अपने काम में लगे रहने की प्रेरणा और प्रोत्साहन एक अनपेक्षित जगह से यूं मिली कि अमेरिका के महान फिल्मकार क्रिस्टोफर नोलन ने उनसे संपर्क किया और भारत आकर उनके काम को आदरांजलि देने की गुजारिश की। जाने कैसे क्रिस्टोफर नोलन को शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर के जुनून की जानकारी मिली। किसी अन्य संदर्भ में महात्मा बुद्ध ने कहा था कि अच्छे काम के सुखद परिणाम तीन बार मिलते हैं- यहां, वहां और फिर यहां। क्रिस्टोफर नोलन के साथ ही टेसिटा डीन भी भारत आ रही हैं। वे इस बात पर प्रकाश डालेंगी कि फिल्म को सेल्युलाइड पर ही बनाना चाहिए। वे अपना काम 16 एमएम या 35 एमएम पर ही करती हैं। डिजिटल पर किया काम कभी लुप्त भी हो सकता है परंतु सेल्युलाइड पर शूट की गई फिल्म लंबे समय तक सुरक्षित रह सकती है। टेसिटा डीन का कहना है कि बहुत-सी महान फिल्में नष्ट हो चुकी हैं और फिल्म को सुरक्षित रखना इसलिए भी जरूरी है कि शॉट्स के सांकेतिक अर्थ की नई व्याख्या की गुंजाइश बनी रहे। यह सिमेंटिक्स यानी शब्दार्थ विज्ञान है। यह बात इस तरह भी समझी जा सकती है कि हेलेट के संवाद 'टू बी ऑर नॉट टू बी' पर ही बहुत शोध हुआ है और कवि कोलरिज़ की यह पंक्ति 'कुब्ला खान ज़नाडू में रहता था' ने एक शोधकर्ता को प्रेरित किया कि वह खोजें कि ज़नाडू नामक जगह कहां थी। हजारों वर्ष पूर्व यूरोप के एक स्थान को ज़नाडू कहा जाता था।

शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर की संस्था 'फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन' यह समारोह 31 मार्च और 1 अप्रैल को मुंबई में आयोजित कर रही है। इस कार्यक्रम के तहत विशेषज्ञों की बैठक में फिल्म संरक्षण पर विचार-विनिमय होगा और एक आम सभा में भी यही मुद्‌दा उठाया जाएगा। कार्यक्रम का नाम है 'फ्रैमिंग द फ्यूचर ऑफ फिल्म।' विशेष अतिथियों के लिए रात्रि भोज का आयोजन भी किया गया है। ज्ञातव्य है कि 2015 में लॉस एंजिल्स में क्रिस्टोफर नोलन और टेसिटा डीन फिल्म संरक्षण एवं सेल्युलाइड पर फिल्म बनाने के बाबत एक परिचर्चा आयोजित कर चुके हैं। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि ईस्टमैन कलर नेगेटिव और पॉजिटिव बनाने वाली कंपनी भारत में भी एक रसायनशाला खोलने का इरादा रखती है। ज्ञातव्य है कि डिजिटल के पूर्व सभी भारतीय फिल्में ईस्टमैन कलर सेल्यूलाइड पर बनाई जाती थीं, जिसका आयात करने के कारण फिल्म का लाभांश विदेश जाता था परंतु भारत में ही स्थापना के बाद सारा लाभ भारत में ही रहेगा। अनेक विदेशी फिल्मकारों ने डिजिटल को नकारते हुए ईस्टमैन कलर सेल्यूलाइड पर फिल्मांकन प्रारंभ कर दिया है।

क्रिस्टोफर नोलन और टेसिटा डीन मानते हैं कि भारतीय फिल्म परम्परा अत्यंत सशक्त है और उसका संरक्षण महत्वपूर्ण है। टेसिटा डीन का विश्वास है कि फिल्म कला और उसे बयां करने के माध्यम दोनों का ही समान महत्व है गोयाकि फिल्म के लिए चुनी गई कहानी और उसे प्रस्तुत करने के माध्यम का महत्व समान है। सारांश यह है कि अपनी बात कहने के लए सेल्यूलाइड का चुनाव करते ही आपकी प्रतिभा एक महान परम्परा से जुड़ जाती है। व्यक्तिगत प्रतिभा परम्परा से प्रेरणा लेती है और अपने योगदान से परम्परा को ही मजबूत बनाती है। यह प्रतिभा और परम्परा का रिश्ता है।

इस समारोह में क्रिस्टोफर नोलन की ताज़ा फिल्म 'डन्कर्क' का प्रदर्शन कार्निवल के वडाला, मुंबई स्थित आइमैक्स में किया जा रहा है। क्रिस्टोफर नोलन 70 एमएम के प्रिंट के प्रदर्शन के लिए आवश्यक प्रोजेक्टर भी साथ ला रहे हैं। इस प्रिंट और प्रोजेक्टर का वजन 300 किलोग्राम है। दर्शक एक नया अनुभव प्राप्त करेंगे। इसी तरह 'इंटरस्टेलर' नामक फिल्म मुंबई के लिबर्टी सिनेमाघर में 31 मार्च को सुबह 9 बजे दिखाई जाएगी। वार्नर ब्रदर्स कंपनी मात्र एक प्रदर्शन के लिए यह फिल्म भेज रही है। कोडक के जेफ क्लार्क और शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर परिचर्चा में भाग लेंगे। परिचर्चा के अंत में प्रश्नोत्तर की भी संभावना है।

ज्ञातव्य है कि दूसरे महायुद्ध में डन्कर्क स्थान पर लड़ा गया युद्ध महत्वपूर्ण रहा है। कहते हैं कि हिटलर के आदेश पर युद्ध रोका गया और पैंजर टैंकों का भी इस्तेमाल नहीं हुआ। यह आज भी विवादास्पद है कि क्या हिटलर ने यह स्वयं के विनाश का आदेश दिया था? हिटलर के नाम का इस्तेमाल करके यह आत्मविनाशी आदेश किस अफसर ने दिया था? क्या हिटलर की फौज में ही कुछ ऐसे लोग थे, जो मानवता के हित में इस तानाशाह की पराजय चाहते थे? यूरोप में डन्कर्क वैसी ही जगह है जैसे भारत में कुरुक्षेत्र। यह काबिले गौर है कि दुर्योधन की सेना में भी कुछ लोग थे, जो उसे पराजित होते देखना चाहते थे। स्वयं भीष्म पितामह ने अपनी पूरी शक्ति से युद्ध नहीं लड़ा।