शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर : विरासत का पहरेदार / जयप्रकाश चौकसे

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शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर : विरासत का पहरेदार
प्रकाशन तिथि :06 अप्रैल 2017


आज मुंबई के 'द क्लब' में पीके नायक की 'यस्टरडेज़ फिल्म्स फॉर टुमारो' का विमोचन होने जा रहा है और पुणे फिल्म संस्थान में प्रशिक्षित लोग जैसे नसीरुद्‌दीन शाह, सतीश शाह, इत्यादि समारोह में शामिल होने वाले हैं। जया बच्चन भी वही प्रशिक्षित हुई थीं, अत: पूरा बच्चन परिवार भी मौजूद होगा। इस किताब का प्रकाशन शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर की 'फिल्म हैरीटेज' ने किया है। ज्ञातव्य है कि अपने गुरु पीके नायर के जीवन पर शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर 'द सेल्युलाइड मैन' नामक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली डाक्यूमेंटरी बना चुके हैं। फिल्म की बात क्या करें, हमारे तो ऐतिहासिक महत्व के किले और अनेक दस्तावेज हमारी लापरवाही से नष्ट हो गए हैं। कुछ वर्ष पूर्व हुड़दंगियों ने अमूल्य दस्तावेजों के वाचनालय में आग लगा दी थी। सत्यजीत राय ने चेतन आनंद की 'नीचा नगर' का प्रिंट एक कबाड़खाने से प्राप्त किया था। यह आयोजन पुणे फिल्म संस्थान में किया जाना चाहिए था। परंतु, वहां एक सीरियल में युधिष्ठिर की भूमिका अभिनीत करने मात्र की योग्यता पर सदैव भावविहीन रहने वाले व्यक्ति को शिखर पद पर बैठा दिया गया। ज्ञातव्य है कि पुणे संस्थान उस जगह बनाया गया है, जहां कभी शांताराम और भागीदारों की प्रभात फिल्म कंपनी होती थी। उन लोगों ने परिसर में वृक्ष लगाया था, जिसे छात्र 'विज़डम ट्री' कहते हैं। महात्मा गौतम बुद्ध को गया में वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। वृक्षों के विषय की कहानियां तो रहेंगी परंतु वृक्षों के नष्ट होने से एक भयावह वृक्षविहीन संसार का आकल्पन उभरता है। हम अपनी नदियों, पहाड़ों के प्रति हमेशा लापरवाह रहे हैं। पौधों की रक्षा के लिए लगाए गए लोहे के ट्री गार्ड चोरी चले जाते हैं। हमारी सामूहिक सोच में इतने छिद्र हैं कि कहां-कहां आप हथेली लगाएंगे?

आज डिजिटल का जमाना है परंतु, पहले फिल्म प्रदर्शन के बाद फिल्म के निगेटिव और पॉजिटिव दोनों को ही उबालकर उसमें मौजूद चांदी निकाली जाती थी और बचे हुए पदार्थ से महिलाओं की चूड़ियां बनती थीं। फिल्म के लिए जुनून रखने वालों को महिलाओं की चूड़ियों में फिल्में नज़र आती हों तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यह भी हम नहीं भूल सकते कि भारत में कथा फिल्म के जनक दादा फालके की पत्नी ने अपने हाथ की सोने की चूड़ियां और अन्य गहने बेचकर अपने पति के लिए फिल्म बनाने के लिए धन जुटाया था।

शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर की दीवानगी का यह आलम है कि मुंबई के तारदेव इलाके में इमारत के दो मालों पर उनके द्वारा एकत्रित व खरीदी हुईं यादगार चीजें रखी हैं। उन्होंने कैमरे खरीदे हैं, संपादन मशीनें खरीदी हैं। उनके पास जितने भी प्रिंट हैं, वे उनकी नियमित साफ-सफाई करते हैं और उन्हें कालकवलित होने से बचाने का हरसंभव प्रयास करते हैं। डूंगरपुर के राज परिवार के शिवेंद्र सिंह फिल्म विरासत की रक्षा अपनी व्यक्तिगत रियासत के जुनून की तरह करते हैं। उनकी हर सांस में सिनेमा बसा है, हर आह में कोई नष्ट होती रील का दर्द है। किसी और देश में ऐसे व्यक्ति को दादा फालके जैसा पुरस्कार दिया जाता।

दादा फालके का जन्म नासिक के निकट त्र्यंबकेश्वर में हुआ था और फिल्म विरासत की रक्षा करने वाले पीके नायर का जन्म दक्षिण के तिरुवनंतपुरम में हुआ था वे फिल्मकार बनने की महत्वाकांक्षा लिए मुंबई आए थे और मेहबूब खान के सहायक भी रहे। मार्च 1961 में पुणे फिल्म संस्थान में उनकी नियुक्ति हुई। उस समय तक छात्र नहीं आए थे। पीके नायर ने दुनियाभर के तमाम केंद्रों से पाठ्यक्रम मंगवाए और उनका गहन अध्ययन किया। प्रोफेसर सतीश बहादुर, जगत मुरारी और पीके नायर ने पाठ्यक्रम बनाया और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से संपर्क करके महान फिल्मों का संग्रह किया। दादा फालके की 'कालिया मर्दन' की कुछ रीलें ही मिल पाईं। ज्ञातव्य है कि दादा फालके को फिल्म बनाने के लिए महाराजा होलकर ने पांच हजार रुपए दिए थे। 'लंका दहन' इन्हीं रुपयों से बनी थी।

पीके नायर का काम कितना कठिन था इसका अनुमान इस घटना से लगाएं कि पहली बोलती फिल्म 'आलमआरा' के फिल्मकार अर्देशर ईरानी ने अपने पुत्र शापुरजी से कहा कि इन्हें फिल्म की बची हुई रीलें दे दें। शापुरजी ने उन्हें बताया कि आग लगने के भय से उन्होंने 'आलमआरा' की रीलें नषट कर दीं। यह भी दुखद घटना है कि तारदेव स्थित फेमस लेबोरेटरी में आग लगने के कारण अनेक फिल्में नष्ट हो गईं। सारांश यह कि फिल्म धरोहर के पन्ने पर पानी पड़ गया और बमुश्किल हाशिये में लिखी इबारत ही बच पाई है। पीके नायर का काम कुछ ऐसा था मानों युद्ध के पश्चात कुरुक्षेत्र में पड़े शस्त्रों के आधार पर अठारह दिवसीय युद्ध का इतिहास लिखें।

फिल्म आस्वाद के लिए कई शहरों में शिविर लगाए गए। सबसे सुखद परिणाम यह सामने आया कि विदेशी भाषाओं की फिल्मों का आनंद उन साधारण आम आदमियों ने भी लिया, जिन्हें वे भाषाएं नहीं आती थीं। स्पष्ट है कि फिल्म की अपनी जबान है, जिसे पारम्परिक अर्थ में अनपढ़ भी समझ सकते थे। गौरतलब है कि भारत के महान फिल्मकार मेहबूब खान, शांताराम और राज कपूर स्कूल की परीक्षा भी पास नहीं कर पाए थे परंतु इन लोगों ने सिनेमा में महाकाव्य रचे और उसके ग्रामर को भी आम दर्शक के लिए परिभाषित किया। फिल्म दिल में बनती है, दिल से देखी जाती है और दिल से महसूस की जाती है।