शिवेंद्र : राह की बांहों का मुसाफिर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 10 दिसम्बर 2014
मुंबई के तारदेव इलाके में एयर कंडीशंड मार्केट के पास अरुण चैम्बर्स के सातवें माले पर शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर का दफ्तर है। दशकों पूर्व सन् 1930 के बाद वर्षों में इसी जगह सेंट्रल स्टूडियो होता था जिसमें दरबान की नौकरी से प्रारंभ करके मेहबूब खान एक दिन शिखर फिल्मकार बने। इसी जगह कारदार भी शूटिंग करते थे। इसी इमारत के पास फेमस लैब आैर रिकॉर्डिंग स्टूडियो था जहां 1946 से 1964 तक बनी अधिकांश फिल्मों के गीत रिकॉर्ड होते थे आैर इसी लैब में आग लगने के कारण अनेक फिल्मों के निगेटिव जल गए आैर भारतीय सिनेमा का इतिहास ही आंशिक रूप से आग की भेंट चढ़ गया। अब यह ऊपर वाले की पटकथा का कमाल है कि उसी स्थान पर बनी नई इमारत में शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर भारतीय सिनेमा की विरासत को बचाए रखने का एकल व्यक्ति प्रयास कर रहे हैं। फिल्म उद्योग के अनेक संगठन हैं परंतु वहां आपसी गुटबाजी के अतिरिक्त कुछ नहीं होता। कोई संस्था या सरकार मदद नहीं कर रही है आैर नए भारत तथा 'मेक इन इंडिया' की बातें करने वाली केंद्रीय सरकार सिनेमा विरासत को बचाने का कोई प्रयास नहीं करती। मनोरंजन कर के रूप में इतिहास की एक पूरी सदी में अरबों रुपए एकत्रित करने वाली प्रांतीय सरकारें भी उदासीन हैं तथा करोड़ों का मेहनताने पाने वाले सितारे भी खामोश हैं।
हमारी दो हजार मूक फिल्मों में केवल सात फिल्में ही बच पाई है आैर पहली सवाक फिल्म 'आलम-आरा' का भी कोई प्रिंट नहीं बचा। जाने कितने क्लासिक काल कवलित हो गए हैं आैर जाने कितने रेस्टोरेशन के अभाव में नष्ट होने वाले हैं जिनमें 'दो बीघा जमीन', 'आवारा' इत्यादि शामिल हैं। सत्यजीत रॉय की फिल्मों के रेस्टोरेशन अर्थात पुनरुद्धार का काम इस्माइल मर्चेंट ने किया आैर बाद में उन्हें संजोए रखने का काम अमेरिकन अकादमी कर रही है। चेतन आनंद की कॉन्स पुरस्कार पाने वाली 1946 की 'नीचा नगर' का एक प्रिंट सत्यजीत रॉय ने कलकत्ता के कबाड़ी दुकान से दस रुपए में खरीदा था। दरअसल भारतीय सिनेमा से जुड़ी कई वस्तुएं कबाड़खानों में बिकती हैं आैर ऐसी विरल जगहों से शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने माल खरीदा है, वे लंदन से केदार शर्मा की चीजें लाए, कारदार के लिए जगह-जगह भटके। जैसे ही उन्हें कोई खबर मिलती है, वे वहां पहुंच जाते हैं। श्री 420 में कबाड़ी कहता है कि उसके पास ईमान गिरवी रखने वाले भी आते हैं। उन्होंने राजकपूर का मिचेल कैमरा जिससे उन्होंने अपनी पहली ग्यारह फिल्में शूट की, वह भी खरीदा है। जिस तरह राजकपूर, गुरुदत्त, बिमल रॉय को फिल्म बनाने का जुनून पागलपन की हद तक था, वैसी ही जुनून शिवेंद्र को है। उसके एक अन्य दफ्तर में प्रिंट्स की सफाई आैर दुरुस्ती का काम निरंतर चलता रहता है। किसी दौर में सामंतवादियों को नाच गाने तथा अय्याशी का शौक होता था, उससे बेहतर डूंगरपुर रियासत के शिवेंद्र को सिनेमा की विरासत बचाने का शौक है आैर अभी तक वह अपनी पूंजी से ही यह कर रहा है। इसी तरह उसके मित्र राजेश देवराज ने भी 'द आर्ट ऑफ बॉलीवुड' नामक किताब लिखी है। इन लोगों के पास फिल्म साहित्य भी है आैर भारत में फोनोग्राम के इतिहास की भी किताब है।
अगले वर्ष फरवरी 22 से 28 तक रेस्टोरेशन वर्क शॉप का आयोजन मुंबई फिल्मस डिवीजन के परिसर में रखा गया है जिसमें अमेरिका के प्रख्यात मार्टिन स्कॉरसिस मौजूद होंगे। फिल्म रेस्टोरेशन अनेक देशों में नौकरी दिलवाता है आैर इच्छुक युवा 15 दिसंबर तक फिल्म हैरिटेज फाउंडेशन www.filmheritagefoundation.co.in में नामांकन करा सकते हैं। इसी वेबसाइट पर फिल्म पुनरुद्धार के लिए दान देने की जानकारी भी मिल सकती है तथा जयंत पटेल से 02267367777 से दान विषय में जानकारी मिल सकती है। दान की बूंदों से भी सागर भरता है मल्टी का दर्शक आैर एकल का दर्शक अपने टिकटों के दाम का भी सदुपयोग कर सकते हैं। सबसे जरूरी बात यह है फिल्म में अभिनेता या लेखक बनना चाहने वाले लोग संपर्क नहीं करें क्योंकि शिवेंद्र केवल फिल्म विरासत से जुड़े हैं। विगत एक सौ एक वर्षों से सिनेमा की ताकत आम दर्शक का प्रेम आैर पैसा रहा है, क्या यही वर्ग अपने चहेते माध्यम की विरासत पुनरुद्धार के लिए धन नहीं दे सकता? यह सिनेमा धर्म का सवाल है। बहरहाल शिवेंद्र का जुनून ऐसा है कि वह अपना काम करता रहेगा, बकौल शैलेंद्र "चलते चलते थक गया, सांझ भी ढलनी लगी, तब राह खुद मुझे बांहों में लेकर चलने लगी।"