शीत ऋतु की ठिठुरन और कांपती अवाम / जयप्रकाश चौकसे

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शीत ऋतु की ठिठुरन और कांपती अवाम
प्रकाशन तिथि :05 जनवरी 2018


कहावत है कि अगर शीत ऋतु आती है तो बसंत भी शीघ्र ही आता है। कालिदास साहित्य में बसंत उत्सव का विवरण है। शशि कपूर की गिरीश कर्नाड द्वारा बनाई फिल्म 'उत्सव' में बसंतोत्सव के गिर्द ही सारा घटनाक्रम चलता है। बसंत देव के लिखे गीत और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का संगीत इस फिल्म की ताकत था। लता मंगेशकर और आशा भोंसले ने गीत गाया था 'मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को, बेला महका रे महका आधी रात को'। आशा भोंसले की आवाज शरीर की तरह है जिसमें लता आत्मा की तरह विराजमान है। इस गीत की रिकॉर्डिंग दोनों बहनों ने एक साथ नहीं की, उन्होंने अपनी-अपनी कड़ियां अलग-अलग समय पर आकर गाईं, परन्तु लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने मिक्सिंग ऐसी की है कि मानो दोनों ने बहनापा निभाया हो।

हमने वृक्षों को काटकर, अपनी नदियों को प्रदूषित कर दिया जिस कारण बसंत ऋतु आती ही नहीं है। शीत ऋतु और ग्रीष्म के बीच के सेतु - बसंत का लोप हो चुका है परन्तु वह सामूहिक अवचेतन में इस कदर जीवित है कि पाकिस्तान में भी कुछ लोग बसंत उत्सव मनाते हैं। दोनों ही पड़ोसी दोस्त दुश्मन एक ही सांझा संस्कृति के वारिस हैं। सियासत इस विरासत को लीलने का प्रयास कर रही है परन्तु कुछ पाकिस्तानी घरों में खिड़की, दरवाजे बंद करके लता मंगेशकर के गीत सुने जाते हैं और भारत में भी कुछ दिलजले नूरजहां को सुनते हैं परन्तु गनीमत है कि अभी हमें खिड़की दरवाजे बंद करने की हिदायत नहीं दी गई है क्योंकि माधुर्य अहिंसक है। सेवानिवृत जस्टिस एम. सी. घागला की आत्मकथा का नाम है 'रोजेस इन दिसम्बर'। गुलाब अभी भी खिलते हैं और तितलियां पराग के लिए आज भी बेकरार रहती हैं।

शांताराम की रंगों और ध्वनि की ऑरजी की तरह रची फिल्मों 'नवरंग' और 'झनक झनक पायल बाजे' में भी बसंत उत्सव के दृश्य हैं। किसी दौर में कुछ भोजन प्रेमी लोग जमकर खाने के बाद अपने गले में उंगली डालकर वमन करते थे ताकि वे एक बार फिर स्वादिष्ट भोजन ठूस सकें। इसे ऑरजी कहते हैं। यह काल-खंड सांस्कृतिक मूल्यों के वमन का काल-खंड है। साथ ही संकीर्णता की ऑरजी भी जारी है। शरीर संरचना तत्वों का समन्वय है परन्तु आजकल अग्नि का प्रमाण कुछ बढ़ गया है और मिजाज ज्वलनशील बन गया है। कहीं भी कोई भी माचिस की एक तीली लगा देता है और पूरे क्षेत्र में कर्फ्यू लग जाता है।

उत्तर भारत शीत लहर की जकड़ में है। सरकार ने बेघरबार लोगों के लिए रैन बसेरे बनाए हैं परन्तु चौकीदार बिना रिश्वत लिए गरीबों को प्रवेश नहीं देता। साधनहीन वर्ग में भी अनेक सतहें हैं और कौन कितना अधिक साधनहीन है - इसकी प्रतिस्पर्धा जारी रहती है।

इरफान खान अभिनीत एक फिल्म 'हिंदी मीडियम' में नायक को गरीबों के मोहल्ले में निवास करना पड़ता है ताकि गरीबों के कोटे से उनके बच्चे का दाखिला इंग्लिश मीडियम स्कूल में हो सके। यह सच है कि अमीर व्यक्ति गरीबों के मोहल्लों में नहीं रह सकता तो यह भी सच है कि गरीब व्यक्ति अमीर की कोठी में स्वयं को सहज महसूस नहीं करता क्योंकि गरीबी को व्यवस्था ने हमारे जेनेटिक कोड में शामिल कर दिया है। गरीबी से अधिक किसी और का उत्पाद नहीं किया गया है।

इरशाद कामिल ने सलमान खान अभिनीत फिल्म 'सुल्तान' के एक प्रेम गीत में इस आशय की बात लिखी है कि नायिका शीत ऋतु में गालों पर आई लालिमा की तरह है और उसका साथ रजाई की गर्मी की तरह है। कविता स्वयं शीत ऋतु में खिले गुलाबों की तरह होती है, कविता लिहाफ भी है वह मानव हृदय की ऊष्मा की तरह है। कविता अपने गुलाब का कांटा भी होती है। सियासत की उंगलियों में कांटे चुभ जाते हैं तो वे पूरा चमन भी उजाड़ देती है।

मान्यता है कि चौहद जनवरी से सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं और शीत का प्रभाव कम होने लगता है। भीष्म पितामह तीरों की सेज पर लेटे रहे क्योंकि वे सूर्य के उत्तरायण होने पर ही प्राण त्यागना चाहते थे। उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। इन आख्यानों से अगर वरदान और श्राप हटा दें तो ये लघुकथाएं मात्र रह जाती हैं। महाकवि ने श्राप और वरदान के माध्यम से ग्रंथों को वृहदाकार किया है ताकि उसके माध्यम से नैतिकता का सबक सिखाया जाये परन्तु हम पाठकों का मन श्राप-वरदान की रोचकता में ऐसा लगता है कि हम नैतिकता को नजरअंदाज कर देते हैं।

साधनहीन व्यक्तियों की हड्डियों और मज्जातक में शीत ऋतु की ठिठुरन समा जाती है और ग्रीष्म भी इस जकड़न को मिटा नहीं पाता। वर्ग भेद से पीड़ित समाज ही मौसम का आइना भी बन गया है।