शीर्ष से सतह तक की यात्रा / रूपसिंह चंदेल
सीढ़ियां चढ़कर मैं पहली मंजिल पर उनके कमरे के दरवाजे पर पहुंचा .दरवाजा बंद था. कमरे में टेलीविजन ऊंचे वाल्यूम में चल रहा था. कई बार खटखटाया, लेकिन कोई उत्तर नहीं . काफी प्रातीक्षा और प्रयास के बाद दरवाजा खुला. भाभी जी थीं. मुझे देखकर हत्प्रभ. "अन्दर आइये" कहकर पीछे मुड़ीं और उंची आवाज में बोलीं, "अरे देखो तो कौन आया है?" लेकिन उन्होंने सुना नहीं और आंखे टी.वी. पर गड़ाये रहे. भाभी जी ने टी.वी. धीमा कर दिया और बोली,"चन्देल जी आये हैं."
बनियाइन और पाजामे में वह लेटे हुए टी.वी. देख रहे थे. पत्नी के साथ मुझे देखकर तपाक से उठे और "अरे आप!" कहते हुए नीचे उतरे. चप्पलें नहीं मिलीं तो नंगे पैर मेरे पास आये, "सभी मुझे भूल गये. " एक मायूसी उनके चेहरे पर तैर गयी, " चलिए आपने याद तो रखा." स्वर में शिकायत थी.
"आपने वायदा किया था कि नये घर में जाकर मुझे पता और फोन नम्बर देंगे. " आवाज कुछ ऊंची करके बोलना पड़ा. जबसे मस्तिष्क में कीड़े हुए थे, उन्हें कम सुनाई देने लगा था. वैसे टी.वी. इसलिए भी ऊंची आवाज में सुन रहे होगें, लेकिन उनके यहां टी.वी. सदैव ऊंची आवाज में ही सुना जाता था.
मैं कमरे का जायजा ले रहा था. यह चौदह बाई दस का कमरा रहा होगा, जिसमें एक डबल बेड और तीन कुर्सियां, एक आल्मारी और कुछ अन्य सामान रखा था. सामने छोटी-सी रसोई और उससे आगे बाल्कानी , जिसपर उन्होंने टीन-शेड डलवा रखी थी. दिल्ली के विश्वास नगर के लम्बे-चौड़े दो मंजिले मकान में रहने वाले ( जिसमें नीचे हिस्से में उनके प्रकाशन की पुस्तकों का भण्डार और कार्यालय था, और ऊपर रिहायश. उससे ऊपर भी कमरा) श्रीकॄष्ण जी का जीवन नोएडा के उस छोटे-से जनता फ्लैट में सिमटकर रह गया था.
श्रीकृष्ण जी से मेरी पहली मुलाकात १९८४ के आसपास हुई थी. मैं लेखक होने के शुरूआती दौर से गुजर रहा था .कभी-कभार पत्र -पत्रिकाओं में जाया करता . यह यात्रा प्रायः शनिवार को होती . उस दिन हिन्दुस्तान टाइम्स में 'साप्ताहिक हुन्दुस्तान' में हिमांशु जोशी से मिलने गया था. हिमांशु जी उन दिनों वहां विशेष संवाददाता होने के अतिरिक्त साहित्य भी देखते थे . उनसे मेरा परिचय एकाध साल पहले ही हुआ था.
उस दिन हिमांशु जी के पास दो सज्जन पहले से ही बैठे हुए थे. एक औसत कद, गोरे और स्लिम और दूसरे नाटे , सांवले और दुबले . मैं दोनों को ही नहीं जानता था. हिमांशु जी ने उनके परिचय दिए . गोरे सज्जन थे आबिद सुरती और दूसरे थे पराग प्रकाशन के श्री श्रीकृष्ण . परिचय के आदान- प्रदान के दौरान श्रीकृण जी पूरे समय मुस्कराते रहे थे. बाद में पता चला कि श्रीकृण जी ने हिमांशु जी का तब तक का लगभग पूरा साहित्य प्रकाशित किया था. कुछ लोगों के अनुसार साहित्य जगत में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित कर पाठकों तक हिमांशु जी को पहुंचाने वाले पहले प्रकाशक श्रीकृष्ण जी थे. हालांकि 'साप्ताहिक हिन्दुस्ता" में धारावाहिक रूप में प्रकाशित होने वाले हिमांशु जी के उपन्यास और कहानियों से पाठक पहले से ही परिचित रहे होगें. जोशी जी की भांति नरेन्द्र कोहली के बहुचर्चित उपन्यास 'दीक्षा' आदि को सर्वप्रथम 'पराग' ने ही प्रकाशित किया था . बाद में हिमांशु जी ने अपनी पुस्तकें पराग से ले ली थीं . एक समय ऎसा भी आया जब किसी बात पर उनके मध्य विवाद भी हुआ और जोशी जी ने पराग को वकील का नोटिस भी भेजा था. श्री कृष्ण जी मुझे सब बताते और चाहते कि मैं मध्यस्थता करूं लेकिन मैं मध्यस्थता की स्थिति में न था. वकील की नोटिस से श्रीकृष्ण जी बहुत आहत थे. अन्ततः वह मध्यस्तता शरदेन्दु जी ने की थी और उसी रात श्रीकृष्ण जी ने मुझे फोन करके सारा प्रकरण बताने के बाद कहा था, "आज एक बहुत बड़ा टेंशन से मुक्त हो गया हूं , लेकिन मैंने उनसे (हिमांशु जी) ऎसी आशा नहीं की थी."
श्रीकृष्ण जी से परिचय के समय तक मेरी दो पुस्तकें - एक बाल कहानी संग्रह और एक अपराध विज्ञान की पुस्तक ही प्रकाशित हुई थीं, लेकिन एक-दो पाण्डुलिपियां प्रकाशकों के यहां पहुंचने की राह देख रही थीं. हिमांशु जी के कार्यालय में श्रीकृष्ण जी से परिचित होने के बाद उनसे अगली मुलाकात १९८६ या ८७ में हुई थी. मैं किसी के साथ (शायद कथाकार बलराम के साथ) उनके घर कर्ण गली, विश्वासनगर गया था. उन दिनों तक 'पराग प्रकाशन' हिन्दी के महत्वपूर्ण प्रकाशकों में अपनी अलग पहचान पा चुका था. पराग को ही अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट' प्रकाशित करने का पहला अवसर मिला था , जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. नरेन्द्र कोहली के रामायण पर आधारित उपन्यास भी चर्चा बटोर चुके थे. स्थिति यह थी कि अधिकांश युवा लेखक वहां छपना चाहते थे और पराग ने अनेकों को छापा भी था. लेकिन कुछ युवा लेखकों ने उन्हें बाद में परेशान भी किया था. उन दिनों श्रीकृष्ण जी ने जिससे भी - स्थापित या नये लेखकों से पाण्डुलिपियां मांगी , शायद ही किसी ने उन्हें निराश किया होगा. उसका सबसे बड़ा कारण था उनका 'प्रोडक्शन'. एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने बताया था कि उनके प्रोडक्शन से राजकमल प्रकाशन की शीला सन्धु इतना प्रभावित थीं कि उन्होंने प्रकाशन के प्रबन्धक श्री मोहन गुप्त को उनकी टाइटल्स दिखाते हुए कहा था - "मोहन जी इस मामले में हमें श्रीकृष्ण जी से सीखना चाहिए. अकेले दम पर प्रकाशन चला रहे हैं और प्रोडक्शन इतना गजब का !" सम्भवतः मेरे मन में भी पराग से प्रकाशित होने की ललक मुझे उनके यहां तक खींच ले गयी होगी. बहरहाल , उनसे मिलने का सिलसिला चल निकला और कई मुलाकातों के बाद मैंने उनसे अपना कहानी संग्रह प्रकाशित करने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहजता से स्वीकार कर लिया. १९९० में 'आदमखोर तथा अन्य कहानियां ' प्रकाशित हुआ. उसके पश्चात श्रीकृष्ण जी की जो आत्मीयता मुझे मिली उसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं. रॉयल्टी को लेकर मुझे कभी उनसे शिकायत नहीं रही. उन्हीं दिनों मेरा परिचय उनके मित्र श्री योगन्द्रकुमार लल्ला से हुआ . लल्ला जी 'रविवार' पत्रिका में संयुक्त सम्पादक थे. लला जी ने बताया था कि उन्होंने और श्रीकृष्ण जी ने अपने कैरियर की शुरुआत एक साथ ’आत्माराम एण्ड सन्स’ से की थी. दोनों ही लेखक थे और बच्चों के लिए लिख रहे थे. लल्ला जी आज मेरठ में रह रहे हैं लेकिन आज भी उनकी मित्रता बरकरार है.
श्रीकृष्ण जी ने मेरा दूसरा कहानी संग्रह १९९५ में प्रकाशित किया - 'एक मसीहा की मौत'. लेकिन तब तक उनके प्रकाशन की स्थिति नाजुक हो आयी थी. कारण थे दिल्ली के एक लेखक जो उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार की खरीद योजना के एक उच्च अधिकारी के दलाल थे. खुदा उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे. उन्होंने दिल्ली के अनेक प्रकाशकों को सब्जबाग दिखाया था . श्रीकृष्ण जी भी (स्वयं उनके अनुसार जिन्दगी में पहली बार ) उसके सब्जबाग में आ गये और डूब गये. हासिल कुछ हुआ नहीं था --- कर्जदार अलग हो गये थे. उन्हीं दिनों एक और घटना घटी थी उनके साथ. उनका पराग प्रकाशन रजिस्टर्ड नहीं था. उनके एक मित्र प्रकाशक ने इस नाम को रजिस्टर्ड करवा लिया . परिणामतः उन्हें प्रकाशन का नाम बदलना पड़ा था. मेरा दूसरा कहानी संग्रह उनके नये प्रकाशन 'अभिरुचि प्रकाशन' से प्रकाशित हुआ था.
श्रीकृष्ण जी बहुत उत्साही व्यक्ति हैं. प्रकाशन की डांवाडोल स्थिति के बावजूद वह मोटी -मोटी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे थे. उन्होंने एक दिन फोन करके मुझे बुलाया और बोले- "आपसे एक काम करवाना चाहता हूं." पूछने पर बताया कि वह सभी विधाओं पर शताब्दी का उत्कृष्ट साहित्य प्रकाशित करना चाहते हैं और चूंकि मैंने आंचलिक कहानियां और उपन्यास लिखें हैं अतः वह मुझसे 'बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' का सम्पादन करवाना चाहते हैं. मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी और १९९७ में दो खण्डों में वह कार्य ८०० पृष्ठों में प्रकाशित हुआ जिसकी न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी चर्चा हुई. पाठकों को यह बताना आवश्यक है कि उन्होंने मुझे सम्पादक के रूप में जो रॉयल्टी दी उसकी कल्पना मैं किसी बड़े प्रकाशक से नहीं कर सकता था.
उनके अति-उत्साह, बढ़ती उम्र और बिक्री की समुचित व्यवस्था के अभाव (क्यॊंकि वह अकेले थे--- उनके सात बेटियां थीं और उनकी शादी हो चुकी थी) के कारण प्रकाशन चरमरा रहा था. उनपर कर्ज का बोझ बढ़ रहा था, लेकिन पुस्तकें प्रकाशित करने के उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आ रही थी. उन्होंने 'मेरी तेरह कहानियां' नाम से कहानी संग्रहों की एक श्रृखंला प्रारम्भ की और कई लेखकों को छाप डाला. अंतिम कड़ी में, कमलेश्वर, प्रेमचन्द, और मुझ सहित पांच लेखकों को प्रकाशित किया. लेकिन इसी दौरान वह भयंकर बीमारी का शिकार होकर लम्बे समय तक शैय्यासीन रहे. उनके मस्तिष्क में कीड़े हो गये थे, जो आज एक आम बीमारी होती जा रही है. कहते हैं बन्ध- गोभी खाने वालों को इस बीमारी का शिकार होने की अधिक सम्भावना होती है.
अन्ततः स्थिति यह हुई कि श्रीकृष्ण जी को प्रकाशन बन्द करना पड़ा. यही नहीं उन्हें मकान भी बेच देना पड़ा. एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और मेरी पुस्तकों की बची प्रतियां मेरी गाड़ी में रखवा दीं, जिसमें 'मेरी तेरह कहानियां' की तीस प्रतियां और 'वीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' की लगभग ४४ प्रतियां थीं. "इतनी पुस्तकों का मैं क्या करूंगा.?" पूछने पर सहज- भाव से बोले थे, "मित्रों में बाट दीजिएगा."
उन्होंने मकान बेचने की बात बताते हुए कहा था, "जाने के बाद आपको नयी जगह का पता और फोन नम्बर दूंगा. आप जैसे कुछ ही लेखक हैं जो निस्वार्थ मुझसे सम्पर्क बनाए रहे--- उन्हें कैसे भूल सकता हूं." लेकिन या तो वह भूल गये अपनी असाध्य बीमारी के चलते या उन्हें अपना नया पता बताने में संकोच हुआ था. बात जो भी हो. व्यस्तता के चलते एक वर्ष तक मैं भी उनसे सम्पर्क नहीं साध सका. इतना पता था कि नोएडा में कहीं जनता फ्लैट लेकर वह रह रहे हैं. गत वर्ष इन्हीं दिनों किसी कार्यवश मुझे नोएडा जाना था. उनका पता किससे मिल सकता है यह सोचता रहा. उनकी एक बेटी श्यामलाल कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक है, लेकिन उनका फोन नं मेरे पास नहीं था. अंततः बलराम अग्रवाल ने बताया कि डॉ हरदयाल मेरी सहायता कर सकते हैं. डॉ हरदयाल से श्रीकृष्ण जी का पता लेकर मैं जब नोएडा के उनके जनता फ्लैट में पहुंचा तब उन्हें देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वही श्रीकृष्ण हैं जो कभी हिन्दी प्रकाशन जगत में छाये हुए थे. और कहां विश्वासनगर मंा उनका भव्य मकान और कहां जनता फ्लैट!
मैं लगभग डेढ़ घण्टा उनके साथ रहा . वह गदगद थे . उस हालत में भी उनका लेखन कार्य चल रहा था. बच्चों के लिए कुछ लिख रहे थे. उनकी लगभग पचास पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें १४ पुस्तकें बड़ों के लिए हैं. उन्हें देखकर मैं सोचने के लिए विवश हुआ कि ईमानदारी और बिना छल-छद्म के प्रकाशन व्यवसाय चलाने वाले व्यक्ति का भविष्य श्रीकृष्ण जैसा हो सकता है. मुझे बहुत पहले भीष्म साहनी जी की साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित कहानी याद हो आयी जिसमें लेखक की स्थिति तो नहीं बदलती--- वह जैसा होता है वर्षों - वर्षों लिखने के बाद भी वैसा ही बना रहता है, जबकि एक प्रकाशक कुछ वर्षों में ही पूंजीपति हो जाता है. लेकिन ऎसे प्रकाशकों के मध्य अपवादस्वरूप श्रीकृष्ण जी जैसे प्रकाशक भी हैं, जो अपनी ईमानदारी के कारण वह जीवन जीने के लिए विवश हैं जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी. लेकिन वह इस बात से दुखी नहीं हैं---उनका दुख इस बात का है कि प्रकाशन जगत में भ्रष्टाचार गहराई तक फैल चुका है. अब बड़े -बड़े प्रकाशक नये लेखकों से पैसे लेकर उनकी पुस्तकें छाप रहे हैं. कुछ ऎसे भी हैं जो अप्रवासी हिंदी पंजाबी लेखकों की अनभिज्ञता और का लाभ उठाकर उनसे मोटी रकमें लेकर उनकी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं. उनके बल विदेश की यात्राएं कर रहे हैं. खरीद में बैठे अधिकारी का कुछ भी छाप रहे हैं. ऎसे अधिकारी मालामल भी हो रहे हैं और लेखक भी बन रहे हैं. परिणामतः हिन्दी साहित्य का स्तर गिर रहा है.
श्रीकृष्ण जी ने अपने प्रकाशकीय जीवन में कभी कुछ ऎसा नहीं किया . और जब किसी लेखक के खरीद करवा देने के छद्मजाल में फंसे तो उबर नहीं पाये. उन्हें प्रकाशकों की आजकी स्थिति से कष्ट होना स्वाभाविक है.