शीलनिरूपण और चरित्रचित्रण / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल
रससंचार से आगे बढ़ने पर हम काव्य की उस उच्च भूमि में पहुँचते हैं जहाँ मनोविकार अपने क्षणिक रूप में ही न दिखाई देकर जीवनव्यापी रूप में दिखाई पड़ते हैं। इसी स्थायित्व की प्रतिष्ठा द्वारा शीलनिरूपण और पात्रों का चरित्र-चित्रण होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस उच्च भूमि में आने पर फुटकरिए कवि पीछे छूट जाते हैं; केवल प्रबन्धकुशल कवि ही दिखाई पड़ते हैं। खेद के साथ कहना पड़ता है कि गोस्वामीजी को छोड़ हिन्दी का और कोई पुराना कवि इस क्षेत्रों में नहीं दिखाई पड़ता। चारणकाल के चंद आदि कवियों ने भी प्रबन्धरचना की है; पर उसमें चरित्रचित्रण को वैसा स्थान नहीं दिया गया है, वीरोल्लास ही प्रधान है। जायसी आदि मुसलमान कवियों की प्रबन्धधारा केवल प्रेमपथ का निदर्शन करती गई है। दोनों प्रकार के आख्यानों में मनोविकारों के इतने भिन्न भिन्न प्रकृतिस्थ स्वरूप नहीं दिखाई पड़ते जिन्हें हम किसी व्यक्ति या समुदायविशेष का लक्षण कह सकें।
रससंचार मात्र के लिए किसी मनोविकार की एक अवसर पर पूर्ण व्यंजना ही काफी होती है। पर किसी पात्र में उसे शील रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कई अवसरों पर उसकी अभिव्यक्ति दिखानी पड़ती है। रामचरितमानस के भीतर राम, भरत, लक्ष्मण, दशरथ और रावण, ये कई पात्र ऐसे हैं जिनके स्वभाव और मानसिक प्रवृत्ति की विशेषता गोस्वामीजी ने, कई अवसरों पर प्रदर्शित भावों और आचरणों की एकरूपता दिखाकर प्रत्यक्ष की है।
पहले राम को लीजिए और इस बात का ध्याकन रखिए कि प्रधान पात्र होने के कारण जितनी भिन्न भिन्न परिस्थितियों में उनका जीवन दिखाया गया है, और किसी पात्र का नहीं। भिन्न भिन्न मनोविकारों को उभारनेवाले जितने अधिक अवसर उनके सामने आए हैं, उतने और किसी पात्र के सामने नहीं। लक्ष्मण भी प्रत्येक परिस्थिति में उनके साथ रहे, इससे उनके सम्बन्ध में भी यही कहा जा सकता है। सारांश यह कि राम लक्ष्मण के चरित्रों का चित्रण् आख्यान के भीतर सबसे अधिक व्यापक होने के कारण सबसे अधिक पूर्ण है। भरत का चरित्र जितना अंकित है, उतना सबसे उज्ज्वल, सबसे निर्मल और सबसे निर्दोष है। पर साथ ही यह भी है कि वह उतना अधिक अंकित नहीं है। राम से भी अधिक जो उत्कर्ष उनमें दिखाई पड़ता है वह बहुत कुछ चित्रण की अपूर्णता के कारण-उतनी अधिक परिस्थितियों में उसके न दिखाए जाने के कारण जितनी अधिक परिस्थितियों में राम लक्ष्मण का चरित्र दिखाया गया है। पर इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि जिस परिस्थिति में भरत दिखाए गए हैं, उससे बढ़कर शील की कसौटी हो ही नहीं सकती।
अनन्त शक्ति के साथ धीरता, गम्भीरता और कोमलता 'राम' का प्रधान लक्षण है। यही उनका 'रामत्व' है। अपनी शक्ति की स्वानुभूति ही उस उत्साह का मूल है जिससे बड़े बड़े दु:साध्या कर्म होते हैं। बाल्यावस्था में ही जिस प्रसन्नता के साथ दोनों भाइयों ने घर छोड़ा और विश्वामित्रा के साथ बाहर रहकर अस्त्राशिक्षा प्राप्त की तथा विघ्नकारी विकट राक्षसों पर पहले पहल अपना बल आजमाया, वह उस उल्लासपूर्ण साहस का सूचक है जिसे 'उत्साह' कहते हैं। छोटी अवस्था में ही ऐसे विकट प्रवास के लिए जिनकी धड़क खुलती हमने देखी, उन्हीं को पीछे चौदह वर्ष वन में रहकर अनेक कष्टों का सामना करते हुए जगत को क्षुब्धा करनेवाले कुम्भकर्ण और रावण ऐसे राक्षसों को मारते हुए हम देखते हैं। इस प्रकार जिन परिस्थितियों के बीच वीर जीवन का विकास होता है, उनकी परम्परा का निर्वाह हम क्रम से रामचरित में देखते हैं। राम और लक्ष्मण ये दो अद्वितीय वीर हम उस समय पृथ्वी पर पाते हैं। वीरता की दृष्टि से हम कोई भेद दोनों पात्रों में नहीं कर सकते। पर सीता के स्वयंवर में दोनों भाइयों के स्वभाव में जो पार्थक्य दिखाई पड़ा उसका निर्वाह हम अन्त तक पाते हैं। जनक के परितापवचन पर उग्रता और परशुराम की बातों के उत्तर में जो चपलता हम लक्ष्मण में देखते हैं, उसे हम बराबर अवसर अवसर पर देखते चले जाते हैं। इसी प्रकार राम की जो धीरता और गम्भीरता हम परशुराम के साथ बातचीत करने में देखते हैं, वह बराबर आगे आने वाले प्रसंगों में हम देखते जाते हैं। इतना देखकर तब हम कहते हैं कि राम का स्वभाव धीर और गम्भीर था और लक्ष्मण का उग्र और चपल।
धीर, गम्भीर और सुशील अन्त:करण की बड़ी भारी विशेषता यह होती है कि वह दूसरे में बुरे भाव का आरोप जल्दी नहीं कर सकता। सारे अवधवासियों को लेकर भरत को चित्रकूट की ओर आते देख लक्ष्मण कहते हैं-
कुटिल कुबंधु कुअवसर ताकी। जानि राम बनवास एकाकी।।
करि कुमंत्रा मन, साजि समाजू। आए करइ अकंटक राजू।।
और तुरन्त इस अनुमान पर उनकी त्योरी चढ़ जाती है-
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू। लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू।।
तैसेहि भरतहि सेन समेता। सानुजनिबरिनिपातउँ खेता।।
पर राम के मन में भरत के प्रति ऐसा सन्देह होता ही नहीं है। अपनी सुशीलता के बल से उन्हें उनकी सुशीलता पर पूरा विश्वास है। वे तुरन्त समझाते हैं-
सुनहु लषन भल भरत सरीसा। बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा।।
भरतहिं होइ न राज मद बिधि हरि हर पद पाइ।
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीर सिंधु बिनसाइ।।
सुमन्त जब राम लक्ष्मण को विदा कर अयोध्यास लौटने लगते हैं, तब रामचन्द्रजी अत्यन्त प्रेमभरा सँदेसा पिता से कहने को कहते हैं जिसमें कहीं से खिन्नता या उदासीनता का लेश नहीं है। वे सारथी को बहुत तरह से समझाकर कहते हैं-
सब बिधि सोइ करतव्य तुम्हारे। दुख न पाव पितु सोच हमारे।।
यह कहना लक्ष्मण को अच्छा नहीं लगता। जिस निष्ठुर पिता ने स्त्रीी के कहने में आकर वनवास दिया, उसे भला सोच क्या होगा? पिता के व्यवहार की कठोरता के सामने लक्ष्मण का ध्याान उनके सत्यपालन और परवशता की ओर न गया, उनकी वृत्ति इतनी धीर और संयत न थी कि वे इतनी दूर सोचने जाते। पिता के प्रति कुछ कठोर वचन वे कहने लगे। पर राम ने उन्हें रोका और सारथी से बहुत विनती की कि लक्ष्मण की ये बातें पिता से न कहना।
पुनि कछु लषन कहीकटु बानी। प्रभु बरजेउ बड़ अनुचित जानी।।
सकुचि राम निज सपथ दिवाई। लषन सँदेसु कहिय जनि जाई।।
यह 'सकुचि' शब्द कितना भावगर्भित है। यह कवि की सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि सूचित करता है। मनुष्य का जीवन सामाजिक है। वह समाजबद्ध प्राणी है। उसे अपने ही आचरण पर लज्जा या संकोच नहीं होता है, अपने कुटुम्बी, इष्टमित्रा या साथी के भद्दे आचरण पर भी होता है। पुत्र की करतूत सुनकर पिता का सिर नीचा होता है, भाई की करतूत सुनकर भाई का। इस बात का अनुभव तो हम बराबर करते हैं कि हमारा साथी हमारे सामने यदि किसी से बातचीत करते समय भद्दे या अश्लील शब्दों का प्रयोग करता है, तो हमें लज्जा मालूम होती है। यह संकोच राम की सुशीलता और लोकमर्यादा का भाव व्यंजित करता है। मर्यादा पुरुषोत्ताम का चरित्र ऐसे ही कवि के हाथ में पड़ने योग्य था।
सुमन्त ने अयोध्याम लौटकर राजा से लक्ष्मण की कही हुई बातें तो न कहीं, पर इस घटना का उल्लेख किए बिना उससे न रहा गया। क्यों? क्या लक्ष्मण से उससे कुछ शत्रुता थी? नहीं, राम के शील का जो अद्भुत उत्कर्ष उसने देखा, उसे वह हृदय में न रख सका। सुशीलता के मनोहर दृश्य का प्रभाव मानव अन्त:करण पर ऐसा ही पड़ता है। सुमन्त को राम की आज्ञा के विरुद्ध कार्य करने का दोष अपने ऊपर लेना कबूल हुआ; पर उस शीलसौन्दर्य की झलक अपने ही तक वह न रख सका, दशरथ को भी उसे उसने दिखाया। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस अन्तिम झलक ने राजा को और भी उस मृत्यु के पास तक पहुँचा दिया होगा जो आगे चलकर दिखाई गई है। इसे कहते हैं घटना का सूक्ष्म क्रमविन्यास।
राम और लक्ष्मण के स्वभावभेद का बस एक और चित्र दिखा देना काफी होगा। समुद्र के किनारे खड़े होकर समुद्र से विनय करते करते राम को तीन दिन बीत गए। तब जाकर राम को क्रोध आया और 'भय बिनु होइ न प्रीति' वाली नीति की ओर उनका ध्यारन गया। वे बोले-
लछिमन बान सरासन आनू । सोखउँ बारिधि बिसिख कृसानू।।
असकहि रघुपति चाप चढ़ावा । यह मत लछिमन के भावा।।
जिसके बाण खींचते ही 'उठी उदधि उर अन्तर ज्वाला' उसने पहले तीन दिनों तक हर प्रकार से विनय की। विनय की मर्यादा पूरी होते ही राम ने अपना अतुल पराक्रम प्रकट किया जिसे देख लक्ष्मण को सन्तोष हुआ। विनयवाली नीति उन्हें पसन्द न थी। एक बार, दो बार कह देना ही वे काफी समझते थे।
वाल्मीकि ने राम के वनवास की आज्ञा पर लक्ष्मण के महाक्रोध का वर्णन किया है। पर न जाने क्यों वहाँ तुलसीदास जी इसे बचा गए हैं।
चित्रकूट में अपनी कुटिलता का अनुभव करती हुई कैकेयी से राम बार बार इसलिए मिलते हैं कि उसे यह निश्चय हो जाय कि उनके मन में उस कुटिलता का ध्या न कुछ भी नहीं है और उसकी ग्लानि दूर हो। वे बार बार उसके मन में यह बात जमाना चाहते हैं कि जो कुछ हुआ, उसमें उसका कुछ भी दोष नहीं है। अपने साथ बुराई करनेवाले के हृदय को शान्त और शीतल करने की चिन्ता राम के सिवा और किसको हो सकती है? दूसरी बात यह ध्याान देने की है कि राम का यह शीलप्रदर्शन उस समय हुआ, जिस समय कैकेयी का अन्त:करण अपनी कुटिलता का पूर्ण अनुभव करने के कारण इतना द्रवीभूत हो गया था कि शील का संस्कार उस पर सब दिन के लिए जम सकता था। गोस्वामीजी के अनुसार हुआ भी ऐसा ही-
कैकेयी जौ लौं जियति रही।
तौं लौं बात मातु सो मुँह भरि भरत न भूलि कही।
मानी राम अधिक जननी तें, जननिहु गँस न गही।।
इतने पर भी कहीं गाँस रह सकती है?
गार्हस्थ्य जीवन के दाम्पत्य भाव के भीतर सबसे मनोहर वस्तु है उनकी 'एक भार्या' की मर्यादा। इसके कारण यहाँ से वहाँ तक जिस गौरवपूर्ण माधुर्य का प्रसार दिखाई देता है, वह अनिर्वचनीय है। इसकी उपयोगिता का पक्ष दशरथ के चरित्र पर विचार करते समय दिखाया जायेगा।
भक्तों को सबसे अधिक वश में करनेवाला राम का गुण है शरणागत की रक्षा। अत्यन्त प्राचीन काल से ही शरणागत की रक्षा करना भारतवर्ष में बड़ा भारी धर्म माना जाता है। इस विषय में भारत की प्रसिद्धि सारे सभ्य जगत् में थी। सिकन्दर से हारकर पारस का सम्राट दारा जब भाग रहा था, तब उसके तीन साथी सरदारों ने विश्वासघात करके उसे मार डाला। उनमें से एक शकस्थान (सीस्तान) का क्षत्राप वरजयन्त था। जब सिकन्दर ने दंड देने के लिए इन तीनों विश्वासघातियों का पीछा किया, तब वरजयन्त ने भारतवासियों के यहाँ आकर शरण ली और बच गया। प्राचीन यहूदियों के एक जत्थे का गान्धार और दक्षिण में शरण पाना प्रसिद्ध है। इस्लाम की तलवार के सामने कुछ प्राचीन पारसी जब अपने आर्य धर्म की रक्षा के लिए भागे तब भारतवर्ष ही की ओर उनका ध्यानन गया; क्योंकि शरणागत की रक्षा यहाँ प्राण देकर की जाती थी। अपनी हानि के भय से शरणागत का त्याग बड़ा भारी पाप माना जाता है-
सरनागत कहँ जे तजहिं, निज अनहित अनुमानि।
ते नर पाँवर पाप मय, तिनहि बिलोकत हानि।।
शरणागत की रक्षा की चिन्ता रामचन्द्र के हृदय से दारुण शोक के समय में भी दूर न हुई। सामने पड़े हुए लक्ष्मण को देखकर वे विलाप कर रहे हैं-
मेरो सब पुरुषारथ थाको।
विपति बँटावन बंधु बाहु बिनु करौं भरोसो काको?
सुनु सुग्रीव! साँचहू मो सम फेरयो बदन बिधाता।
ऐसे समय समर-संकट हौं तज्यो लषन सो भ्राता।।
गिरि कानन जैहैं साखा मृग, हौं पुनि अनुज सँघाती।
ह्वैहै कहा बिभीषन की गति, रही सोच भरि छाती।।
राम के चरित्र की इस उज्ज्वलता के बीच एक धब्बा भी दिखाई देता है। वह है बालि को छिपकर मारना। वाल्मीकि और तुलसीदासजी दोनों ने इस धब्बे पर कुछ सफेद रंग पोतने का प्रयत्न किया है। पर हमारे देखने में तो यह धब्बा ही सम्पूर्ण रामचरित को उच्च आदर्श के अनुरूप एक कल्पना मात्र समझे जाने से बचाता है। यदि एक यह धब्बा न होता तो राम की कोई बात मनुष्य की सी न लगती और वे मनुष्यों के बीच अवतार लेकर भी मनुष्यों के काम के न होते। उनका चरित्र भी उपदेशक महात्माओं की केवल महत्तवसूचक फुटकर बातों का संग्रह होता, मानव जीवन की विशद अभिव्यक्ति सूचित करनेवाले सम्बद्ध काव्य का विषय न होता। यह धब्बा ही सूचित करता है कि ईश्वरावतार राम हमारे बीच हमारे भाईबन्धुव बनकर आए थे और हमारे ही समान सुखदु:ख भोगकर चले गए। वे ईश्वरता दिखाने नहीं आए थे, मनुष्यता दिखाने आए थे। भूलचूक या त्रुटि से सर्वथा रहित मनुष्यता कहाँ होती है? इसी एक धब्बे के कारण हम उन्हें मानव जीवन से तटस्थ नहीं समझते-तटस्थ क्या कुछ भी हटे हुए नहीं समझते हैं।
अब थोड़ा भरत के लोकपावन निर्मल चरित्र की ओर ध्याेन दीजिए। राम की वनयात्रा के पहले भरत के चरित्र की ऋंखला संघटित करनेवाली कोई बात हम नहीं पाते। उनकी अनुपस्थिति में ही राम के अभिषेक की तैयारी हुई, राम वन को गए। ननिहाल से लौटने पर ही उनके शीलस्वरूप का स्फुरण आरम्भ होता है। ननिहाल में जब दु:स्वप्न और बुरे शकुन होते हैं, तब वे माता पिता और भाइयों का मंगल मनाते हैं। कैकेयी के कुचक्र में अणुमात्र के योग के सन्देह की जड़ यहीं से कट जाती है। कैकेयी के मुख से पिता के मरण का संवाद सुन वे शोक कर ही रहे हैं कि राम के वनगमन की बात सामने आती है जिसके साथ अपना सम्बन्ध-नाम मात्र का सही-समझकर वे एकदम ठक हो जाते हैं। ऐसी बुरी बात के साथ सम्बन्ध जोड़नेवाली माता के रूप में नहीं दिखाई देती। थोड़ी देर के लिए उसकी ओर से मातृभाव हट सा जाता है। ऐसा उज्ज्वल अन्त:करण ऐसी घोर कालिमा की छाया का स्पर्श तक सहन नहीं कर सकता। यह छाया किस प्रकार हटे, इसी के यत्न में वे लग जाते हैं। हृदय का सन्ताप बिना शान्तिशील-समुद्र राम के सम्मुख हुए दूर नहीं हो सकता। वे चट विरह व्यथित पुरवासियों को लिए दिए चित्रकूट में जा पहुँचते हैं और अपना अन्त:करण भरी सभा में लोकादर्श राम के सम्मुख खोलकर रख देते हैं। उस आदर्श के भीतर उसकी निर्मलता देख वे शान्त हो जाते हैं और जिस बात से धर्म की मर्यादा रक्षित रहे, उसे करने की दृढ़ता प्राप्त कर लेते हैं।
भरत ने इतना सब क्या लोकलज्जावश किया? नहीं, उनके हृदय में सच्ची आत्मग्लानि थी, सच्चा सन्ताप था। यदि ऐसा न होता तो अपनी माता कैकेयी के सामने वे दु:ख और क्षोभ न प्रकट करते। यह आत्मग्लानि ही उनकी सात्विमक वृत्ति की गहनता का प्रमाण है। इस आत्मग्लानि के कारण का अनुसंधान करने पर हम उस तत्वो तक पहुँचते हैं जिसकी प्रतिष्ठा रामायण का प्रधान लक्ष्य है। आत्मग्लानि अधिकतर अपने किसी बुरे कर्म को सोचकर होती है। भरतजी कोई बुरी बात अपने मन में लाए तक न थे। फिर यह आत्मग्लानि कैसी? यह ग्लानि अपने सम्बन्ध में लोक की बुरी धारणा के अनुमान मात्र से उन्हें हुई थी। लोग प्राय: कहा करते हैं कि अपना मन शुद्ध है, तो संसार के कहने से क्या होता है? यह बात केवल साधना की ऐकान्तिक दृष्टि से ठीक है, लोकसंग्रह की दृष्टि से नहीं। आत्मपक्ष और लोकपक्ष दोनों का समन्वय रामचरित का लक्ष्य है। हमें अपनी अन्तर्वृत्ति भी शुद्ध और सात्विऔक रखनी चाहिए और अपने सम्बन्ध में लोक की धारणा भी अच्छी बनानी चाहिए। जिसका प्रभाव लोक पर न पड़े, उसे मनुष्यत्व का पूर्ण विकास नहीं कह सकते। यदि हम वस्तुत: सात्विपकशील हैं, पर लोग भ्रमवश या और किसी कारण हमें बुरा समझ रहे हैं, तो हमारी सात्विपकशीलता समाज के किसी उपयोग की नहीं। हम अपनी सात्विरकशीलता अपने साथ लिए चाहे स्वर्ग का सुख भोगने चले जायँ, पर अपने पीछे दस पाँच आदमियों के बीच दस पाँच दिन के लिए भी कोई शुभ प्रभाव न छोड़ जायँगे। ऐसे ऐकान्तिक जीवन का चित्रण जिसमें प्रभविष्णुता न हो, रामायण का लक्ष्य नहीं है। रामायण, भरत ऐसे पुण्यश्लोक को सामने करता है जिनके सम्बन्ध में राम कहते हैं-
मिटिहहिं पाप प्रपंच सब, अखिल अमंगल भार।
लोक सुजस, परलोक सुख, सुमिरत नाम तुम्हार।।
जिन भरत को अयश की इतनी ग्लानि हुई, जिनके हृदय से धर्म भाव कभी न हटा, उनके नाम के स्मरण से लोक में यश और परलोक में सुख दोनों क्यों न प्राप्त हों?
भरत के हृदय का विश्लेषण करने पर हम उसमें लोकभीरुता, स्नेहार्द्रता, भक्ति और धर्मप्रवणता का मेल पाते हैं! राम के आश्रम पर जाकर उन्हें देखते ही भक्तिवश 'पाहि! पाहि!' कहते हुए वे पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं। सभा के बीच में जब वे अपने हृदय की बात निवेदन करने खड़े होते हैं, तब भ्रातृस्नेह उमड़ आता है, बाल्यावस्था की बातें ऑंखों के सामने आ जाती हैं। इतने में ग्लानि आ दबाती है और वे पूरी बात भी नहीं कह पाते हैं-
पुलकि सरीर सभा भए ठाढ़े । नीरज नयन नेह जल बाढ़े।।
कहब मोर मुनिनाथ निबाहा । एहि तें अधिक कहौं मैं काहा।।
मैं जानौं निज नाथ सुभाऊ । अपराधिहुँ पर कोह न काऊ।।
मो पर कृपा सनेह बिसेखी । खेलत खुनिस न कबहूँ देखी।।
सिसुपन तें परिहरेउ न संगू । कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू।।
मैं प्रभु कृपा रीति जिय जोही । हारेहु खेल जितावहिं मोही।।
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कहेउ न बैन।
दरसन तृपित न आजु लगि प्रेम पियासे नैन।।
बिधि न सकेउ सहि मोर दुलारा । नीच बीच जननी मिस पारा।।
यहउ कहत मोहि आजु न सोभा। अपनी समुझि साधु सुचि को भा।।
मातु मंद, मैं साधु सुचाली । उर अस आनत कोटि कुचाली।।
फरइ कि कोदव बालि सुसाली । मुकुता प्रसव कि संबुक ताली।।
बिनु समझे निज अघ परिपाकू । जारेउँ जाय जननि कहि काकू।।
हृदय हेरि हारेउँ सब ओरा । एकहि भाँति भलेहि भल मोरा।।
गुरु गोसाइँ, साहिब सिय रामू । लागत मोहिं नीक परिनामू।।
भरत को इस बात पर ग्लानि होती है कि मैं आप अच्छा बनकर माता को भलाबुरा कहने गया। 'अपनी समुझि साधु सुचि को भा?' जिसे दस भले आदमी-पवित्र और सज्जन लोग, जड़ और नीच नहीं-साधु और शुचि मानें, उसी की साधुता और शुचिता किसी काम की है। इस ग्लानि के दु:ख से उद्धार पाने की आशा एक इसी बात से होती है कि गुरु और स्वामी वशिष्ठ तथा राम ऐसे ज्ञानी और सुशील हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह आशा ऐसे दृढ़ आधार पर थी कि पूर्ण रूप से फलवती हुई। भरत केवल लोक की दृष्टि में पवित्र ही न हुए, लोक को पवित्र करनेवाले भी हुए। राम ने उन्हें धर्म का साक्षात् स्वरूप स्थिर किया और स्पष्ट कह दिया कि-
भरत! भूमि रह राउरि राखी।
अब सत्य और प्रेम के विरोध में दोनों की एक साथ रक्षा करनेवाले परम यशस्वी महाराज दशरथ को लीजिए। वे राम को वनवास देने में सत्य की रक्षा और प्रतिज्ञा का पालन हृदय पर पत्थर रखकर-उमड़ते हुए स्नेह और वात्सल्य भाव को दबाकर-करते हुए पाए जाते हैं। इसके उपरान्त हम उन्हें स्नेह के निर्वाह में तत्पर और प्रेम की पराकाष्ठा को पहुँचते हुए पाते हैं। सत्य की रक्षा उन्होंने प्रिय पुत्र को बनवास देकर और स्नेह की रक्षा प्राण देकर की। यही उनके चरित्र की विशेषता है-यही उनके जीवन का महत्तव है। नियम और शील धर्म के दो अंग हैं। नियम का सम्बन्ध विवेक से है और शील का हृदय से। सत्य बोलना, प्रतिज्ञा का पालन करना नियम के अन्तर्गत है। दया, क्षमा, वात्सल्य, कृतज्ञता आदि शील के अन्तर्गत है। नियम के लिए आचरण ही देखा जाता है, हृदय का भाव नहीं देखा जाता। केवल नाम की इच्छा रखनेवाला पाखंडी भी नियम का पालन कर सकता है-और पूरी तरह कर सकता है। पर शील के लिए सात्विाक हृदय चाहिए। कभी कभी ऐसी विकट स्थिति आ पड़ती है कि एक को राह देने से दूसरे का उल्लंघन अनिवार्य हो जाता है। किसी निरपराध को फाँसी हुआ चाहती है। हम देख रहे हैं कि थोड़ा सा झूठ बोल देने से उसकी रक्षा हो सकती है। अत: एक ओर तो दया हमें झूठ बोलने की प्रेरणा कर रही है; दूसरी ओर 'नियम' हमें ऐसा करने से रोक रहा है। इतने भारी शीलसाधन के सामने तो हमें अवश्य नियम शिथिल कर देना पड़ता है। पर जहाँ शीलपक्ष इतना ऊँचा नहीं है, वहाँ उभयपक्ष की रक्षा का मार्ग ढूँढ़ना पड़ेगा।
दशरथ के सामने दोनों पक्ष प्राय: समान थे-बल्कि यों कहिए कि नियम की ओर का पलड़ा कुछ झुकता हुआ था। एक ओर तो सत्य की रक्षा थी, दूसरी ओर प्राण से भी अधिक प्रिय पुत्र का स्नेह। पर पुत्रवियोग का दु:ख दशरथ के ही ऊपर पड़नेवाला था (कौशल्या के दु:ख को भी परिजन का दु:ख समझकर दशरथ का ही दु:ख समझिए) इससे अपने ऊपर पड़नेवाले दु:ख के डर से सत्य का त्याग उनसे न करते बना। उन्होंने सत्य की रक्षा की, फिर अपने ऊपर पड़नेवाले दु:ख की परमावस्था को पहुँचकर स्नेह की भी रक्षा की। इस प्रकार सत्य और स्नेह, नियम और शील दोनों की रक्षा हो गई। रामचन्द्रजी भरत को समझाते हुए इस विषय को स्पष्ट करके कहते हैं-
राखेउ राउ सत्य मोहि त्यागी। तनु परिहरेउ प्रेम पनु लागी।।
शील और नियम, आत्मपक्ष और लोकपक्ष के समन्वय द्वारा धर्म की यही सर्वतोमुख रक्षा रामायण का गूढ़ रहस्य है। वह धर्म के किसी अंग को नोचकर दिखानेवाला ग्रन्थ नहीं है। यह देखकर बार बार प्रसन्नता होती है कि आर्य धर्म का यह सम्पुट हिन्दी कवियों में से एक ऐसे महात्मा के हाथ में पड़ा जिसमें उसके उद्धाटन की सामर्थ्य थी। देखिए, किस प्रकार उन्होंने राम के मुख से उपर्युक्त विवेचन का सार चौपाई के दो चरणों में ही कहला दिया।
रामायण की घटना के भीतर तो दशरथ का यह महत्तव ही सामने आता है। पर कथोपकथन रूप में जो कविकल्पित चित्रण है, उसमें वाल्मीकि और तुलसीदास दोनों ने दशरथ की अन्तर्वृत्ति का कुछ और भी आभास दिया है। विश्वामित्रा जब बालक राम लक्ष्मण को माँगने लगे, तब दशरथ ने देने में बहुत आगापीछा किया। वे सब कुछ देने को तैयार थे, पर पुत्रों को देना नहीं चाहते थे। वृद्धावस्था में पाए हुए पुत्रों पर इतना स्नेह स्वाभाविक ही था! वे मुनि से कहते हैं-
चौथेपन पाएउँ सुत चारी । बिप्र बचन नहिं कहेउ बिचारी।।
माँगहु भूमि धोनु धन कोसा । सरबस देउँ आजु सहरोसा।।
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं । सोउ मुनि! देउँ निमिष एक माहीं।।
सब सुत प्रिय प्रान की नाईं । राम देत नहिं बनइ गोसाईं।।
इससे प्रकट होता है कि उनका वात्सल्य स्नेह ऐसा न था कि वे साधारण कारणवश उसकी प्रेरणा के विरुद्ध कुछ करने जाते। मुनि के साथ जो उन्होंने बालकों को कर दिया, वह एक तो शाप के भय से, दूसरे उनकी अस्त्राशिक्षा की आशा से।
उस वृद्धावस्था में वे अपनी छोटी रानी के वश में थे, यह उस घबराहट से प्रकट होता है जो उसका कोप सुनकर उन्हें हुई। वे उसके पास जाकर कहते हैं-
अनहित तोर प्रिया केहि कीन्हा । केहि दुइ सिर, केहि जम चह लीन्हा।।
कहु केहि रंकहि करहुँ नरेसू । कहु केहि नृपहिं निकासउँ देसू।।
जानसि मोर सुभाउ बरोरू । मन तब आनन चंद चकोरू।।
प्रिया! प्रान, सुत, सरबस मोरे । परिजन प्रजा सकल बस तोरे।।
प्राण, पुत्र, परिजन, प्रजा सबको कैकेयी के वश में कहना स्वयं राजा का कैकेयी के वश में होना अभिव्यंजित करता है। एक स्त्री के कहने से किसी मनुष्य को यमराज के यहाँ भेजने के लिए, किसी दरिद्र को राजा बनाने के लिए, किसी राजा को देश से निकालने के लिए तैयार होना स्त्रौण होने का ही परिचय देना है। कैकेयी के सामने जाने पर न्याय और विवेक थोड़ी देर के लिए विश्राम ले लेते थे। वाल्मीकिजी ने भी इसी प्रकार की बातें उस अवसर पर दशरथ से कहलाई हैं।
दशरथ के हृदय की इस दुर्बलता के चित्र के भीतर प्रचलित दाम्पत्य-विधान का वह दोष भी झलकता है जिसके पूर्ण परिहार का पथ आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्ताम भगवान् रामचन्द्र ने अपने आचरण द्वारा प्रदर्शित किया। आधी उम्र तक विवाह पर विवाह करते जाने का परिणाम अन्त में एक ऐसा बेमेल जोड़ा होता है जो सब मामलों का मेल बिगाड़ देता है और जीवन किरकिरा हो जाता है। एक में तो प्रेम रहता है, दूसरे में स्वार्थ। अत: एक तो दूसरे के वश में हो जाता है और दूसरा उसके वश के बाहर रहता है। एक तो प्रेमवश दूसरे के सुखसन्तोष के प्रयत्न में रहा करता है, दूसरा उसके सुखसन्तोष की वहीं तक परवा रखता है जहाँ तक उससे स्वार्थसाधन होता है। राम ने 'एक भार्या' की मर्यादा द्वारा जिस प्रकार प्रेम के अपूर्व माधुर्य और सौन्दर्य का विकास दिखाया, उसी प्रकार अपने पिता की परिस्थिति से भिन्न अपनी परिस्थिति भी लोक को दिखाई। कैकेयी ने एक बार दशरथ के साथ युद्धस्थल में जाकर पहिए में उँगली लगाई थी और उसके बदले में दो वरदान लिए थे, तो सीता चौदह वर्ष राम के साथ जंगलों पहाड़ों में मारी मारी फिरीं, और उस मारे मारे फिरने को ही उन्होंने अपने लिए बड़ा भारी वरदान समझा। अन्त में जब राजधर्म की विकट समस्या सामने आती है, तब हम राम को ठीक उसका उलटा करने में समर्थ पाते हैं जो दशरथ ने कैकेयी को प्रसन्न करने के लिए कहा था। दशरथ एकमात्र कैकेयी को प्रसन्न करने के लिए किसी राजा को बिना अपराध देश से निकालने के लिए तैयार हुए थे। पर राम प्रजा को प्रसन्न करने के लिए बिना किसी अपराध के प्राणों से भी प्रिय सीता को निकालने को तैयार हुए। दशरथ अपनी स्त्रीक के कहने से किसी राजा तक को देश से निकालते, पर राम ने एक धोबी तक के कहने से अपनी स्त्रीए को निकाल दिया। इतने पर भी सीता और राम में जो परस्पर गूढ़ प्रेम था, उसमें कुछ भी अन्तर न पड़ा। सीता ने स्वामी के इस व्यवहार का कारण राजधर्म की कठोरता ही समझा। यह नहीं समझा कि राम का प्रेम मेरे ऊपर कम हो गया।
सात्वि।क, राजस और तामस इन तीन प्रकृतियों के अनुसार चरित्रविभाग करने से दो प्रकार के चित्रण हम गोस्वामीजी में पाते हैं-आदर्श और सामान्य। आदर्श चित्रण के भीतर सात्विकक और तामस दोनों आते हैं। राजस को हम सामान्य चित्रण के भीतर ले सकते हैं। इस दृष्टि से सीता, राम, भरत, हनुमान और रावण आदर्श चित्रण के भीतर आवेंगे तथा दशरथ, लक्ष्मण, विभीषण, सुग्रीव, कैकेयी सामान्य चित्रण के भीतर। आदर्श चित्रण् में हम या तो यहाँ से वहाँ तक सात्वि क वृत्ति का निर्वाह पावेंगे या तामस का। प्रकृति भेदसूचक अनेकरूपता उसमें न मिलेगी। सीता, राम, भरत, हनुमान ये सात्विहक आदर्श हैं; रावण तामस आदर्श है।
सात्वि;क आदर्शों का वर्णन हो चुका। हनुमान के सम्बन्ध में इतना समझ रखना आवश्यक है कि वे सेवक के आदर्श हैं। सेव्यसेवक भाव का पूर्ण स्फुरण उनमें दिखाई पड़ता है। बिना किसी प्रकार के पूर्व परिचय के राम को देखते ही उनके शील, सौन्दर्य और शक्ति के साक्षात्कार मात्र पर मुग्ध होकर पहले पहल आत्मसमर्पण करनेवाले भक्तिराशि हनुमान ही हैं। उनके मिलते ही मानो भक्ति के आश्रय और आलम्बन दोनों पक्ष पूरे हो गए और भक्ति की पूर्ण स्थापना लोक में हो गई। इसी रामभक्ति के प्रभाव से हनुमान सब रामभक्तों की भक्ति के अधिकारी हुए।
सेवक में जो जो गुण चाहिए, सब हनुमान में लाकर इकट्ठे कर दिए गए हैं। सबसे आवश्यक बात तो यह है कि स्वामी के कार्यों के लिए, सब कुछ करने के लिए उनमें निरलसता और तत्परता हम हर समय पाते हैं। समुद्र के किनारे सब बन्दर बैठे समुद्र पार करने की चिन्ता कर ही रहे थे, अंगद फिरने का संशय करके आगा-पीछा कर ही रहे थे कि वे चट समुद्र लाँघ गए। लक्ष्मण को जब शक्ति लगी तब वैद्य को भी चट हनुमान् ही लाए और औषधि के लिए भी पवन वेग से वे ही दौड़े। सेवक को अमानी होना चाहिए। प्रभु के कार्यसाधन में उसे अपने मान- अपमान का ध्याकन न रखना चाहिए। अशोक वाटिका में से पकड़कर राक्षस उन्हें रावण के सामने ले जाते हैं। रावण उन्हें अनेक दुर्वाद कहकर हँसता है। इस पर उन्हें कुछ भी क्रोध नहीं आता। अंगद की तरह 'हैं तव दसन तोरिबे लायक' वे नहीं कहते हैं। ऐसा करने से प्रभु के कार्य में हानि हो सकती थी। अपने मान का ध्याेन करके स्वामी का कार्य बिगाड़ना उनका कर्तव्य नहीं। वे रावण से साफ कहते हैं-
मोहिं न कछु बाँधो कर लाजा। कीन्ह चहौं निज प्रभु कर काजा।।
जिस प्रकार राम राम थे, उसी प्रकार रावण रावण था। वह भगवान् को उन ललकारनेवालों में से था जिसकी ललकार पर उन्हें आना पड़ा था। बालकांड में गोस्वामीजी ने पहले उसके उन अत्याचारों का वर्णन करके, जिनसे पीड़ित होकर दुनिया पनाह माँगती थी, तब राम का अवतार होना कहा है। वह उन राक्षसों का सरदार था जो गाँव जलाते थे, खेती उजाड़ते थे, चौपाये नष्ट करते थे, ऋषियों को यज्ञ आदि नहीं करने देते थे। किसी की कोई अच्छी चीज देखते थे तो छीन लेते थे और जिनके खाए हुए लोगों की हव्यिों से दक्खिन का जंगल भरा पड़ा था। चंगेजखाँ और नादिरशाह तो मानो लोगों को उसका कुछ अनुमान कराने के लिए आए थे। राम और रावण को चाहे अहुरमज्द और अद्दमान समझिए, चाहे खुदा और शैतान। फर्क इतना ही समझिए कि शैतान और खुदा की लड़ाई का मैदान इस दुनिया से जरा दूर पड़ता था और राम रावण की लड़ाई का मैदान यह दुनिया ही थी।
ऐसे तामस आदर्श में धर्म के लेश का अनुसन्धान निष्फल ही समझना पड़ेगा। पर हमारे यहाँ की पुरानी अक्ल के अनुसार धर्म के कुछ आधार बिना कोई प्रताप और ऐश्वर्य के साथ एक क्षण नहीं टिक सकता, रावण तो इतने दिनों तक पृथ्वी पर रहा। अत: उसमें धर्म का कोई न कोई अंग अवश्य था। वह अंग अवश्य था जिससे शक्ति और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। उसमें कष्टसहिष्णुता थी। वह बड़ा भारी तपस्वी था। उसकी धीरता में भी कोई सन्देह नहीं है। भाई, पुत्र, जितने कुटुम्बी थे, सबके मारे जाने पर भी वह उसी उत्साह के साथ लड़ता रहा। अब रहे धर्म के सत्य आदि और अंग जो किसी वर्ग की रक्षा के लिए आवश्यक होते हैं। उनका पालन राक्षसों के बीच वह अवश्य करता रहा होगा। उसके बिना राक्षस कुल रह कैसे सकता था? पर धर्म का पूर्ण भाव लोकव्यापकत्व में है। यों तो चोर और डाकू भी अपने दल के भीतर परस्पर के व्यवहार में धर्म बनाए रखते हैं। लोकधर्म वह है जिसके आचरण से पहले तो किसी को दु:ख न पहुँचे; यदि पहुँचे भी तो विरुद्ध आचरण करने से जितने लोगों को पहुँचता है, उससे कम लोगों को। सारांश यह कि रावण में केवल अपने लिए और अपने बल के लिए शक्ति अर्जित करने भर को धर्म था, समाज में उस शक्ति का सदुपयोग करनेवाला धर्म नहीं था। रावण पंडित था, तपस्वी था, राजनीतिकुशल था, धीर था, वीर था; पर सब गुणों का उसने दुरुपयोग किया। उसके मरने पर उसका तेज राम के मुख में समा गया। सत् से निकल कर जो शक्ति असत्रूप हो गई थी, वह फिर सत् में विलीन हो गई।
अब सामान्य चित्रण लीजिए। राम के साथ लक्ष्मण का शीलनिरूपण कुछ हो चुका है। यहाँ केवल यही कहना है कि उनकी क्षमता ऐसी न थी जो करुणा या दया के गहरे अवसरों पर भी कोमलता या आर्द्रता न आने दे। सीता को जब वे वाल्मीकि के आश्रम पर छोड़ने गए थे, तब वे करुणाभाव में मग्न थे। उनके मुँह से कोई बात न निकली थी। वे राम के बड़े भारी आज्ञाकारी थे। वे अपने हृदय के वेग को सहकर भी उनकी आज्ञा का पालन करते थे। क्रोध उन्हें कटु वचन के लिए उभारता था, पर राम का रुख देखते ही वे चुप हो जाते थे। सीता के वनवास की कठोर आज्ञा राम के मुख से सुनते ही वे सूख गए, करुणा से विह्नल हो गए। पर जी कड़ा करके वे सीता को पहुँचा आए। आज्ञाकारिता के लिए वे आदर्श हुए। पर यह नियम भी ऐसे अवसरों पर उन्होंने शिथिल कर दिया जब आज्ञा के पालन में उन्होंने अधिक हानि देखी और उल्लंघन का परिणाम केवल अपने ही ऊपर देखा। इन सब बातों के विचार से उनका चरित्र सामान्य के भीतर ही रखा है।
गृहनीति की दृष्टि से विभीषण शत्रु से मिलकर अपने भाई और कुल का नाश करनेवाले दिखाई पड़ते हैं पर और विस्तीर्ण क्षेत्रों के भीतर लेकर देखने से उनके इस स्वरूप की कलुषता प्राय: नहीं के बराबर हो जाती है। गोस्वामीजी ने इसी विस्तृत दृष्टि से उनके चरित्र का चित्रण किया है। विभीषण रामभक्त थे, अर्थात् सात्विसक गुणों पर श्रद्धा रखनेवाले थे। वे राम के लोकविश्रुत शील, शक्ति और सौन्दर्य पर मुग्ध थे। भाई के राज्य के लोभ के कारण वे राम से नहीं मिले थे। इस बात का निश्चय उनके बार बार तिरस्कृत होने पर भी रावण को समझाते जाने से हो जाता है। यदि उन्हें राज्य का लोभ होता तो वे एक ओर तो रावण को युद्ध के लिए उत्तोजित करते, दूसरी ओर भीतर से शत्रु की सहायता करते। पर वे रावण की लात खाकर खुल्लमखुल्ला राम की शरण में यह कहते हुए गए-
राम सत्य संकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब, जाउँ, देहु जनि खोरि।।
लोभवश न सही, शायद विभीषण भाई के व्यवहार से रूठकर क्रोधवश राम से जा मिले हों। इस सन्देह का निवारण रावण के लात मारने पर विभीषण का कुछ भी क्रोध न करना दिखाकर गोस्वामीजी ने किया है। लात मारने पर विभीषण इतना ही कहते हैं-
तुम पितु सरिस भलेहिं मोहिं मारा। राम भजे हित, नाथ तुम्हारा।।1
इस स्थल पर गोस्वामीजी का चरित्रनिर्वाह कौशल झलकता है। यदि यहाँ थोड़ी
1. वाल्मीकि का वर्णन भी इसी प्रकार है।
सी भी असावधानी हो जाती, विभीषण क्रोध करते हुए दिखा दिए जाते, तो जिस रूप में विभीषण का चरित्र वे दिखलाना चाहते थे, वह बाधित हो जाता। अधिकतर यही समझा जाता कि क्रोध के आवेश में विभीषण ने रावण का साथ छोड़ा। कवि ने विभीषण को साधु प्रकृति का बनाया है। हरी हुई सीता को लौटाने के बदले रावण का राम से लड़ने के लिए तैयार होना असाधुता की चरम सीमा थी, जिसे विभीषण की साधुता न सह सकी, गोस्वामीजी का पक्ष यह है। विभीषण की साधुता औसत दरजे की थी। वह इतनी बढ़ी नहीं थी कि राम द्वारा दिए हुए भाई के राज्य की ओर से वे उदासीनता प्रकट करते।
सुग्रीव का चरित्र तो और भी औसत दरजे का है; न उनकी भलाई ही किसी भारी हद तक पहुँची हुई दिखाई देती थी, न बुराई ही। राम के साथ उन्होंने मैत्री की और राम का कुछ कार्यसाधन करने के पहले ही बड़े भाई का राज्य पाया। पर जैसा कि साधारणत: मनुष्य का स्वभाव (बन्दर का स्वभाव कहने से और कुछ कहते ही नहीं बनेगा) होता है, वे सुखविलास में फँसकर राम का कार्य भूल गए। जब हनुमान ने चेताया, तब वे घबराए और अपने कर्तव्य में दत्ताचित्त हुए।
अब तक जिस चित्रण का वर्णन हुआ है, वह एक व्यक्ति का चित्रण है। इसी प्रकार किसी समुदायविशेष की प्रकृति का भी चित्रण होता है; जैसे स्त्रियों की प्रकृति का, बालकों की प्रकृति का। स्त्रियों की प्रकृति की जैसी तद्रूप छाया हम 'मानस' के अयोध्याककांड में देखते हैं, वैसी छाया के प्रदर्शन का प्रयत्न तक हम और किसी हिन्दी कवि में नहीं पाते। नीची श्रेणी की स्त्रियों के सामने बहुत कम प्रकार के विषय आते हैं। पर मनुष्य का मन ऐसी वस्तु है कि अपनी प्रवृत्ति के अनुसार लगे रहने के लिए उसे कुछ न कुछ चाहिए। वह खाली नहीं रह सकता। इससे वे अपने रागद्वेष के अनेक आधार यों ही, बिना कारण, ढूँढ़कर खड़ा करती रहती हैं। यदि वे चार आदमियों के बीच रख दी जायँ, तो हम बहुत थोड़े दिनों में देखेंगे कि कुछ तो उनके अनुराग के पात्र हो गए हैं और कुछ द्वेष के। मूर्ख स्त्रियों की यह विशेषता ध्याकन देने योग्य है। अपने लिए राग और द्वेष का पात्र चुन लेने पर वे अपने वाग्विलास और भावपरिपाक के लिए राग और सहयोगी ढूँढ़ती हैं। मन्थरा का इसी अवस्था में हम पहले पहल दर्शन पाते हैं। न जाने उसे क्यों कौशल्या अच्छी नहीं लगती, कैकेयी अच्छी लगती है।1 राम के अभिषेक की तैयारी देखकर वह कुढ़ जाती है और मुँह लटकाए कैकेयी के पास आ खड़ी होती है। कैकेयी को उसके अनुराग का पताचाहे रहा हो, पर अभी तक द्वेष का पता बिलकुल नहीं है। वह मुँह लटकानेका कारण
1. वाल्मीकिजी ने उसे 'कैकेयी के मातृकुल की दासी' कहकर कारण का पूरा संकेत कर दिया है। इस प्रकार की दासी का व्यवहार घर के और लोगों के साथ कैसा रहता है, यह हिन्दू गृहस्थ मात्र जानते हैं। पर गोस्वामीजी ने कारण का संकेत न देखकर उसकी प्रवृत्ति को मूर्ख स्त्रियों की सामान्य प्रवृत्ति नारिचरित-के अन्तर्गत रखा है।
पूछती है। तब-
उतरु देइ नहिं, लेइ उसासू। नारिचरित करि ढारइ ऑंसू।।
हँसि कह रानि गाल बड़ तोरे। दीन्ह लखन सिख अस मन मोरे।।
तबहुँ न बोल चेरि बड़ि पापिनि। छाँड़इ स्वास कारि जनु साँपिनि।।
उसकी इस मुद्रा से प्रकट होता है कि उसने अपने द्वेष का आभास इसके पहले कैकेयी को नहीं दिया था, यदि दिया भी रहा होगा, तो बहुत कम। जल्दी उत्तर न देने से यह सूचित होता है कि जो बात वह कहना चाहती है, वह कैकेयी के लिए बिलकुल नई है, अत: उसे सहसा नहीं कह सकती। किस ढंग से कहे, यह सोचने में उसे कुछ काल लग जाता है। इसके अतिरिक्त किसी के सामने अब तक न प्रकट किए गए दु:ख के वेग का भार भी दबाए हुए है। इतने में 'गाल बड़ तोरे' इस वाक्य से जी की बात धीरे धीरे बाहर करने का एक रास्ता निकलता है। वह अपनी वही मुद्रा कायम रखती हुई कहती है-
कत सिख देइ हमहिं कोउ माई। गाल करब केहि कर बलु पाई।।
'किसका बल पाकर गाल करूँगी?' इसका मतलब यही है कि मुझे एक तुम्हारा ही बल ठहरा-मैं तुम्हें चाहती हूँ और तुम मुझे चाहती हो सो मैं देखती हूँ कि तुम्हारी यहाँ कोई गिनती ही नहीं है। क्रोध, द्वेष आदि के उद्वार के इस प्रकार क्रम क्रम से निकालने की पटुता स्त्रियों में स्वाभाविक होती है, क्योंकि पुरुष के दबाव में रहने के कारण तथा अधिक लज्जा, संकोच के कारण ऐसे भावों के वेग को एकबारगी निकालने का अवसर उन्हें कम मिलता है।
रानी पूछती है कि 'सब लोग कुशल से तो हैं?' इसका उत्तर फिर उसी प्रणाली का अनुसरण करती हुई वह देती है-
रामहिं छाँड़ि कुशल केहिआजू । जिनहिं जनेसु देइ जुवराजू।।
भएउ कौसिलहि बिधि अति दाहिन । देखत गरब रहत उर नाहिन।।
किसी को क्रमश: अपनी भावपद्धति पर लाना, थोड़ा बहुत जिसे कुछ भी बात करना आता है, उसे भी आता है। जिस प्रकार अपनी विचारपद्धति पर लाने के लिए क्रमश: प्रमाण पर प्रमाण देते जाने की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार क्रमश: किसी के हृदय को किसी भावपद्धति पर लाने के लिए उसके अनुकूल मनोविकार उत्पन्न करते चलने की आवश्यकता होती है। राम के प्रति द्वेष भाव उत्पन्न करने के लिए मन्थरा सपत्नी को सामने रखती है। जिसके गर्व और अभिमान को न सह सकना स्त्रियों में स्वाभाविक होता है। सपत्नी के घमंड की बात जी में आने पर कहाँ तकर् ईर्ष्या् न उत्पन्न होगी? इस ईर्ष्यात के साथ भरत के प्रति वात्सल्य भाव भी तो कुछ जगाना चाहिए। इस विचार से मन्थरा कहती है-
पूत बिदेसु न सोच तुम्हारे। जानति हहु बस नाहु हमारे।।
इतना होने पर भी राजा की कुटिलता के निश्चय द्वारा जब तक राजा के प्रति कुछ क्रोध उत्पन्न न होगा, तब तक कैकेयी में आवश्यक कठोरता और दृढ़ता कहाँ से आवेगी? कैकेयी के मन में यह बात जम जानी चाहिए कि भरत जानबूझकर हटा दिए गए हैं। इसके लिए ये वचन हैं-
नींद बहुत प्रिय सेज तुराई। लखहु न भूप कपट चतुराई।।
इस पर कैकेयी जब कुछ फटकारती है और बार बार उसके खेद का कारण पूछती है, तब वह ऐसा खेद प्रकट करती है जैसा उसको होता है जो किसी से उसके परम हित की बात कहना चाहता है, पर वह उसे केवल तुच्छ या छोटा समझकर ध्यािन नहीं देता। उसके वचन ठीक वे ही हैं जो ऐसे अवसर पर स्त्रियों के मुख से निकलते हैं।
एकहिं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ कर दूजी।।
फोरइ जोग कपार अभागा। भलेउ कहत दुख रउरेहिं लागा।।
कहहिं झूँठ फुर बात बनाई। ते प्रिय तुम्हहिं, करुइ मैं माई।।
हमहुँ कहब अब ठकुरसोहाती। नाहिं त मौन रहब दिन राती।।
करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा। बवा सो लुनिय, लहिय जो दीन्हा।।
मन्थरा अब अपने उस भाग्य को दोष दे रही है जिसके कारण वह ऐसी कुरूप हुई, दासी के घर उसका जन्म हुआ, उसकी बात की कोई कुछ कद्र ही नहीं करता, वह अच्छा भी कहती है तो लोगों को बुरा लगता है। विश्वास न करनेवाले के सामनेकुछ तटस्थ होकर अपने भाग्य का दोष देने लगना विश्वास उत्पन्न कराने का एक ऐसाढंग है जिसे कुछ लोग विशेषत: स्त्रियाँ, स्वभावत: काम में लाती हैं। इससे श्रोता का ध्या न उसके खेद की सच्चा:ई पर चला जाता है और फिर क्रमश: उसकी बातों कीओर आकर्षित होने लगता है। इस खेद की व्यंजना प्राय: 'उदासीनता' के द्वारा की जाती है; जैसे 'हमें क्या करना है? हमने आपके भले के लिए कहा था। कुछ स्वभावही ऐसा पड़ गया है कि किसी का अहित देखा नहीं जाता।' मन्थरा के कहे हुएखेदव्यंजक उदासीनता के ये शब्द सुनते ही झगड़ा लगानेवाली स्त्री का रूप सामने खड़ा हो जाताहै-
कोउ नृप होइ हमहिं का हानी । चेरि छाँड़ि अब होब कि रानी।।
जारइ जोग सुभाउ हमारा । अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।।
अब तो कैकेयी को विश्वास हो रहा है, यह देखते ही वह राम के अभिषेक से होनेवाली कैकेयी की दुर्दशा का चित्र खींचती है और यह भी कहती जाती है कि राम का तिलक होना मुझे अच्छा लगता है, राम से मुझे कोई द्वेष नहीं है; पर आगे तुम्हारी क्या दशा होगी, यही सोचकर मुझे व्याकुलता होती है-
रामहिं तिलक कालि जो भयऊ । तुम कहँ बिपति बीज बिधि बयऊ।।
रेख ख्रचाइ कहहुँ बल भाखी । भामिनि भइहु दूध कै माखी।।
जौं सुत सहित करहु सेवकाई । तौ घर रहहु, न आन उपाई।।
इस भावी दृश्य की कल्पना से भला कौन स्त्री क्षुब्धा न होगी? किसी बात पर विश्वास करने या न करने की भी मनुष्य की रुचि नहीं होती है। जिस बात पर विश्वास करने की मनुष्य की रुचि नहीं होती, उसके प्रमाण आदि वह सुनता ही नहीं; सुनता भी है तो ग्रहण नहीं करता। मन्थरा ने पहले अपनी बात पर विश्वास करने की रुचि भिन्न भिन्न मनोविकारों के उद्दीपन द्वारा कैकेयी में उत्पन्न की। जब यह रुचि उत्पन्न हो गई, तब स्वभावत: कैकेयी का अन्त:करण भी उसके समर्थन में तत्पर हुआ-
सुनु मंथरा बात फुर तोरी । दहिनि ऑंख नित फरकइ मोरी।।
दिन प्रति देखेउँ राति कुसपने । कहौं न तोहिं मोहबस अपने।।
काह करौं सखि! सूध सुभाऊ । दाहिन बाम न जानौं काऊ।।
इस प्रकार जो भावी दृश्य मन में जम जाता है, उसमें कैकेयी के हृदय में घोर नैराश्य उत्पन्न होता है। वह कहती है-
नैहर जनमु भरब बरु जाई । जियत न करब सवति सेवकाई।।
अरि बस दैव जिआवत जाही । मरनु नीक तेहि जीव न चाही।।
इस दशा में मन्थरा उसे सँभालती है और कार्य में तत्पर करने के लिए आशा बँधाती हुई उत्साह उत्पन्न करती है-
जे राउर अति अनभल ताका । सोइ पाइहि यह फलु परिपाका।।
पूछेउँ गुनिन्ह, रेख तिन्ह खाँची । भरत भुआल होहिं यह साँची।।
इस प्रसंग के चित्रण को देख यह समझा जा सकता है कि गोस्वामीजी ने मानव अन्त:करण के कैसे कैसे रहस्यों का उद्धाटन किया है। ऐसी गूढ़ उद्भावना बिना सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि के नहीं हो सकती।
बालकों की प्रवृत्ति का चित्रण हम परशुराम और लक्ष्मण के संवाद में
पाते हैं। अकारण चिढ़नेवालों को चिढ़ाना बालकों के स्वभाव के अन्तर्गत होता
है। चिड़चिड़े लोगों की दवा करने का भार मानो समाज ने बालकों को ही दे
रखा है। राम के विनय करने पर भी परशुराम को ज्योंही लक्ष्मण चिढ़ते देखते
हैं, त्योंही उनकी बाल-प्रवृत्ति जाग्रत हो जाती है। लक्ष्मण का स्वभाव उग्र था,
इससे इस कौतुक के बीच बीच में क्रोध का भी आभास हमें मिलता है। परशुराम की आकृति जब अत्यन्त भीषण और वचन अत्यन्त कटु हो जाते हैं, तब
लक्ष्मण के मुँह से व्यंग्य वचन न निकलकर अमर्ष के उग्र शब्द निकलने लगते
हैं। परशुराम जब कुठार दिखाने लगे, तब लक्ष्मण को भी क्रोध आ गया और
वे बोले-
भृगुवर! परसु देखावहु मोही। बिप्र विचारि बचेउ नृप द्रोही।।
मिले न कबहुँ सुभट रन गाढ़े। द्विज देवता घरहिं के बाढ़े।।
गोस्वामीजी ने लक्ष्मण की इस बाल प्रवृत्ति को लोकव्यवहार से बिलकुल अलग नहीं रखा है, इसे परशुराम की क्रोधशीलता की प्रतियोगिता में रखा है। यह भी अपना लोकोपयोगी स्वरूप दिखा रही है। यदि परशुराम मुनियों की तरह आते, जो शान्त और क्षमाशील होते हैं, तो लक्ष्मण को अवसर न मिलता। रामचन्द्रजी कहते हैं-
जौ तुम अवतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं।।
छमहु चूक अनजानत केरी। चहिय बिप्र उर कृपा घनेरी।।