शीशे का दिल लिए अकिरा का स्मरण / जयप्रकाश चौकसे

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शीशे का दिल लिए अकिरा का स्मरण
प्रकाशन तिथि : 26 मई 2020


कोरोना के कारण सबसे अधिक मौतें अमेरिका में हुई हैं और जापान में सबसे कम। अमेरिका के सदर गोल्फ खेल रहे हैं। जब रोम जल रहा था तब नीरो अपने आंसुओं को बीकर में एकत्र कर रहा था। राजा और रियाया के आंसुओं के मोल में अंतर होता है। अवाम के आंसुओं में नमक अधिक होता है। एकड़ों में फैला गोल्फ का मैदान सबसे अधिक पानी मांगता है। खिलाड़ी के पीछे सेवक चलता है। आवश्यकता अनुसार स्टिक देना उसका काम है। कहते हैं कि पानी पर अधिकार के लिए अगला महायुद्ध हो सकता है।

जापान के नागरिकों का कर्तव्य बोध ऐसा है कि समाज के हित में काम करने के लिए उन्हें सरकारी निर्देश का इंतजार नहीं करना होता है। जापान में लॉकडाउन नहीं हुआ, अवाम अपने मन की बात सुनती है। ज्ञातव्य है कि दूसरे विश्व युद्ध में हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम गिराए गए, जबकि युद्ध लगभग समाप्त हो गया था। जापान इस नरसंहार की कड़वी यादों से मुक्त नहीं हुआ, परंतु आर्थिक रूप से पुन: शक्तिशाली बन गया। ज्ञातव्य है कि जापान सुसुप्त अवस्था में रहे ज्वालामुखी पर बसा है और वहां लकड़ी के मकान बनते हैं। ढह गए मकान फिर से बनाते हैं। नीड़ का निर्माण बार-बार करते हुए कड़वी यादों को भूल जाते हैं और अपने बने रहने की इच्छा से ऊर्जा प्राप्त करते हैं।

जापान का सिनेमा भी अपनी परंपराओं के प्रति निष्ठावान रहते हुए सतत प्रयोग करता रहा है। अकिरा कुरोसावा की ‘सेवन समुराई’ से प्रेरित फिल्में सारी दुनिया में बनाई गईं। नरेंद्र बेदी ने जी.पी. सिप्पी के लिए ‘खोटे सिक्के’ बनाई। सितारे नहीं होने के बावजूद फिल्म सफल रही। सलीम-जावेद ने ‘सेवन समुराई’ को अपने ढंग से लिखा और रमेश सिप्पी ने संजीव कुमार, धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, हेमा मालिनी, जया बच्चन और अमजद खान के साथ ‘शोले’ बनाई। शोले के एक्शन दृश्य के लिए विदेशी तकनीशियनों की सेवा ली गई। फिल्म इतनी सफल रही कि बेंगलुरु के निकट लगाया गया सेट पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन गया। ‘खोटे सिक्के’ और ‘शोले’ फिल्म की कहानी एक ही है। ‘सेवन समुुराई’ का संदेश हर अनुकरण में गायब रहा। फिल्मकार कहता है कि अवाम का व्यवहार संकट के समय अलग-अलग रहता है। संकट टलते ही वह अपने पैदाइशी टुच्चेपन और संकीर्णता पर लौट आता है। यह कड़वा यथार्थ कोई देखना नहीं चाहता। ज्ञातव्य है कि अकिरा कुरोसावा ने जापान के इतिहास से प्रेरित भव्य फिल्म ‘कगेमुसा’ अमेरिकन फिल्मकार स्टीवन स्पिलबर्ग के पूंजी निवेश से बनाई। सभी सृजनशील फिल्मकार एक अदृश्य धागे से बंधे हैं।

अकिरा कुरोसावा की एक फिल्म में चार चश्मदीद गवाह हैं। उन्होंने अपराध घटित होते देखा है, परंतु अदालत में उनके बयान इस तरह दिए गए मानो चार विभिन्न अपराध हुए हों। एक बीती हुई घटना का विवरण देते समय मनुष्य के पूर्वाग्रह और अहंकार यथार्थ को अलग-अलग रंग देते हैं। तटस्थता एक भरम है। इतिहास उन्हें भी क्षमा नहीं करता जो तटस्थ बने रहते हैं। कवि दिनकर का यह कथन शाश्वत सत्य है। कोरोना कालखंड में जापान की सफलता हमें अकिरा कुरोसावा की याद दिलाती है। कोरोना का टीका ईजाद करने का काम अनेक देशों में हो रहा है। क्या टीका साधनहीन वर्ग को भी उपलब्ध होगा? कोरोना के साथ जीना अवाम सीख लेगा। कोरोना भी मलेरिया और तपेदिक के समान हो जाएगा। जापान में तीन पंक्ति का छंद लिखा जाता है, जिसे ‘हाइकू’ कहते हैं। गुलजार ने इस पर हाथ आजमाया है।

जापान का साहित्य और सिनेमा ही परंपराओं का आदर नहीं करता वरन् जीवनशैली में, खान-पान के मामले में भी परंपरा का निर्वाह करता है। इसी कारण सौ वर्ष की आयु पार करने वालों की संख्या जापान में सबसे अधिक है। जापान की प्रतिभा परंपरा से प्रेरणा लेकर अपने व्यक्तिगत योगदान से उस परंपरा को सशक्त करती हुई चलती है। कोरोना ने हमें नैराश्य से भर दिया है, परंतु आशा आज भी कायम है। परंपरा के साथ प्रयोग करना आज भी जारी है। चीजें तेजी से बदल रही हैं। याद आता है ‘बंबई का बाबू’ का गीत- गलियां हैं अपने देस की फिर भी हैं जैसे अजनबी किसको कहे कोई, अपना यहां साथी न काेई मंजिल... पत्थर के आशना मिले पत्थर के देवता मिले शीशे का दिल लिए, जाऊं कहां साथी न कोई मंजिल...

जापान के विशेषज्ञ ने आशंका अभिव्यक्त की है कि कोरोना का दूसरा दौर संभव है और इसकी भयावहता बड़ी हो सकती है। संकट जितना बड़ा होगा, हमारी लड़ने की ताकत उतनी ही बढ़ेगी।