शुभचिंतकों की परंपरा / सुभाष चन्दर
आप कुछ भी कहें पर मुझे नहीं लगता कि इस देश में इंसानियत बिल्कुल मर गयी है। मेरा अपना मानना तो ये है कि महान् देश के पानी में ही भलाई धुली हुई है। शुभचिंतकों की इस देश में कोई कमी नहीं है। बल्कि कई बार तो ऐसे शुभंिचंतक मिल जाते हैं, जिनसे मिलकर आपको लगता है कि वे आपकी चिंता आपसे भी ज्यादा करते हैं। ऐसे परोपकारी जीवों से देश भरा पड़ा है।
अभी कुछ दिन पूर्व ऐस ही एक परोपकारी जीव से मेरी भेंट हुई। भेंट तो उनसे अक्सर रोज ही हो जाती थी। लेकिन उन्हीं दिनों मेरे चचेरे भाई के सौभाग्य से औरउसके एवं उनकी पत्नी के अनर्थक प्रयासों से मेरे चाचा जी की जिंदगी की गाड़ी ने प्लेट फार्म छोड़ दिया। बस उन्हीं को हरिद्वार ले जाते समय मैं फिसल गया था और मेरे पैर में मोच आ गयी थी। इसी कारण मैं थोड़ा नृत्य करता हुआ चल रहा था। इसी पृष्ठभूमि को मद्दे नजर रखते हुए आप मेरे और शुभचिंतक जी के वार्तालाप की एक झलक देखें।
-....हैं.....हैं......हैं.... सुभाष जी, नमस्कार। कहिए पांव को क्या हुआ?
-कुछ नहीं, जरा सी मोच आ गयी थी।
-क्या कहा, जरा सी मोच, अरे साब ये बड़ी खतरनाक चीज है। आखिर यह आई कैसे?
मैं प्रश्नों का उतर टुकड़ों में देता हूं।
-कुछ नहीं, बस यूं ही फिसल गया था।
-अरे ये क्या यूं ही फिसल गये थे, भई अब फिसलना-विसलना छोड़ो। ये उमर क्या फिसलने की है। एक उमर थी जब फिसलने में भी मजा था। अब कहां फिसलें, किस पर फिसलें। कोई मजा ही नहीं रहा फिसलने में। खैर छोड़ो, यह बताओ भाई फिसले कहां पर?
-मैं फिर उतर का दूसरा हिस्सा प्रश्न के पीछे चिपका देता हूं।
-वो जरा हरिद्वार गये थे ना। बस वहीं कार से उतरते हुए पांव फिसल गया था।
-अच्छा-अच्छा, हरिद्वार गये थे, वैरी गुड, आपने ये बड़ा अच्छा किया कि हरिद्वार चले गये। हरिद्वार तो बड़ी अच्छी जगह है। मैं भी एक बार हरिद्वार गया था लेकिन फिसलने का मौका नहीं मिला। आपने अच्छा किया कि वहीं जाकर फिसले। वहां तो फिसलने से भी पुण्य मिलता है। यार लेकिन बड़े खराब आदमी हो प्रसाद तक नहीं भेजा। अच्छा कालूराम से प्रसाद तो मेरी सीट पर पहुंचवा देना। और थोड़ा ठीक-ठीक भिजवा देना घर भी ले जाऊंगा।
प्रसाद से मुक्ति मिलते ही उन्हें फिर अपना कर्तव्य याद आ गया- पर भाई हरिद्वार क्या करने गये थे, घूमने गये थे?
मैं संभावित शुभचिंतक से बचने के लिए प्रश्न की लंबाई के गोल बनाने का प्रयास करता हूं।
-नहीं बस यूं ही गया था।
-अरे भई यूं ही क्या, बताइए ना। जरूर एल.टी.सी. पर गए होंगे।
-नहीं-नहीं, वो क्या है कि.....
-अरे तभी हिचकिचा रहे हैं। हम समझ गये जरूर एल.टी.सी. पर गये होंगे। सेकेंड क्लास में जाकर फस्र्ट क्लास की यात्रा दिखाई होगी, खूब बचत की होगी। यही बात है तभी हिचकिचा रहे हैं। अरे! हम कोई किसी को बताएंगे थोड़े ही। मैं गुप्त बातें किसी को नहीं बताता। अब देखो पिछले दिनों मिसेज कपूर ने एल.टी.सी. पर पांच सौ रुपये बचाने की बात मुझे बतायी। कसम ले लो जो मैंने किसी को भी बतायी हो। उसके सैक्शन आॅफिसर को तो इसलिए बता दिया था कि उसने पूछा था। वरना मजाल है कि कहीं मुझे बताई बात लीक हो जाए।
उन्हें फिर याद आ गया-हां तो बताओ-बताओ ना क्यों गये थे?
मैं फिर बचने का प्रयास करता हूं लेकिन मेरे मुंह से शब्द फिसल पड़ते हैं-वो चाचाजी गुज़र गये थे। बस इसीलिए...
दुःख और आश्चर्य से उनका चश्मा चेहरे से गिरते-गिरते बचा। उन्होंने चश्मे और अपनी चिंता के सूत्र दोनों को संभाला।
-ऐ-अरे राम-राम-राम, ये तो बहुत बुरा हुआ। कहते हुए उन्होंने तेजी से रूमाल निकाला और नाक पर रख लिया कि कहीं ऐसा न हो कि सारा दुःख नाक के रास्ते ही निकल जाए। दुःख का प्रबंध का लेने के बाद अब उत्तर के प्रबंध की जिम्मेदारी मेरी थी।
-कुछ नहीं बीमार थे। मेरे उत्तर में कंजूसी थी।
-ऐं-बीमार थे। भई ऐसी क्या बीमारी हो गयी थी। आजकल जमाना बहुत खराब चल रहा है। एक दिन में आदमी बीमार हो जाता है और टपक जाता है। मुझे ही देखो-काफी दिनों से जुकाम चल रहा है। पता नहीं क्या होगा। तो भई ऐसी क्या बीमारी हो गयी थी। जरूर हार्ट अटैक हुआ होगा। आजकल उसी से मरने का फैशन चल पड़ा है।
मैंने जवाब दिया-नहीं पीलिया हुआ था।
-अच्छा तो पीलिया था- कहते हुए उन्होंने संतोष की सांस ली जैसे पीलिया में हुई मौत के अलावा उन्हें किसी और बीमारी से हुई मौत पर यकीन नहीं आता।
वे शुभचिंतन पर लग गये-क्या आप लोग ध्यान नहीं रखते थे। ये तो बड़ी गलत बात है। आजकल के लोग बुजुर्गों का ख्याल नहीं रखते? क्या आपको उनका ध्यान नहीं रखना चाहिए था। आजकल की पीढ़ी बड़े-बूढ़ों पर बिल्कुल ध्यान नहीं देती। खैर साहब बड़ा दुःख हुआ। कहकर वे क्षण भर को संभालकर नाक से टपक रहे दुःख को रूमाल से पौंछने लगे और दुःखयुक्त रूमाल को जेब के हवाले करके मैदान में आ डटे।
-लेकिन ये पीलिया हुआ कैसे?
-पता नहीं।
-पता नहीं, कहने से काम नहीं चलेगा भाई, ये बड़ी शर्मनाक बीमारी है और हां आपने भी अपना चैक आप कराया या नहीं। कहीं ऐसा न हो कि आपको भी कुछ...
-लेकिन ये कोई छूत की बीमारी थोड़े ही है- मैंने प्रतिवाद किया।
-क्या हुआ जो छूत की बीमारी नहीं है- लेकिन फिर भी चैक अप कराने में क्या हर्ज है? बल्कि मेरा कहा मानो तो पूरे परिवार का बाइल टैस्ट करा लो। कहीं ऐसा ना हो कि...
उन्होंने वाक्य फिर अधूरा छोड़ा। फिर यकायक उन्हें चाचाजी की याद दुबारा सताने लगी- हूं तो आपके चाचाजी साथ रहते थे या अलग रहते थे।
-जी चचेरे भाई के पास।
-अच्छा तो वे शाकाहारी थे या मांसाहारी?
इस प्रश्न का औचित्य मेरी समझ में बिल्कुल ही नहीं आया फिर भी मैंने कह दिया-जी शाकाहारी-लेकिन क्यों पूछा आपने?
-कुछ नहीं, मैं सोच रहा था कि अगर वो मांसाहारी होते तो आप भी मांसाहारी होते।
-लेकिन इससे क्यों?
-अरे भाई। सीधी-सी बात है आपके मैनेजर बनने की जब पार्टी होगी तो जरूर चिकन खिलवाओगे वरना मिठाई-मिठाई खिलवाकर ही जै राम जी कर जाओगे। कहकर वो ठहाका मारकर हंस पड़े हैं-फिर बोतल होगी और मुर्गे की टांग।
‘टांग’ शब्द आते ही वे चैंक पड़े-अरे राम। मैं आपकी बातों में पड़कर भूल ही गया था। और सुनाइए, आपकी मोच का क्या हाल है?
-जी...। मैं अचकचा गया।
-आपने पूरा इतिहास तो सुना डाला। लेकिन बताया नहीं कि अब आपका पैर कैसा है। अच्छा भई, मैं चलता हूं काफी देर हो गयी।
फिर उन्होंने चलते-चलते ही कहा-ऐसा करो ये मोच-वोच बड़ी खतरनाक चीज होती है। पहले एक्स-रे करा लो। कहीं ऐसा न हो कि कुछ हड्डी-वड्डी टूट गई हो।
-नहीं हल्की-सी सोच है-बस मैं बात को फिर बढ़ने से रोकता हूं।
-ऐ-हल्की-सी मोच-वोच कहकर बात को हल्का मत लो। जानते हो, वो खन्ना साब भी ऐसा ही कह रहे थे लेकिन बाद में हड्डी टूटी मिली और टी.बी. हो गयी अलग से।
-हड्डी टूटने का और टी.बी. का क्या संबंध?
-ऐं-अरे जब हड्डी टूटी तो क्या वो कमजोर नहीं हुई और जब आदमी कमजोर होगा तो उसे बीमारी होगी या नहीं, उन्हें टी.बी. हो गया। मैं तो कहता हूं कि पहले ही बचकर चलना चाहिए, बल्कि मेरी मानो तो पैर के साथ छाती का भी एक्सरे करा लो, कहीं ऐसा न हो कि....