शुभचिंतक / मधु संधु
वह दुबले, छरहरे बदन की गंदमी रंग की गम्भीर, सभ्य, सुसंस्कृत, सामान्य-सी लड़की थी। दो बच्चे हाई स्कूल में पढ़ते थे, पर चेहरा या शरीर उसके औरत होने का समर्थन नहीं भरते थे।
अभी ऑफिस पहुँची ही थी की फोन की घंटी टनटना उठी।
'हैलो! हू इज ऑन द लाइन'। उसने दफ़तरी मकेनिकल लहजे में पूछा।
'मानसी! नितिन हेयर, सुबह स्कूटर में हवा कम लग रही थी। सोचा पूछ लूँ, ठीक से पहुँच गई हो।' स्वर में मिश्री भी थी और आत्मीयता भी। उसने हाँ हूँ करके फोन पटक दिया।
घड़ी देखी। चार पचपन हुये थे। वह घर लौटने की तैयारी में थी की ट्रिन-ट्रिन होने लगी।
'हैलो', वह जल्दी में थी।
'मानसी! मैं बोल रहा हूँ अरविन्द। कल बच्चों का पेरेंट-टीचर मीट है। तुम चाहो तो रहने देना। मैंने अप्पू के लिए तो जाना ही है। तुम्हारे बेटे का भी देख लूँगा।'
उसने पटाक से फोन फेंक दिया।
जब तक वह ज़िंदा था, शराब की गंध से घर गंघाता रहता। वह खीझती, कलपती, कुढ़ती रहती। काश न होता। किसी से यह तो कह पाती- नहीं है, विघवा हूँ। कोई पूछे – क्या करता है, तो इस, बेकार, निखट्टू के लिए झूठ गढ़ना पड़ता। त्रासदी यह की अगली बार तक झूठ याद भी नहीं रहता। तब शर्मिंदा होने के इलावा कोई चारा न बचता।
पर तब ऐसे फोन कभी नहीं आए थे- उसके मरते ही इतने शुभचिंतक? सभी मेरे ख़सम बने फिरते हैं- वह उफनाई हुई थी।