शुभ मंगल सावधान : सोद्‌देश्य मनोरंजन / जयप्रकाश चौकसे

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शुभ मंगल सावधान : सोद्‌देश्य मनोरंजन
प्रकाशन तिथि :08 सितम्बर 2017


दक्षिण भारत के फिल्मकार प्रसन्ना की सफल फिल्म के मुंबइया संस्करण 'शुभ मंगल सावधान' को बहुत सराहा जा रहा है। फिल्मकार आनंद एल. राय ने 'तनु वेड्स मनु' से शुभारंभ करके अछूते विषयों पर मनोरंजक फिल्मों की शृंखला ही रच दी है। विवाह उनकी फिल्मों की केंद्रीय ऊर्जा है और हमारा समाज भी इसी के इर्द-गिर्द घूमता है। इस शुभ कार्य की संरचना युद्ध की तरह की गई है। बारात का व्यवहार विजयी सेना की तरह होता है और वधू पक्ष को पराजित की तरह बहुत कुछ सहना होता है। दूल्हा कमर में तलवार बांधे विजेता की तरह आता है। दहेज पराजय के दंड स्वरूप दिया जाता है, जिस पर कानूनी बंदिश लगा दी गई है। शुभ कार्य के साथ कुछ कुरीतियां भी जुड़ गई हैं। सूक्ष्म प्रतीकात्मक रीतियों के स्थूल स्वरूप में आने की प्रक्रिया में बुराइयां साथ लग गई हैं जैसे मर्दानगी की अवधारणा जिसे कुछ फिल्मी संवादों ने हव्वे में बदल दिया है। एक मिथ्या बात है कि मर्द को दर्द नहीं होता। इस फिल्म में खंडन इस तरह किया गया है कि मर्द किसी को दर्द नहीं देता वरन् वधू के मान-सम्मान का आदर करता है और उसकी रक्षा करता है। प्रेम को शादी की असल ऊर्जा की तरह प्रस्तुत किया गया है। तनाव के कारण मनुष्य की क्षमताएं कम हो जाती हैं। अपेक्षाएं भी तनाव को जन्म देती हैं। यौन संबंध से प्रेरित नीले फीते के जहर ने कहर ढाया है। अश्लील फिल्मों को नीले फीते का जहर कहते हैं। पाठ्यक्रम में यह विषय शामिल किया जाना चाहिए।

मर्दानगी के साथ एक बाजार जुड़ गया है। इस फिल्म के एक दृश्य में नायक को जानवरों के डॉक्टर से परामर्श की हिदायत दी जाती है। जानवरों में प्रजनन से जुड़ी विधा को एनीमल हसबेन्ड्री कहा जाता है। अत: शब्द 'हसबेन्ड्री' को पति बनने की कला से जोड़ा गया है। फिल्म की दृश्यावली में कोई भी बिम्ब अश्लील नहीं है और कथा के अंतस को संवादों के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है। इस तरह का 'विट' आनंद एल. राय की सभी फिल्मों में ध्वनित होता है। 'विट' और 'ह्यूमर' में अंतर है। 'विट' में बौद्धिकता का समावेश है। यह फिल्म अंग्रेजी उपन्यासकार पीजी वुडहाउस की याद ताजा करती है। इस विषय पर हिंदुस्तान में कम लिखा गया है क्योंकि नैतिकता के विक्टोरियन मानदंड हम पर आज भी हावी हैं। अभी असल आजादी में और वक्त लगेगा। इरविंग वैलेस के उपन्यास 'सेवन मिनिट्स' में भी इसी समस्या का विवरण है। एक कमसिन बालक पर एक तवायफ के कत्ल का मुकदमा चल रहा है और बालक भी उसी मर्दानगी समस्या का शिकार है जो 'शुभ मंगल सावधान' का विषय है। कथा का असली पेंच यही है कि फैसला देने वाला जज भी अपनी किशोर अवस्था में इसी तरह की समस्या से जूझा था और किशोर को न्याय दिलाने के लिए उसे स्वयं एक गवाह के रूप में प्रस्तुत होना है और ऐसा करने पर उसे सुप्रीम कोर्ट का जज बनने का अवसर खोना पड़ सकता है परंतु न्याय की खातिर वह सत्य का साथ देता है।

दरअसल, व्यक्तित्व में लंबाई, वजन और रंग इत्यादि से हमारा मोह बाजार की ताकतों ने रचा है। गोरे रंग के प्रति हमारा आग्रह भी कुरीतियों को जन्म देता है। कद बढ़ाने की औषधियां भी इसी बाजार का हिस्सा हैं। हमारे क्रिकेट सितारे सुनील गावसकर, सचिन तेंडुलकर, विश्वनाथ तथा आमिर खान जैसे छोटे कद के लोगों ने अपने क्षेत्र में इतिहास रचा है। कद पर 'एक लंबी लड़की' नामक गल्प बहुत शिक्षाप्रद है। हास्य कलाकार का कद छोटा है और उनकी पत्नी उनसे बड़े कद की है परंतु उनके वैवाहिक जीवन में यह समस्या कभी नहीं बना। तंदरुस्ती का कद और रंग से कोई संबंध नहीं है। याद आती है बिमल रॉय की फिल्म 'बंदिनी' के लिए गुलजार के गीत की पंक्ति 'मेरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे, छुप जाऊंगी रात ही में मोहे पी का संग दई दे'।

अगर हमारा श्रीराम का आकल्पन गौर वर्ण के लंबे व्यक्ति का है तो श्रीकृष्ण आकल्पन श्याम सांवरे का है। धार्मिक आख्यानों में इस तरह का आकल्पन भी हमें रंग व कद इत्यादि के भ्रम से मुक्त करता है। हमारे यहां दूल्हा और दुल्हन को हल्दी लगाने की रीत है जिससे उनकी त्वचा में आब उत्पन्न होती है परंतु इसे गोरे रंग से जोड़ना गलत है। हल्दी का संबंध सेहत से है न कि रंग से। विगत दी के पांचवें व छठे दशक में किशोर वय के लोग चोरी छुपे 'भांग की पकौड़ी' नामक किताब पढ़ते थे। इस किताब में यौन संबंध पर भ्रामक जानकारियां थीं परंतु इस पर किताबों के अभाव के कारण यह खूब पढ़ी गई है। इस किताब में प्रकाशन संस्था का पता मनगढ़ंत था। उस तरह का भवन या मोहल्ला कहीं था ही नहीं और यह अश्लीलता के आरोप से बचने के लिए किया गया था। उस दौर के लोगों का कहना है कि एक महान साहित्यकार ने यह किताब अपनी आर्थिक तंगी के कारण लिखी थी। बहरहाल, वर्तमान समय में इस विषय का व्यावसायिक लाभ इंटरनेट पर उठाया जा रहा है। उन लोगों को सावधान रहना चाहिए, जिनके घर में किशोर वय के बच्चे हैं। फिल्म का नाम ही बहुत कुछ कह रहा है।