शुभ / पद्मजा शर्मा
अहमदाबाद मेरा आना जाना लगा रहता है। जनवरी का महीना। बस का स$फर। आधी रात। बस होटल के पास रुकी। सदा तो सड़क के उस पार ढाबे के पास खड़ी हुआ करती थी। मगर सामने होटल बन गया तो सारा जमावड़ा उधर हो गया। मैं ढाबे पर गई. मैंने एक कप चाय ली। पूछा-'भैय्या सारी रौनक उधर?'
'क्या बताएँ दीदी, सब किस्मत के खेल हैं। बड़ी मछली छोटी को निगल गई. पानी हो या धरती, सजीवों के रिवाज सब जगह एक सरीखे होते हैं। अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ सभी करते हैं। पर मेरा विश्वास है कि दिन फिरेंगे।' वह निराशा के समंदर से जैसे एक झटके में ही उबर भी आया।
रात अँधेरी थी। पर राह में सितारों की रोशनी अभी बाकी थी। कम ग्राहकी के बावजूद उस चाय में पहले वाला जायका कायम था। उसका आत्मविश्वास और चाय की क्वालिटी से मुझे लगा यह आदमी हारेगा तो नहीं।
मैंने उससे कहा-'जब आंधियाँ चलती हैं तब बड़े-बड़े पेड़ गिर जाते हैं। छोटी घास खड़ी रहती है। तुम भी खड़े रहना। खड़े रहोगे तो चलोगे भी।'
मैंने वास्तु सीख रखी है। उसे लगे हाथ रसोई की दिशा बदल देने की सलाह भी दे डाली कि पहले वाली रखो। वह शुभ थी।
उसने अनमने भाव से 'जी दीदी' कहा।
असल में चीजों को इधर-उधर करने से समय जल्दी और उम्मीद के सहारे कट जाता है। इसी से उसे बिन मांगे ही राय दी। मैं कुछ दिन बाद लौटी. वही जगह, पर स्थिति उलट। होटल बंद। सारी चहल पहल ढाबे की ओर। मुझे देखते ही ढाबे वाला मेरे पाँवों में गिर गया-
'दीदी रसोई की दिशा बदलते ही मेरी दशा बदल गई. आपकी जीभ फल गई. मुझे ज़िन्दगी मिल गई.'
पता चला होटल वाला चाय में नशे की गोलियाँ मिलाता था। पुलिस का छापा पड़ा। एक ही रात में सब खेल खत्म।
'मेरी जीभ नहीं भैया तुम्हारी ईमानदारी, साफ दिली और धैर्य की जीत हुई है।'
होटल वाले के विरुद्ध ढाबे वाले ने मन में ज़रा भी विष नहीं घोला था। वह विश्वास की ज़मीन पर खड़ा था। धरती भूकम्पों से टूट सकती है। मगर विश्वास की धरती को तोडऩा तो दूर, कोई हिला भी नहीं सकता।